उलूक टाइम्स: सपने
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गुरुवार, 30 नवंबर 2023

रास्ते सब अपनी जगह हैं लोग बस कहीं नहीं जाते हैं


रोज के सफ़ेद पन्ने पुराने कुछ कुरेदने के दिन कभी याद आते हैं
बारिश अब नहीं होती है उस तरह से बादल मगर रोज ही आते हैं

फिसलने लगती है कलम हाथ से शब्द भागना जब शुरू हो जाते हैं
पकड़ने की कोशिश में समय को सपने तितलियां हो कर उड़ जाते हैं

भीड़ हर तरफ होती है रेले आते हैं कई कई आ कर चले जाते हैं
समुन्दर में गिरती चली जाती हैं नदियां बूंदों के हिसाब गड़बड़ाते हैं

फितरत तेरी अपनी है खूबसूरत है किसी की बस कौऐ उड़ाती  हैं
समझदारी संभाल कर रख चालाकी में  धागे चहरे के उधड़ जाते हैं

अपनी कुछ भी  नहीं कहते हैं दूसरे की पतंगें बना कर के उड़ाते हैं
बाजीगर पकडे तो नहीं जाते हैं पर उतरे चेहरे लिखे पर फ़ैल जाते हैं

कबूतर हों या कौऐ हों हवा अपनी ही उड़ाते हैं  
चूहे बड़े शहर के भी हों खोहें अपनी बनाते हैं
‘उलूक’ कोटर से थोड़ा सा झाकने से ही बस तेरे
नजदीकी तेरे अपने कुछ सनकते हैं कुछ कसमसाते हैं |

 

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

बुधवार, 31 अगस्त 2022

साथ में लेकर चलें एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

 


खुद नहीं कर सकते अगर साथ में लेकर चलें
एक कपड़े उतारा हुआ बिजूका

जो चिल्ला सके सामने खड़े उस आदमी पर

जिसको नंगा घोषित
कर ले जाने के सारे पैंतरे उलझ चुके हों
ताश के बावन पत्तों के बीच कहीं किसी जोकर से

बस शराफत चेहरे की पॉलिश कर लेना बहुत जरूरी है ध्यान में रखना

सारे शराफत चमकाए हुऐ
एक साथ एक जमीन पर एक ही समय में

साथ में नजर नहीं आने चाहिये लेकिन 
बिजूका के अगल बगल आगे और पीछे 
हो सके तो ऊपर और नीचे भी

सारी मछलियों की आखें 
तीर पर चिपकी हुई होनी चाहिये
और अर्जुन झुकाए खड़ा हुआ होना जरूरी है अपना सिर
सड़क पर पीटता हुआ अपनी ही छाती

गीता और गीता में चिपके हुऐ
कृष्ण के उपदेशों को
फूल पत्ते और अगरबत्ती के धुऐं की निछावर कर
दिन की शुरुआत करने वाले
सभी बिजूकों का
जिंदा रहना भी उतना ही जरूरी है

जितना
रोज का रोज सुबह शुरु होकर शाम तक
मरते चले जाने वाले शरीफों की दुकान के
शटर और तालों की धूप बत्ती कर
खबर को अखबार के पहले पन्ने में दफनाने वाले खबरची की
मसालेदार हरा धनिया छिड़की हुई खबर का

सठियाये झल्लाये खुद से खार खाये ‘उलूक’ की बकवास
बहुत दिनों तक कब्र में सो नहीं पाती है
निकल ही आती है महीने एक में कभी किसी दिन

केवल इतना बताने को कि जिंदा रहना जरूरी है
सारी सड़ांधों का भी
खुश्बुओं के सपने बेचने वालों के लिये।


आज : दिनाँक 31/08/2022  7:36 सायं तक
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रविवार, 15 नवंबर 2020

शुभ हो दीप पर्व उमंगों के सपने बने रहें भ्रम में ही सही

 


हर्षोल्लास
चकाचौँध रोशनी
पठाकों के शोर
और बहुत सारे
आभासी सत्यों की भीड़

 बीच से
गुजरते हुऐ
कोशिश करना
पंक्तियों से नजरें चुराते हुऐ
लग जाना
बीच के निर्वात को
परिभाषित करने में

कई सारे भ्रमों से झूझते हुऐ
 व्यँग खोजना
उलझन भरी सोच में

और लिख देना कुछ नहीं

इस कुछ नहीं लिखने
और कहीं
अन्दर के किसी कोने में बैठे
थोड़े से अंधेरे को
चकाचौँध से घेर कर
कत्ल कर देने की
सोच की रस्सियाँ बुनना

