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शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

पागलों के साथ कौन खड़ा होना चाहता है ?

किसी को कुछ
समझाने के लिये
नहीं कहता है
‘उलूक’ आदतन
बड़बड़ाता है
देखता है अपने
चश्मे से अपना
घर जैसा
है जो भी
सामने से
नजर आता है
बक बका जाता
है कुछ भी
अखबार में जो
कभी भी
नहीं आता है
तेरे घर में नहीं
होता होगा
अच्छी बात है
उसके घर में
बबाल होता है
रोज कुछ ना
कुछ बेवकूफ
रोज आकर
साफ साफ
बता जाता है
रुपिये पैसे का
हिसाब कौन
करता है
सामने आकर
पीछे पीछे
बहुत कुछ
किया जाता है
अभी तैयारियाँ
चल रही है
नाक के लिये
नाक बचाने
के लिये झूठ
पर झूठ
अखबार में दिखे
सच्चों से बोला
जाता है
कौन कह रहा है
झूठ को झूठ
कुछ भी कह
दीजिये हर कोई
झूठ के छाते के
नीचे आकर खड़ा
होना चाहता है
किसी में नहीं है
हिम्मत सच के
लिये खड़े होने
के लिये हर कोई
सच को झूठा
बनाना चाहता है
‘उलूक’ के साथ
कोई भी नहीं है
ना होगा कभी
पागलों के साथ
खड़ा होना भी
कौन चाहता है ।

 चित्रसाभार: www.clipartsheep.com

रविवार, 20 सितंबर 2015

देखा कुछ ?

देखा कुछ ?
हाँ देखा
दिन में
वैसे भी
मजबूरी में
खुली रह जाती
हैं आँखे
देखना ही पड़ता है
दिखाई दे जाता है
वो बात अलग है
कोई बताता है
कोई चुप
रह जाता है
कोई नजर
जमीन से
घुमाते हुऐ
दिन में ही
रात के तारे
आकाश में
ढूँढना शुरु
हो जाता है
दिन तो दिन
रात को भी
खोल कर
रखता हूँ आँखें
रोज ही
कुछ ना कुछ
अंधेरे का भी
देख लेता हूँ
अच्छा तो
क्या देखा ? बता
क्यों बताऊँ ?
तुम अपने
देखे को देखो
मेरे देखे को देख
कर क्या करोगे
जमाने के साथ
बदलना भी सीखो
सब लोग एक साथ
एक ही चीज को
एक ही नजरिये
से क्यों देखें
बिल्कुल मत देखो
सबसे अच्छा
अपनी अपनी आँख
अपना अपना देखना
जैसे अपने
पानी के लिये
अपना अपना कुआँ
अपने अपने घर के
आँगन में खोदना
अब देखने
की बात में
खोदना कहाँ
से आ गया
ये पूछना शुरु
मत हो जाना
खुद भी देखो
औरों को भी
देखने दो
जो भी देखो
देखने तक रहने दो
ना खुद कुछ कहो
ना किसी और से पूछो
कि देखा कुछ ?

चित्र साभार: clipartzebraz.com

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

लिखना कुछ कुछ दिखने के इंतजार के बाद कुछ पूरा कुछ आधा आधा

अपना कुछ लिखा होता
कभी अपनी सोच से
उतार कर किसी
कागज पर जमीन पर
दीवार पर या कहीं भी
तो पता भी रहता
क्या लिखा जायेगा
किसी दिन की सुबह
दोपहर में या शाम
के समय चढ़ती धूप
उतरते सूरज
निकलते चाँद तारे
अंधेरे अंधेरे के समय
के सामने से होते हैं
सजीव ऐसे जैसे को
बहुत से लोग
उतार देते हैं हूबहू
दिखता है लिखा हुआ
किसी के एक चेहरे
का अक्स आईने के
पार से देखता हो
जैसे खुद को ही
कोशिश नहीं की
कभी उस नजरिये
से देखने की
दिखे कुछ ऐसा
लिखे कोई वैसा ही
आदत खराब हो
देखने की
इंतजार हो होने के
कुछ अपने आस पास
अच्छा कम बुरा ज्यादा
उतरता है वही उसी तरह
जैसे निकाल कर
रोज लाता हो गंदला
मिट्टी से सना भूरा
काला सा जल
बोतल में अपारदर्शी
चिपका कर बाहर से
एक सुंदर कागज में
सजा कर लिख कर
गंगाजल ताजा ताजा ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

