उलूक टाइम्स: निशान
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2022

इतना लिख कि लिख लिख कर कारवान लिख दे


चल रहने दे सब जमीन की बातें
कभी तो कोशिश कर थोड़ा सा आसमान लिख दे
लिखते लिखते घिस चुकी सोच
छोड़ एक दिन बिना सोचे पूरा एक बागवान लिख दे

ला लिखेगा जमा किया महीने भर का
जैसे एक दिन में कोई पूरा कूड़ेदान लिख दे
किसलिये करनी है इतनी मेहनत 
कौन कहता है तुझसे चल एक बियाबान लिख दे

सबको लिखना है सबको आता है लिखना 
तू अपना लिख पूरा इमतिहान लिख दे
किसने बूझना है लिखे को किसे समझना है 
आधा लिख चाहे पूरा दीवान लिख दे

होता रहा है होता रहेगा आना जाना यहां भी वहां भी 
रास्ते रास्ते निशान लिख दे
तू ना सही कोई और शायद कर ले कोशिश लौटने की फिर यहीं 
खाली उनवान लिख दे

आदत है तो है मगर ठीक नही है लिखना इस तरह से खीच कर 
पूरी लम्बी एक जुबान लिख दे
निकले कुछ तो मतलब कभी लिखे का तेरे ‘उलूक’ 
मत लिखा कर इस तरह कि दुकान लिख दे

चित्र साभार: https://www.indiamart.com/

सोमवार, 14 अक्तूबर 2019

सागर किनारे लहरें देखते प्लास्टिक बैग लेकर बोतलें इक्ट्ठा करते कूड़ा बीनते लोग भी कवि हो जाते हैं


ना
कहना
आसान होता है

ना
निगलना
आसान होता है

सच
कहने वाले
के
मुँह
पर राम

और

सीने पर
गोलियों का
निशान होता है

सच
कहने वाला
गालियाँ खाता है

निशान
बनाने वाले का

बड़ा
नाम होता है

‘उलूक’
यूँ ही नहीं
कहता है

अपने
कहे हुऐ
को
एक बकवास

उसे
पता है

कविता
कहने
और
करने वाला
कोई एक
 खास होता है

अभी
दिखी है
कविता

अभी
दिखा है
एक कवि

 कूड़ा
समुन्दर
के पास
बीन लेने
वाले को

सब कुछ
सारा
माफ होता है

बड़े
आदमी के
शब्द

नदी
हो जाते हैं

उसके
कहने
से ही
सागर में
मिल जाते हैं

बेचारा
प्लास्टिक
हाथ में
इक्ट्ठा
किया हुआ
रोता
रह जाता है

बनाने
वालों के
अरमान

फेक्ट्रियों
के दरवाजों
में
खो जाते हैं

बकवास
बकवास
होती है

कविता
कविता होती है

कवि
बकवास
नहीं करता है

एक
बकवास
करने वाला

कवि
हो जाता है ।


चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

शनिवार, 29 सितंबर 2018

निशान किये कराये के कहीं दिखाये नहीं जाते हैं

शेर
होते नहीं हैं
शायर
समझ नहीं पाते हैं

कुछ इशारे
गूँगों के समझ में
नहीं आते हैं

नदी
होते नहीं हैं
समुन्दर
पहुँच नहीं पाते हैं

कुछ घड़े
लबालब भरे
प्यास नहीं बुझाते हैं

पढ़े
होते नहीं हैं
पंडित
नहीं कहलाते हैं

कुछ
गधे तगड़े
धोबी के
हाथ नहीं आते हैं

अंधे
होते नहीं हैं
सच
देखने नहीं जाते हैं

कुछ
आँख वाले
रोशनी में
चल नहीं पाते हैं

अर्थ
होते नहीं हैं
मतलब
निकल नहीं पाते हैं

कुछ भी
लिखने वाले को
पढ़ने नहीं जाते हैं

काम
करते नहीं हैं
हरामखोर
बताये नहीं जाते हैं

कुछ
शरीफों के
समाचार
बनाये नहीं जाते हैं

लिखते
कुछ नहीं हैं
पढ़ने
नहीं जाते हैं

करते
चले चलते हैं
बहुत कुछ

‘उलूक’
निशान
किये कराये के
दिखाये नहीं जाते हैं ।

चित्र साभार: www.fotolia.com

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

एक पन्ने पर कुछ देर रुक कर अच्छा होता है आवारा हो लेना पूरी किताब लिखनी जरूरी है कहाँ लिखा होता है