इंगित करता हुआ
महसूस कराता लगता है
समुद्र मंथन इसी तरह हुआ होगा 
 निकल कर आई होंगी
लक्ष्मी भी शायद

आँखें बंद कर लेने के बाद
दिख रहे प्रकाश को
दीपावली कहा गया होगा

लिख देना
और फिर लिखे के अर्थ को
खुद ही खुद में खोजना
बहुत आसान नहीं

फिर भी
इशारों इशारों में
हर किसी का लिखा
इतना तो बता देता है
लिखा हुआ
सीधे सीधे
सब कुछ बता जायेगा
सोचना ठीक नहीं

अंधेरा है तो प्रकाश है
फिर किसलिये
छोटे से अँधेरे को घेर कर
लाखों दियों से मुठभेड़

यही दीपावली है
यही पर्व है दीपों का

कुछ देर के लिये
अंधेरे से मुँह मोड़ कर बैठ लेने
और खुश हो लेना
कौन सा बुरा है ‘उलूक’

कुछ समझना
कुछ समझाना
बाकी सब
बेमतलब का गाना

फिर भी
बनी रहे लय
कुछ नहीं
और कुछ के
बीच की
जद्दोजहद के साथ

शुभ हो दीप पर्व
उमंगों के सपने बने रहें
भ्रम में ही सही।


चित्र साभार:
https://medium.com/the-mission/a-practical-hack-to-combat-negative-thoughts-in-2-minutes-or-less-cc3d1bddb3af

रविवार, 17 नवंबर 2019

वाकया है घर का है आज का है और अभी का है होना बस उसी के हिसाब का है पूछ्ना नहीं है कि होना क्या है


खुले
दरवाजे पर

लात
मारते
ललकारते

गुस्से
से भरे
बच्चों को
पता है

उनको
जाना कहाँ हैं

फुँफकारते
हुऐ

गाली
देने के बाद

पुलिस
वाले से
मुस्कुराते हुऐ

कुछ
साँस लेने
का सा
इशारा

उनका
अपना सा है

समय
 के साथ
दिशायें
पकड़ते हुऐ

भविष्य
के सिपाही
जानते हैं

अपना भविष्य

ये
नहीं करेंगे

तो
उनके लिये

फिर
बचा क्या है

पढ़ना पढ़ाना
परीक्षा दे लेना

एक
अंकपत्र

गलतियों
से भरा

हाथ में
होने से
होना क्या है

ना खायेंगे
ना खाने देंगे

से ही

ना पढ़ेगे
ना पढ़ने देंगे

प्रस्फुटित
हुआ है

समझा क्या है

पढ़ाने लिखाने
वाले
का
रास्ता भी

किताबों
कापियों से
हटकर

देश
की
बागडोर में

चिपट
लेने के
सपने में
नशा

किसी
नशे से
कम कहाँ है

कश्मीर
जरूरी है

पाकिस्तान
भी
चाहिये

जे एन यू
बनायेंगे

अब
कहना
छोड़ दियों
का
रास्ता भी

अब
बदला बदला
सा है

गफलत
में
जी रहें
कुछ शरीफ

नंगों से
घिरे हुऐ

नंगे
हो जाने के
मनसूबे लिये हुऐ

सोच रहे है

जब
कुछ
पहना ही
नहीं है
तो

गिरोह में
शामिल
हो
लेने के लिये

फिर
खोलना
क्या है

 ‘उलूक’

‘पाश’
के
सपनो
का
मर जाने
को
मर जाना
कहने से
भी

सपने

जरा भी
नहीं
देखने वालों
का
होना क्या है ?


रविवार, 1 सितंबर 2019

कभी खरीदने आना होता है कभी बेचने जाना होता है आना जाना बना कर ही संतुलन बनाना होता है


कुछ
शब्दों को
इधर

कुछ
शब्दों को
उधर

ही तो
लगाना होता है

बकवास
करने में
कौन सा
किसी को

व्याकरण
साथ में
समझाना
होता है

कौमा
हलन्त चार विराम
अशुद्धि
चंद्र बिंदू
सीख लेना
बोनस
बनाना होता है

उनके लिये
जिन्हें
एक ही बात से
दो का मतलब
निकलवाना होता है

रोज का रोज
उगल दिया जाना

जमाखोरों
की
जमात में जाने से
खुद को
बचाना होता है

केवल
संडे मार्केट में
दुकान
लगाने वाले के लिये

एक
बड़ी मुश्किल
माल को
ठिकाने
लगाना होता है

लोकतंत्र में
कुछ भी
बेच लेने वाले
के
बोलबाले
का
दिवाना
सारा जमाना होता है

‘उलूक’
खाली
हो जायेगी
दुकान
कहना छोड़

सपने में
भी
खाली
देख लेने
वाले को

सबसे पहले
अन्दर
जाना होता है ।

चित्र साभार: https://www.ttu.ee

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वागत: चलें बिना कुछ गिने बुने सपने एक बार फिर से उसी तरह