जमाने को सिखाने की हिम्मत गलती से भी मत कर जाना

ये अपना अपना
खुद का खुद क्या
लिखना लिखाना
कभी कुछ
ऐसा भी लिख
जिसका कहे
कोई जरा
इंपेक्ट फेक्टर
तो बताना
इधर से टीप
उधर से टीप
कभी छोटा सा
कभी लम्बा
सा बना ना
बिना डरे घबराये
दो चार संदर्भ
लिखे के नीचे
से छोटे छोटे
अक्षरों में कुछ
छपवा ले जाना
इधर उस पर
कुछ पैसा बनाना
उधर इस पर
इनाम कुछ
कह कहलवा
कर उठवाना
अपने आप खुद
अपनी सोच से
कुछ लिख लिखा
लेने वालों का
जनता के बीच
मजाक बनवाना
ऐसा भी क्या
एक झंडा उठाना
जिसे फहराने
के लिये
कहना पड़ जाये
हवा से भी
आ जा ना
आ जा ना
समझ नहीं सका
बेवकूफ तू
ना समझ
पायेगा कभी भी
ये जमाना भी है
उसी का जमाना
अपनी कहते
रहते हैं मूरख
‘उलूक’ जैसे
कुछ हमेशा ही
तू उसके नीम
कहे पर चाशनी
लगा कर
हमेशा मीठा
बना बना कर
वाह वाही पाना
हींग लगेगी
ना फिटकरी
ना तेरी जेब से
कभी भी इस में
कुछ है जाना
लगा रह इसका
उस से कहते हुऐ
उसका इस से
कहते चले जा ना ।

चित्र साभार: www.clker.com

सोमवार, 17 नवंबर 2014

खुद का आईना है खुद ही देख रहा हूँ

अपने आईने
को अपने
हाथ में लेकर
घूम रहा हूँ

परेशान होने
की जरूरत
नहीं है
खुद अपना
ही चेहरा
ढूँढ रहा हूँ

तुम्हारे
पास होगा
तुम्हारा आईना
तुमसे अपने
आईने में कुछ
ढूँढने के लिये
नहीं बोल रहा हूँ

कौन क्या
देखता है जब
अपने आईने में
अपने को देखता है

मैंने कब कहा
मैं भी झूठ
नहीं बोल रहा हूँ

खयाल में नहीं
आ रहा है
अक्स अपना ही
जब से बैठा हूँ
लिखने की
सोचकर

उसके आईने में
खुद को देखकर
उसके बारे में
ही सोच रहा हूँ

सब अपने
आईने में
अपने को
देखते हैं

मैं अपने आईने
को देख रहा हूँ

उसने देखा हो
शायद मेरे
आईने में कुछ

मैं
उसपर पड़ी
हुई धूल में
जब से
देख रहा हूँ

कुछ ऐसा
और
कुछ वैसा
जैसा ही
देख रहा हूँ ।

चित्र साभार: vgmirrors.blogspot.com

बुधवार, 27 अगस्त 2014

नजर टिक जाती है बहुत देर तक अंजाने में किसी की डायरी के एक पन्ने में बस यूँ ही कभी

 
ढूँढना
शुरु करना कभी कुछ 
थोड़ी देर देखने भर के लिये 
खुद को अपने ही आस पास से हटा कर 
दूर ले जाने की मँशा के साथ भटकते भटकते 

रुकते हुऐ
कदम किसी के पन्ने पर 
बस इतना सोच कर कि ठीक नहीं
रोज अपनी ही बात को लेकर खड़े हो जाना 

दर्द बहुत हैं बिखरे हुऐ
गुलाबों की सुर्ख पत्तियों से जैसे ढके हुऐ 
बहुत कुछ है यहाँ
पता लगता भी है 

कहीं किसी मोड़ पर आकर
मुड़ा हुआ पन्ना किसी किताब का
रोक लेता है कदमों को 
और नजर
गुजरती किसी लाईन के बीच 
पता चलता है खोया हुआ किसी का समय

और 
रुकी हुई घड़ी
जैसे इंतजार में हो
किसी के लौटने के आने की खबर के लिये 

जानते बूझते
किसी के चले जाने की 
एक सच्ची बहुत दूर से आई और गयी
खबर के झूठ हो जाने की आस में 

अपने गम
बहुत हल्के होते हुऐ
तैरते नजर आना शुरु होते हैं
और नम कर देते हैं आँखो को एक आह के साथ

