उलूक टाइम्स: थानेदार
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गुरुवार, 1 अक्तूबर 2015

बेचिये जो भी बिक सकता है और जो तैयार है

पिछले
महीने से

निकल रहे हैं
जलूस
मेरे शहर में

क्यों निकल
रहे हैं
कोई पूछने
वाला नहीं है

ना ही कोई
अखबार में
कोई खबर है

जिलाधीश भी
सो रहा है
थानेदार भी
बहुत होशियार है

निमंत्रण मिला है
मुजफ्फर नगर
काण्ड के
खलनायकों पर
बहस करने का

बहुत पुरानी बात
हो गई है सुनने को
अभी की बात
को कौन तैयार है

नहीं देखा
मंजर इस तरह का
अभी तक की
जिंदगी में कभी

लोग कह रहे हैं
अच्छे दिन हैं
अच्छी बयार है

बुलाया गया है
निमंत्रण भी है
मुजफ्फर नगर
काण्ड के खलनायक
व उत्तराखण्ड पर
बहस के लिये

बतायें जरा अपने
घर के काण्डों पर
बात करने को
कौन तैयार है

माना कि
‘उलूक’
को अंधों मे
गिना जाता है

फिर भी
दिखता है
कोने से कहीं
उसको भी कुछ

कहना ही है
मानकर
कि कहना है
और कहना
भी बेकार है।

चित्र साभार: www.anninvitation.com

रविवार, 14 दिसंबर 2014

क्या किया जाता है जब सत्य कथाओं की राम नाम हो रही होती है

ज्यादातर कही
जाने वाली
कथायें
सत्य कथायें
ही होती हैं
जिंदगी
पता नहीं
चल पाता है
कब एक बच्चे
से होते होते
जवाँ होती है
समझ में आने
के लिये
बहुत सी बातें
चलते चलते
सीखनी होती है
कुछ कथनी करनी
एक मजबूरी
होती है और
कुछ करनी कथनी
जरूरी होती है
रात किसी दिन
सोते समय
अचानक बाहर
आवाज होती है
जब कुछ
आसामाजिक
तत्वों की
अंधेरे में
खुद ही के
किसी साथी से
मुटभेड़ होती है
समझ में आती
है बात जब तक
शाँति हो
चुकी होती है
बाहर निकल कर
देखने पर
दिखता है
मार खाई हुई
खून से लथपथ
एक जान
आँगन में अपने
पड़ी होती है
कुछ समझ में
नहीं आता है
और फिर पास
के थाने के
थानेदार से
दूरभाष पर
बात होती है
थानेदार को
घटना से ज्यादा
अपने बारे में
बताने की
पड़ी होती है
साथ में
फँला फँला से
उसके बारे में
पूछ लेने की
राय भी होती है
मुँह पर हँसी और
समझ अपनी
रो रही होती है
अपनी पहचान
भी उसको
बताने की
बहुत ज्यादा
खुद को भी
पड़ी होती है
कैसे बताया
जाये उसको
बस उसकी
उधेड़बुन सोच
बुन रही होती है
देश के प्रधानमंत्री
की डेढ़ सौ करोड़
की सूची की तरफ
उसका ध्यान
खींचने के लिये
किसी एक
तरकीब की
जरूरत हो
रही होती है
एक बड़े बन
चुके आदमी
के सामने
एक छोटे आदमी
की छोटी सोच
बस अपने
ही घर में
डरी डरी सी
रो रही होती है ।

चित्र साभार: weeklyvillager.com