पिछली बार
वो गया था 
इसी तरह से 

जब सुनी थी
उसने इसके आने की खबर

ये आया था
नये सपने अपने ले कर अपने साथ ही

वो गया
अपने पुराने हो चुके
सपनों को साथ ले कर

इसके सपने इसके साथ रहे
रहते ही हैं

किसे फुर्सत है
अपने सपनों को छोड़
सोचने की
किसी और के सपनों की

अब ये जा रहा है
किसी तीसरे के आने के समाचार के साथ

सपने इसके भी हैं
इसके ही साथ में हैं
उतने ही हैं जितने वो ले कर आया था

कोई किसी को
कहाँ सौंप कर जाता है
अपने सपने
खुद ही देखने खुद ही सींचने
खुद ही उकेरने खुद ही समेटने पड़ते हैं
खुद के सपने

कोई नहीं
खोलना चाहता है
अपने सपनों के पिटारों को 
दूसरे के सामने

कभी डर से
सपनों के सपनों में
मिल कर खो जाने के

कभी डर से
सपनों के पराये हो जाने के

कभी डर से
सपनों के सच हो खुले आम 
दिन दोपहर मैदान दर मैदान
बहक जाने के

इसी उधेड़बुन में
सपने

कुछ भटकते
चेहरे के पीछे 
निकल कर झाँकते हुऐ
सपनों की ओट से

बयाँ करते 
सपनों के आगे पीछे के सपनों की
परत दर परत

पीछे के सपने
खींचते झिंझोड़ते सपनों की भीड़ के

बहुत अकेले
अकेले पड़े सपने

सपनों की
इसी भगदड़ में
समेटना सपनों को किसी जाते हुऐ का

गिनते हुऐ अंतिम क्षणों को

किसी का
समेरना 
उसी समय सपनों को

इंतजार में
शुरु करने की
अपने सपनों के कारवाँ अपने साथ ही

बस वहीं तक
जहाँ से लौटना होता है हर किसी को

एक ही तरीके से
अपने सपनों को लेकर वापिस अपने साथ ही

कहाँ के लिये
क्यों किस लिये
किसी को नहीं सोचना होता है

सोचने सोचने तक
भोर हो जाती है हमेशा
लग जाती हैं कतारें
सभी की इसके साथ ही

अपने अपने सपने
अपने अपने साथ लिये
समेटने समेरने बिछाने ओढ़ने लपेटने के साथ
लौटाने के लिये भी

नियति यही है
आईये फिर से शुरु करते हैं

आगे बढ़ते हैं
अपने अपने सपने
अपने अपने साथ लिये
कुछ दिनों के लिये ही सही

बिना सोचे लौट जाने की बातों को

शुभ हो मंगलमय हो
जो भी जहाँ भी हो जैसा भी हो

सभी के लिये
सब मिल कर बस दुआ
और
दुआ करते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

बुधवार, 15 जुलाई 2015

चलो ऊपर वाले से पेट के बाहर चिपकी कुछ खाली जेबें भी अलग से माँगते हैं

कुछ भी नहीं
खाया जाता है
थोड़े से में पेट
ऊपर कहीं
गले गले तक
भर जाता है
महीने भर
का अनाज
थैलों में नहीं
बोरियों में
भरा आता है
खर्च थोड़ा
सा होता है
ज्यादा बचा
घर पर ही
रह जाता है
एक भरा
हुआ पेट
मगर भर ही
नहीं पाता है
एक नहीं बहुत
सारे भरे पेट
नजर आते हैं
आदतें मगर
नहीं छोड़ती
हैं पीछा
खाना खाने
के बाद भी
दोनो हाथों की
मुट्ठियों में भी
भर भर कर
उठाते हैं
बातों में यही
सब भरे
हुऐ पेट
पेट में भरे
रसों से
सरोबार हो
कर बातों
को गीला
और रसीला
बनाते हैं
नया सुनने
वाले होते हैं
हर साल ही
नये आते हैं
गोपाल के
भजनों को सुन
कल्पनाओं में
खो जाते हैं
सुंदर सपने
देखतें हैं
बात करने
वालों में
उनको कृष्ण
और राम
नजर आते हैं
पुराने मगर
सब जानते हैं
इन सब भरे पेटों
की बातों में भरे
रसीले जहर को
पहचानते हैं
ऊपर वाले से
पूछते भी हैं हमेशा
बनाते समय ऐसे
भरे पेटों के
पेटों के
अगल बगल
दो चार जेबें
बाहर से उनके
कारीगर लोग
अलग से क्यों
नहीं टांगते हैं ।