दरवाजा
खोल कर
निकल लेना
बेमौसम
बिना सोचे समझे

सीधे सामने के
रास्ते को
छोड़ कर कहीं

मुड़ कर
पीछे की ओर
ना चाहते हुऐ भी

जरूरी
हो जाता है
कभी कभी

जब हावी
होने लगती
है सोच
आस पास की
उड़ती हवा की

यूँ ही
जबर्दस्ती
उड़ा ले जाने
के लिये
अपने साथ
लपेटते हुए
अपनी सोच
के एक
आकर्षक
खोल में

अपने अन्दर
के 'ना' को
नकारने में माहिर

बहुत सारे
साफ हाथों से
सुलेख में
'हाँ' लिखे हुऐ
पोस्टर बैनर
ली हुयी
भीड़ के बीच

'नहीं' को
बचा ले जाने
की कोशिशें
नाकाम होनी
ही होती हैं

अच्छा होता है
नजर हटा लेना
अपने अन्दर
जल रही
आग से
बने कोयले
और राख से
पारदर्शी आयने
हो चुके चेहरों से

और देख लेना
आरपार
सड़क पर खड़े एक
जीवित शरीर को
आत्मा समझ कर
दूर कहीं
हरे भरे पेड़ पौंधों
उड़ते हुऐ चील कौवों
या क्रिकेट खेलते हुऐ
खिलदंडों से भरे
मैदान से उड़ती
हुई धूल को

कविताओं के शोर में
दब गयी आवाज को
बुलन्द कर ले जाना
आसान नहीं होता है

चलती साँस को
कुछ देर रोक कर
धीरे से छोड़ने के लिये
इसीलिये कहा जाता
होगा शायद

खाली
सफेद पन्ने भी
पढ़े जा सकते हैं
लिखना छोड़ कर
किसी मौसम में
‘उलूक’