जो निकलती है
एक दुआ के साथ दिल से 
खोये हुऐ के सभी अपनों के लिये । 

चित्र साभार:  http://apiemistika.lt/ 

रविवार, 1 जून 2014

जैसा यहाँ होता है वहाँ कहाँ होता है

कभी कभी
बहुत अच्छा
होता है

जहाँ आपको
पहचानने वाला
कोई नहीं होता है

कुछ देर के
लिये ही सही
बहुत चैन होता है

कोई कहने सुनने
वाला भी नहीं
कोई चकचक
कोई बकबक नहीं

जो मन में
आये करो
कुछ सोचो
कुछ और
लिख दो

शब्दों को
उल्टा करो
सीधा कर
कहीं भी
लगा दो

किसे पता
चल रहा है कि
अंदर कहीं कुछ
और चल रहा है

कोई भी
किसी को
देख भी नहीं
रहा होता है

सच सच
सब कुछ सच
और साफ साफ
बता भी देने से
कोई मान जो
क्या लेता है

वैसे भी
हर जगह
का मौसम
अलग होता है

सब की अपनी
लड़ाईयाँ
सबके अपने
हथियार होते हैं

किसी के दुश्मन
किसी और के
यार होते है

पर जो भी
होता है
यहाँ बहुत
ईमानदारी
से होता है

बेईमानी कर
भी लो थोड़ा
बहुत कुछ अगर
तब भी किसी को
कुछ नहीं होता है

सबको जो भी
कहना होता है
अपने लिये
कहना होता है

अपना कहना
अपने लिये
उसी तरह से

जैसे
अपना खाना
अपना पीना
होता है ।

मंगलवार, 18 मार्च 2014

देश अपना है शरम छोड़ "उलूक" कोई हर्ज नहीं हाथ आजमाने में

दिखने शुरु हो
गये हैं दलाल
हर शहर गाँव
की गलियों
सड़कों बाजार
की दुकानों में
टोह लेते हुऐ
आदमी की
सूंघते फिरने
लगे हैं पालतू
जानवर जैसे
ढूँढ रहे हो
आत्माऐं अपने
मालिकों के
मकानो की
मकान दर
मकानों में
महसूस कराने
में लग चुके
हैं नस्ल किस्म
और खानदान
की गुणवत्ता
लगा कर
नया कपड़ा
कब्र के पुराने
अपने अपने
शैतानों में
ध्यान हटवाने
में लगे है
लड़ते भिड़ते
खूँखार भेड़ियों की
खूनी जंग से
जैसे हो रहे
हो युद्ध देश
की सीमा पर
जान देने ही
जा रहे हों
सिपाहियों की तरह
नजर लगी हुई है
सब की देश के
सभी मालखानों में
जानता है हर कोई
बटने वाली है
मलाई दूध की
कुछ बिल्लियों को
कुछ दिनों के
मजमें के बाद
आँख मुँह कान
बँद कर तैयार
हो रहा है
घड़ा फोड़ने के
खेल में दिमाग
बंद कर अपना
फिर भी भाग
लगाने में
क्या बुरा है
“उलूक”
सोच भी लिया
कर कभी किसी
एक बिल्ली का
दलाल तेरे भी
हो जाने में ।

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

अपना अपना देखना अपना अपना समझना हो जाता है

एक चीज मान लो
कलगी वाला एक
मुर्गा ही सही
बहुत से लोगों
के सामने से
मटकता हुआ
निकलता है
कुछ को दिखता है
कुछ को नहीं
भी दिखता है
या कोई देखना
नहीं चाहता है
जिनको देखना ही
पड़ जाता है
उनको पता
नहीं चलता है
मुर्गे में क्या
दिखाई दे जाता है
अब देखने का
कोई नियम भी तो
यहाँ किसी को
नहीं बताया जाता है
जिसकी समझ में
जैसा आता है
वो उसी हिसाब से
हिसाब लगा कर
उतना ही मुर्गा
देख ले जाता है
बात तो तब
बिगड़ती है जब
सब से मुर्गे
की बात को
लिख देने को
कह दिया जाता है
सबसे मजे में
वो आ जाता है
जो कह ले जाता है
मुर्गा क्या होता है
उसको बिल्कुल
भी नहीं आता है
बाकी सब
जिन के लिये
लिखना एक मजबूरी
ही हो जाता है
वो एक दूसरा क्या
लिख रहा है
देख देख कर भी
अलग अलग बात
लिख जाता है
देखे गये मुर्गे को
हर कोई एक मुर्गा
ही बताना चाहता है
इसके बावजूद भी
किसी के लिखे में
वो एक कौआ
किसी में कबूतर
किसी में मोर
हो जाता है
पढ़ने वाला जानता
है अच्छी तरह
कि मुर्गा ही है
जो इधर उधर
आता जाता है
लेकिन पढ़ने के
बावजूद उसकी
समझ में किसी
के लिखे में से
कुछ भी
नहीं आता है
क्या फरक
पड़ना है
'उलूक' बस यही
कह कर चले जाता है
लिखने वाला अपने
लिखे के लिये ही
जिम्मेदार माना जाता है
पढ़ने वाले का उसका
कुछ अलग मतलब
निकाल लेना उसकी
अपनी खुद की
जिम्मेदारी हो जाता है
इसी से पता चल
चल जाता है
मुर्गा देखने
मुर्गा समझने
मुर्गा लिखने
मुर्गा पढ़ने में
कोई सम्बंध
आपस में
कहीं नजर
नहीं आता है ।