 चित्र साभार: theinsidepress.com

रविवार, 9 नवंबर 2014

हैप्पी बर्थ डे उत्तराखंड

अब एक
चौदह बरस
के बच्चे से
क्यों उम्मींदे
अभी से
लगा रहे हो

सपने बुनने
के लिये
कोई सीकें
सलाई की
जरूरत तो
होती नहीं है
इफरात से
बिना रात हुऐ
बिना नींद आये
सपने पकौड़ियों
की तरह पकाये
जा रहे हो

कुछ बालक की
भी सोचो जरा
चौदह साल में
कितने बार
पिताजी बदलते
जा रहे हो
बढ़ने क्यों
नहीं देते हो
पढ़ने क्यों
नहीं देते हो
एक नन्हें बालक
को आदमी
क्यों नहीं कुछ
जिम्मेदार जैसा
होने देते हो

सारे बंजर
पहाड़ों के
खुरदुरे सपने
उसके लिये
अभी से
बिछा रहे हो
माना कि
चौदहवाँ
जन्मदिन है
मनाना
भी चाहिये
कुछ केक सेक
काट कर
जनता में
क्यों नहीं
बटवा रहे हो

अच्छे दिन
आयेंगे के
सपने देख
दिये तुमने
जन्म लेते
ही बच्चे के
इस बात का
कसूरवार
कितनो को
ठहरा रहे हो

घर छोड़
छा‌‌ड़ कर
पलायन करने
के लिये किसी
ने नहीं
कहा तुमसे
अपनी मर्जी से
भाग रहे हो
नाम बेचारी
सरकारों का
लगा रहे हो

समुद्र मंथन में
निकली थी सुरा
किस जमाने में
पहुँचा भी दी
जा रही है
दुर्गम से दुर्गम
स्थानों में
आभार जताने
के बजाये
सुगम दुर्गम के
बेसुरे गाने
गाये जा रहे हो

अभी अभी तो
पर्दा उठा है
नाटक का
मंचन होने से
पहले ही बिना
देखे सुने
भाग जा
रहे हो

मान लो
एक छोटा
सा राज्य है
आपका
और हमारा
ये भाग्य है
खुश होना
चाहिये
आज के दिन
कम से कम
रोना धोना
छोड़ कर
जय हो
उत्तराखंड
देवों की भूमि
की जय हो
के नारे
हम जैसे
यहाँ बसे
सारे असुरों
के साथ
मिल कर
क्यों नहीं
लगा रहे हो ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com

शुक्रवार, 6 जून 2014

कुछ कहने के लिये बस कुछ कह लेना है

जो होना है
वो तो
होना है
होगा ही
होने देना है

किसी से
कहने से
कुछ होगा
किसे इस पर
कुछ पता
होना है

उनकी यादों
की यादों
को सोने
ही देना है

सपने किसी
के आते भी हों
तो आने देना है

बस कुछ दिनों
की बात और है
रुके रहना है

रोने वाले की
आदत होती है
रोने की उसे
रोने देना है

जिसके हाथों
में होती है
हमेशा खुजली
बस उसी
के हाथ में
हथौड़ा
ला कर
दे देना है

खोदने वालों
को मिल
चुका है
बहुत खोदने
का काम

अब किसी
और को
नहीं देना है

अन्दर की बात
को 
अन्दर
ही रहने देना है

बाहर के तमाशे
करने वालों को
करते रहने का
इशारा देना है

बहुत कुछ
हो रहा है
बहुत कुछ
अभी
होना ही
होना है

‘उलूक’
रोता
कलपता
ही अच्छा
लगता है
हँसने के
दिन आने में
अभी महीना है ।

शनिवार, 17 मई 2014

कुछ भी कह देने वाला कहाँ रुकता है उसे आज भी कुछ कहना है

एक सपने बेचने
की नई दुकान का
उदघाटन होना है
सपने छाँटने के लिये
सपने बनाने वाले को
वहाँ पर जरूरी होना है
आँखे बंद भी होनी होगी
और नींद में भी होना है
दिन में सपने देखने
दिखाने वालों को
अपनी दुकाने अलग
जगह पर जाकर
दूर कहीं लगानी होंगी
खुली आँखों से सपने
देख लेने वालों को
उधर कहीं जा कर
ही बस खड़े होना है
अपने अपने सपने
सब को अपने आप
ही देखने होंग़े
अपने अपनो के सपनों
के लिये किसी से भी
कुछ नहीं कहना है
कई बरसों से सपनों
को देखने दिखाने के
काम में लगे हुऐ
लोगों के पास
अनुभव का प्रमाण
लिखे लिखाये कागज
में ही नहीं होना है
बात ही बात में
सपना बना के
हाथ में रख देने
की कला का प्रदर्शन
भी साथ में होना है
सपने पूरे कर देने
वालों के लिये दूर
कहीं किसी गली में
एक खिलौना है
सपने बनने बनाने
तक उनको छोड़िये
उनकी छाया को भी
सपनों की दुकान के
आस पास कहीं पर
भी नहीं होना है ।