खुद ही पढ़ने
और
समझ लेने
के लिये
खुद लिखे गये
आवारा रास्तों
के निशान।

चित्र साभार: canstockphoto.com

रविवार, 7 दिसंबर 2014

लिखे हुऐ को लिखे हुऐ से मिलाने से कुछ नहीं होता है

अंगूठे के
निशान
की तरह

किसी
की भी
एक दिन
की कहानी

किसी
दूसरे की
उसी दिन
की कहानी


जैसी
नहीं हो पाती है

सब तो
सब कुछ
बताते नहीं है

कुछ की
आदत होती है

आदतन
लिख दी जाती है

अब
अपने रोज
की कथा
रोज लिखकर

रामायण
बनाने की
कोशिश
सभी करते हैं

किसी
को राम
नहीं मिलते हैं

किसी
की सीता
खो जाती है

रोज
लिखता हूँ
रोज पढ़ता हूँ

कभी
अपने लिखे
को उसके लिखे के
ऊपर भी रखता हूँ

कभी
अपना
लिखा लिखाया

उसके
लिखे लिखाये से
बहुत लम्बा हो जाता है

कभी उसका
लिखा लिखाया
मेरे लिखे लिखाये की
मजाक उड़ाता है

जैसे
छिपाते छिपाते भी
एक छोटी चादर से

बिवाईयाँ
पड़ा पैर
बाहर
निकल आता है

फिर भी
सबको
लिखना
पड़ता ही है

किसी को
दीवार पर
कोयले से

किसी को
रेत पर
हथेलियों से

किसी को
धुऐं और
धूल के ऊपर
उगलियों से

किसी को
कागज पर
कलम से

कोई
अपने
मन में ही
मन ही मन
लिख लेता है

रोज का
लेखा जोखा
सबका
सबके पास
जरूर
कुछ ना कुछ
होता है

बस
इसका लिखा
उसके लिखे
जैसा ही हो
ये जरूरी
नहीं होता है

फिर भी
लिखे को लिखे
से मिलाना भी
कभी कभी
जरूरी होता है

निशान से
कुछ ना भी
पता चले

पर उस पर
अंगूठे का पता
जरूर होता है ।

चित्र साभार: raemegoneinsane.wordpress.com

शुक्रवार, 20 जून 2014

आभार वीरू भाई आपके हौसला बढ़ाने के लिये और आज का मौजू आपकी बात पर ।



'उलूक टाइम्स' के 18-06-2014 के पन्ने की पोस्ट 

पर ब्लॉग
के ब्लॉगर 
की टिप्पणी 
---------------

आभार आपकी टिप्पणियों का।
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सार्थक लेखन को पंख लग गए हैं आपके।"
-----------------