शुक्रवार, 9 मई 2014

सँभाल के रखना है सपनों को मुट्ठी के अंदर फना होने तक

मुट्ठियाँ
बंद रखना
बस
कोशिश करके
कुछ ही दिन
और
बहुत कुछ है
जो
अभी हाथ में है
जिसे कब्जे में
लिया है सभी ने

अपने अपने
सपनों से
अपनी अपनी
सोच और
अपनी औकात के
हिसाब किताब से

कुछ ना कुछ
थोड़ा थोड़ा
गणित
जोड़ घटाना
नहीं आते हुऐ भी

समझ में आ
ही जाता है
अंधा भी
पहचान
लेता है
खुश्बू से
बदलते हुऐ
रंगों को

कान बंद
करने के
बाद भी
आवाजों की
थरथराहट
बता देती है
संगीत मधुर है
या कहीं
तबाही हुई
है भयानक

चैन से सोने
के दिनों में
सपनो को
आजाद कर देना
अच्छी बात नहीं है

सपने
आसानी से
मरते भी नहीं हैं

ताजमहल
पक्का बनेगा
बनना ही
उसकी नियति है

हाथों को
कटना ही है
और
खाली हाथों के
कटने से अच्छा है
बंद मुट्ठियाँ कटें

पूरे नहीं होने हों
कोई बात नहीं
कम से कम
सपने दिखें तो

बंद अंगुलियों के
पोरों के पीछे से
ही सही कहीं

जैसे
दिखता है
सलाखों
के पीछे
एक मृत्यूदंड
पाया हुआ
अपराधी
कारागार में ।

शनिवार, 12 अप्रैल 2014

सपने में ताबूत सिलने वाला सामने वाले की लम्बाई नापने के लिये ही साथ में आता है

शरीर और शक्ल में
हो ही रहा होता है
हमेशा ही अंतर

कभी किसी हीरो
की तरह दिखाई दे
कभी दिखने लगे
अगर एक बंदर

अलग अलग
परिस्थितियों में
अलग अलग सा
अपने को कोई
पाता भी है तो
समझ में आता है

समय के साथ
मगर नजरिया
बदल जाता है

शक्ल और शरीर
की तरह नहीं
अपनी तरह का
कुछ अलग सा
हो जाता है

ऐसा ही कुछ
बहुत बार
कहा जाता है

अपने बारे में सोचो
इस बात को लेकर
तो कुछ भी समझ
में नहीं आता है

माना कि
हर किसी की
आदतों के बारे में
सब कुछ नहीं
कहा जाता है

साथ में ना भी
रहा हो कोई
एक दो बार ही
बस मिला जुला हो
लौट कर कभी
फिर दिख जाता है

बहुत अच्छा लगता है
लगता है बहुत
समझ में आता है
हर कोई इसी का जैसा
क्यों नहीं हो जाता है

और एक रहता है
बरसों साथ में
शक्ल और शरीर को
अपनी बदलते हुऐ भी

लगता है सब कुछ
पता चल जाता है
ज्यादा ध्यान से
नहीं देखा जाता है

अपना होता है
अपने जैसा ही
समझ में आता है

और एक दिन
अचानक चिकनाई से
फिसलता हुआ कोई
इसी तरह के एक
घड़े से टकराते हुऐ
जब अपने को बचाता है

तो समझ में आता है
अरे जिसे कई बरसों से
समझा हुआ ही
समझा जाता है

वही क्यों कई बार
किसी खड़ी फसल
या खंबे के पास से
गुजरता हुआ अपनी
एक टाँग उठाता है

‘उलूक’ तेरा कुछ भी
नहीं हो सकता है
अब भी मान जा

बदलता है या नहीं
ये तो पता नहीं
पर जो होता है
कभी ना कभी

सच्चाई को
छुपाते छुपाते भी
अपने नहीं
किसी और के
आईने में छोड़ कर
चला आता है ।

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

जब तक सोच में कुछ आये इधर उधर हो जाता है

अपने सपने का
सनीमा बना कर
बाजार में
खुले आम
पोस्टर लगा
देने वाले के
बस में नहीं
होती हैं
उँचाईयाँ  

टूटी हुई सीढ़ियों
से गुजरना
और नीचे
देख देख कर
उनसे उलझने
की उसकी मजबूरी
उसकी आदत में
शामिल होती है
झुंड में शामिल
नहीं होने का
फायदा उठाते हैं
कुछ काले सफेद
सपनों को बोकर
रँगीन सपने बनाकर
दिखाने वाले लोग
जिनके लिये बहुत
जरूरी होती हैं
खाइयाँ और कुछ
टूटी हुई सीढ़ियाँ भी
क्योंकि उन सब को
पीछे देखने की
आदत नहीं होती है
और ना ही सीढ़ियों
की टूट फूट ही
रोक पाती है
उनके कदमों को
वो देखते हैं बस
पैर रखने भर
की जगह और
चढ़ते हुऐ झुंड
का एक कंधा
जिनके हाथ
और पैर देखने
में लगी हुई
आँखों को नजर
ही नहीं आ
पाती हैं उनकी
आँखे और
इशारे इशारे में
काम हो जाता है
क्योंकि इशारे
का अधिकार
सूचना के अधिकार
में नहीं आता है
और झुँड में से
कोई एक ऊपर
चला जाता है
बीच में रह जाती है
टूटी हुई सीढ़ियाँ
जिसके आस पास
  

खिसियाया हुआ
सा “उलूक”
एक कागज और
एक कलम लिया हुआ
अपना सिर खुजाता
हुआ नजर आता है । 

बुधवार, 12 फ़रवरी 2014

सपने लिखने के लिये नहीं देखने के लिये रखना

इतना सब
उट पटांग
लिखने से
अच्छा ये नहीं है
कि कुछ सपने
ही देख लो
कुछ सपने
ही लिख लो
क्या सपने भी
नहीं आते हैं अब
किसे क्या
बताया जाये
किसे क्या
समझाया जाये
सपने किसे
नहीं आते हैं
कहने को सभी
कोशिश करते हैं
बड़े सपने
देखने के लिये
उकसाते भी हैं
पर सपने भी तो
वही सब कुछ
दिखाते हैं जैसा
आस पास अपने
सब देख सुन कर
रोज सो जाते हैं
फिर भी कुछ
सपने अपने
होते ही हैं
किसी से भी
साझा नहीं
किये जाते हैं
रोज बनते हैं
एक नहीं कई
हो जाते हैं
जमा होते रहते हैं
जैसे बैंक के खाते
में चले जाते हैं
कुछ लोग याद
नहीं रखते हैं
कुछ बार बार
देखना चाहते हैं
जैसे एक पुराने
रद्दी अखबार के
ढेर में से कभी
पुराना एक
अखबार निकाल कर
एक पुरानी खबर
ढूँढना शुरु हो जाते हैं
मनमाफिक मिल
गया होता है
चले आते हैं
नहीं मिलता है अगर
अखबार के ढेर से
फिर उलझ जाते हैं
अच्छे होते हैं सपने
ढेर सारे सपनों के
ढेर से उलझना
एक निकालकर उसे
उलटना पलटना
फिर जहाँ से
उठाया गया हो
वहीं उसी जगह
एक तह किये गये
कपड़े की तरह
रख देना
फिर कभी किसी दिन
निकाल कर देख
लेने के लिये
बाकी करने को
बहुत कुछ होता है
करते चले जाना
कुछ इसका गिराना
कुछ उसका लुढ़काना
बस इस सब में
सपने कभी मत
लिख देना
गलती से भी
ऐसी बेवकूफी
भूल कर भी कभी
मत कर जाना
लिखना रोज
यहाँ भी आना | 

शनिवार, 18 जनवरी 2014

बहुत भला होता है भले के लिये ही भला कर रहा होता है

ऐसा नहीं है कि भला 
करने वाले नहीं है
बहुत हैं बहुतों का
भला करते हैं
अब इसमें क्या बुराई है
कि ऐसा करने से
उनका भी कुछ कुछ
थोड़ा थोड़ा सा
भला हो जाता हो
सपने बेचना भी
ऐसे ही लोगों को
ही आता है
कभी सपनों के लिये
कहीं कुछ लिया
दिया गया हो
किसी कागज के
पन्ने में लिखा हुआ
नहीं पाया जाता है
 