पर आभार व्यक्त करते हुऐ
                   

‌‌‌सब कुछ उड़ता है वहाँ 
उड़ाने वाले होते हैं जहाँ


लेखन को पँख
लग गये हैं जैसे
उसने कहा

क्या उड़ता हुआ
दिखा उसे बस
यही पता नहीं चला

लिखा हुआ भी
उड़ता है
उसकी भी उड़ाने
होती हैं सही है

लेकिन कौन सी
कलम किस तरह
कट कर बनी है

कैसे चाकू से
छिल कर उसकी
धार बही है

खून सफेद रँग
का कहीं गिरा
या फैला तो नहीं है

किसे सोचना है
किसे देखना है

मन से हाथों से
होते होते
कागज तक
उड़कर पहुँची है

छोटी सोच की
ऊड़ान है और
बहुत ऊँची है

किस जमीन में
कहाँ रगड़ने के
निशान
छोड़ बैठी है

उड़ता हुआ जब
किसी को किसी ने
नहीं देखा है

तो उड़ने की बात
कहाँ से लाकर
यूँ ही कह दी गई है

पँख कटते है जितना
उतना और ऊँचा
सोच उड़ान भरती है

पूरा नहीं तो नापने को
आकाश आधा ही
निकल पड़ती है

पँख पड़े रहते हैं
जमीन में कहीं
फड़फड़ाते हुऐ

किसे फुरसत होती है
सुनने की उनको
उनके अगल बगल
से भी आते जाते हुऐ

उड़ती हुई चीजें
और उड़ाने किसे
अच्छी नहीं लगती हैं

‘उलूक’ तारीफ
पैदल की होती हुई
क्या कहीं दिखती है

जल्लाद खूँन
गिराने वाले नहीं
सुखाने में माहिर
जो होते हैं

असली हकदार
आभार के बस
वही होते हैं

लिखने वाला हो
लेखनी हो या
लिखा हुआ हो

उड़ना उड़ाना हो
ऊँचाइ पर ले जा कर
गिरना गिराना हो

तूफान में कभी
दिखते नहीं
कहीं भी कभी भी
तूफान लाने का
जिसको अनुभव
कुछ पुराना हो

असली कलाकार
वो ही और बस
वो ही होते हैं

लिखने लिखाने वाले
तो बस यूँ ही कुछ भी
कहीं भी लिख रहे होते हैं

तेरी नजर में ही है
कुछ अलग बात
तेरे लिये तो उड़ने के
मायने ही अलग होते हैं ।

मंगलवार, 7 जनवरी 2014

समय खुद लिखे हुऐ का मतलब भी बदलता चला जाता है

बहुत जगह
बहुत कुछ
कुछ ऐसे भी
लिखा हुआ
नजर आ
जाता है

जैसे आईने
पर पड़ी
धूल पर
अँगुलियों
के निशान
से कोई
कुछ बना
जाता है

सागर किनारे
रेत पर बना
दी गई
कुछ तस्वीरेँ

पत्थर की
पुरानी दीवार
पर बना
एक तीर से
छिदा हुआ दिल

या फिर
कुछ फटी हुई
कतरनों
पर किये हुऐ
टेढ़े मेढ़े हताक्षर

हर कोई
समय के
हिसाब से
अपने मन के
दर्द और
खुशी उड़ेल
ले जाता है

कहीं भी
इधर या उधर
वो सब बस यूँ ही
मौज ही मौज में
लिख दिया जाता है

इसलिये
लिखा जाता है
क्यूँकि बताना
जब मुश्किल
हो जाता है

और जिसे
कोई समझना
थोड़ा सा भी
नहीं चाहता है

हर लिखे हुऐ का
कुछ ना कुछ
मतलब जरूर
कुछ ना कुछ
निकल ही जाता है

बस मायने बदलते
ही चले जाते हैं
समय के साथ साथ

उसी तरह
जिस तरह
उधार लिये हुऐ
धन पर
दिन पर दिन
कुछ ना कुछ
ब्याज चढ़ता
चला जाता है

यहाँ तक
कि खुद ही
के लिखे हुऐ
कुछ शब्दों पर

लिखने वाला
जब कुछ साल बाद
लौट कर विचार कुछ
करना चाहता है

पता ही
नहीं चलता है
उसे ही
अपने लिखे हुऐ
शब्दो का ही अर्थ

उलझना
शुरु हुआ नहीं
बस उलझता
ही चला जाता है

इसीलिये जरूरी
और
बहुत ही जरूरी
हो जाता है

हर लिखे हुऐ को
गवाही के लिये
किसी ना किसी को
कभी ना कभी बताना
मजबूरी हो जाता है

छोटी सी बात को
समझने में एक पूरा
जीवन भी कितना
कम हो जाता है

समय हाथ से
निकलने के
बाद ही
समय ही
जब समझाता है ।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

हो ही जाता है ऐसा भी कभी भी किसी के साथ भी

कभी
अचानक
उल्टी चलती
हुई एक
चलचित्र
की रील

अनायास
ही
पता नहीं
कैसे
बहुत पीछे
की ओर
निकल
पड़ती है

जब
सामने से
आता हुआ
कोई तुम्हें
देख कर
थोड़ा सा
ठिठकता
हुआ
आगे की
ओर चल
पड़ता है

बस
दो कदम
फिर
दोनो की
गर्दने
मुड़ती हैं
और
एक ही साथ
निकलता है
मुँह से
अरे आप हैं

इस बीच
दोनो
देखना
शुरु हो
चुके होते हैंं

एक दूसरे
के चेहरों पर
समय के
कुछ निशान

जैसे ढूँढ
रहे होंं
अपना सा
कुछ
जो अपने को
याद आ जाये

ऐसा कुछ
पता चले
या
खबर मिले

किसी की
कहीं से भी
पर
ऐसा होता
नहीं हैं

सारी बातें
इधर उधर
घूमती हैं
बेवजह

कुछ देर
ना वो कुछ
कह पाता है
ना ये ही
कुछ कह
लेना
चाहता है

हाथ
मिलते हैं
कुछ देर
जैसे
महसूस करना
चाह रहे
होते हैं कुछ

फिर हट
जाते हैं
अपनी अपनी
जगह

और
बाकी सब
ठीक ही
होगा पर
बात खत्म
हो जाती है

दोनो निकल
पड़ते हैं
फिर आगे
अपने
सफर पर
जैसे
कोशिश
कर रहे हों
वापस
उसी जगह
लौटने की
जहाँ पर
से पीछे
मुड़ पड़े
थे दोनो
दो दो
कदम ।