बहुत भले लोग होते हैं
किसी के लिये
खुद बा खुद
सोच तक देते हैं
समझा भी देते हैं
जब ऐक सोच ही
रहा हो किसी एक
चीज को बनाने में
तो दूसरे को क्या
जरूरत है अपने
दिमाग को उसी
के लिये भिड़ाने में
आकाश होता है
उनका बहुत ही बड़ा
कोई रोक नहीं होती है
किसी के लिये भी
उनके आकाश में
उड़ान भरने की
बस एक ही बात का
रखना पड़ता है ध्यान
गुस्ताखी नहीं
होनी चाहिये कभी भी
उनके आकाश की
सीमा पार कर जाने की
सिखा भी दिया जाता है
एक आकाश होते हुऐ
एक दूसरा आकाश
नहीं बनाया जाता है
जब एक पहले से
काम में लाया
जा रहा होता है
उड़ान भरने के लिये
अपना अपना बना के
कोई अकेले अकेले जो
क्या उड़ा जाता है
भले लोगों का
आकाश भी होता है
उड़ानेंं भी होती हैं
सोच भी होती है
सपने भी होते हैं
भले लोग ही होते हैं
जो सब कुछ खुद
कर रहे होते हैं
और जिसके लिये
ये सब कुछ
हो रहा होता है
वो कुछ भी नहीं
कर रहा होता है
उसका तो बस
और बस भला
और भला ही
हो रहा होता है ।

सोमवार, 25 नवंबर 2013

मत बताना नहीं मानेंगे अगर कहेगा ये सब तू ही कह रहा था

पिछले
दो दिन 
से यहाँ दिखाई
नही दे रहा था

पता नहीं
कहाँ 
जा कर
किस को 
गोली
दे रहा था


खण्डहर में
उजाला 
नहीं
हो रहा था


दिये में बाती

दिख रही थी
तेल पता नहीं
कौन आ कर
पी रहा था

आसमान
नापने 
का
ठेका कहीं

हो रहा था

खबर सच है

या झूठ मूठ  
पता करने
के लिये

उछल उछल
कर 
कुँऐ की
मुंडेर 
छू रहा था

बाहर के उजाले

का क्या कहने
हर काला भी
चमकता हुआ
सफेद हो रहा था

किसी के आँखों में

सो रहे थे सपने
कोई सपने सस्ते 
में बेच कर भी
अमीर हो रहा था

सोच क्यों नहीं

लेता पहले से 
कुछ ‘उलूक
अपने कोटर से
बाहर निकलने
से पहले कभी

अपने और
अपनो के
अंधेरों में
तैरने के आदी
मंजूर नहीं करेंगे

सुबह होती
दिख रही थी कहीं
बहुत नजदीक से

और
वाकई में तू
देख रहा था

और
तुझे सब कुछ
साफ और
बहुत साफ
दिन के
उजाले सा
दिखाई भी
दे रहा था ।

मंगलवार, 14 मई 2013

कुछ तो सीख बेचना सपने ही सही

उसे देखते ही
मुझे कुछ हो
ही जाता है
अपनी करतूतों
का बिम्ब बस
सामने से ही
नजर आता है
सपने बेचने
में कितना
माहिर हो
चुका है
मेरा कुनबा
जैसे खुले
अखबार की
मुख्य खबर
कोई पढ़
कर सामने
से सुनाता है
कभी किसी
जमाने में
नयी पीढी़ के
सपनों को
आलम्ब देने
वाले लोग
आज अपने
सपनों को
किस शातिराना
अंदाज में
सोने से
मढ़ते चले
जा रहे हैं
इसके सपने
उसके सपने
का एक
अपने अपने
लिये ही बस
आधार बना
रहे हैं
सपने जिसे
देखने हैं
अभी कुछ
वो बस
कुछ सपने
अपने अपने
खरीदते ही
जा रहे हैं
सच हो रहे
सपने भी
पर उसके
और इसके
जो बेच
रहे हैं
खरीदने वाले
बस खरीद
रहे हैं
उन्हे भी
शायद पता
हो गया है
कि वो
सपने सच
होने नहीं
जा रहे हैं
वो तो बस
इस बहाने
हमसे सपने
बेचने की
कला में
पारंगत होना
चाह रहे हैं ।

शनिवार, 11 मई 2013

फिर देख फिर समझ लोकतंत्र



रोज एक
लोकतंत्र समझ में आता है
तू फिर भी लोकतंत्र समझना चाहता है 

क्यों तू
इतना बेशरम हो जाता है 
बहुमत को
समझने में सारी जिंदगी यूँ ही गंवाता है

बहुमत
इस देश की सरकार है
क्या तेरे भेजे मेंये नहीं घुस पाता है 

देखता नहीं
सबसे ज्यादा 
मूल्यों की बात उठाने वाला ही तो 
मौका आने पर
अपना बहुमत अखबार में छपवाता है 
मौसम मौसम दिल्ली सरकार 
और उसके लोगों को
कोसने वालों की भीड़ का झंडा उठाता है 

अपनी गली में
उसी सरकार के झंडे के परदे का
घूँघट बनाने से बाज नहीं आता है 

मेरे देश की हर गली कूँचे में 
एक ऎसा शख्स जरूर पाया जाता है 
जो अपना उल्लू
सीधा करने के लिये
लोकतंत्र की धोती को
सफेद से गेरुआँ रंगवाता है 
तिरंगे के रंगो की टोपियाँ बेचता हुआ 
कई बार पकड़ा जाता है

ऎसा ही शख्स
कामयाबी की बुलंदी छूने की मुहिम में
इस समाज के बहुमत से
दोनो हाथों में उठाया जाता है

और एक तू बेशरम है
सब कुछ देखते सुनते हुऎ 
अभी तक दलाली के पाठ को नहीं सीख पाता है
तेरे सामने सामने कोई तेरा घर नीलाम कर ले जाता है

'उलूक'
जब तू अपना घर ही नहीं बेच पाता है 
तो कैसे तू
पूरे देश को नीलाम करने की तमन्ना के
सपने पाल कर 
अपने को भरमाता है । 

चित्र साभार: https://www.pravakta.com/what-the-poor-in-democracy/

शुक्रवार, 17 अगस्त 2012

ब्लाग है या बाघ है

सपने भी
देखिये ना
कितने अजब
गजब सी चीजें
दिखाते हैं
जो कहीं
नहीं होता
ऎसी अजीब
चीजें पता नहीं
कहाँ कहाँ से
उठा कर लाते हैं
कल रात का
सपना कुछ
कुछ रहा है याद
अब किसी को
कैसे बतायेंं ये
अजीब सी बात
एक शहर जैसा
सपने में कहीं
नजर आ रहा था
घुसते ही
'ब्लाग नगर' का
बडा़ सा बोर्ड
दिखा रहा था
अंदर घुसे तो
जलसे जलूस
इधर उधर
जा रहे थे
ब्लाग काँग्रेस
ब्लाग सपा
जैसे झंडे
लहरा रहे थे
कुछ ब्लागर
कम्यूनिस्ट हैं
करके भी
समझा रहे थे
खेल का मैदान
भी दिखा जहाँ
ब्लाग ब्लाग का
खेल एक खेला
जा रहा था
टिप्पणियों का
होता है स्कोर
उस पर होती है
जीत और हार
ऎसा स्कोरबोर्ड
बता रहा था
हंसी आ रही थी
सुन सुन कर
जब सुना एक
ब्लागर ब्लाग
फिक्सिंग
करवा रहा था
टिप्पणियाँ किसी
ब्लाग की किसी
और को दे
आ रहा था
उसकी रिपोर्ट
करने दूसरा
ब्लागर ब्लाग थाने
में जा रहा था
ब्लाग पुलिस
को लाकर
घटनाक्रम की
एफ आई आर
की पोस्ट की
कापी बना
रहा था
आगे इसके
क्या हुआ
पता ही नहीं
चल पा रहा था
घड़ी का अलार्म
सुबह हो गयी
का बहुत शोर
मचा रहा था
सामने खड़ी
बिस्तरे के
श्रीमती मेरी
पूछ रही थी
मुझसे कि
तू सपने में
बाघ बाघ
जैसा क्यों
चिल्ला रहा था ।

रविवार, 8 अप्रैल 2012

मदारी और बंदर

हर
मदारी
अपने बंदर
नचा रहा है

बंदर बनूं
या मदारी

समझ में
ही नहीं
आ रहा है

हर कोई
ज्यादा से
ज्यादा बंदर
चाह रहा है

ज्यादा
बंदर वाला

बड़ा
हैड मदारी
कहलाया
जा रहा है

बंदर
बना
हुवा भी

बहुत खुश
नजर आ
रहा है

मदारी
मरेगा तो

डमरू
मेरे ही हाथ
में तो पड़ेगा
के सपने
सजा रहा है

बंदर
बना कर
नचाना

और
मदारी
हो जाना

अब
सरकारी
प्रोग्राम होता
जा रहा है


सुनाई दे
रहा है

जल्दी ही
बीस सूत्रीय
कार्यक्रम में
भी शामिल
किया जा
रहा है

काश !

मुझे भी
एक बंदर
मिल जाता

या फिर  

कोई
मदारी
ही मुझको
नचा ले जाता

पर
कोई भी
मेरे को 
जरा सा भी
मुंह नहीं
लगा रहा है

क्या
आपकी
समझ में कुछ
आ रहा है?

चित्र साभार: 1080.plus