बन्द दिमाग की झिर्री से दिखी थोड़ी सी रोशनी
किसलिये घबराते
महीने बन्द फाईल-ए-उलूक फिर पड़ी भी अगर खोदनी
सबको जा जा कर बताते
कतरा कतरा कतरा कतरा
बामुश्किल खींच तान कर कुछ बने चाहे बने सात चाहे बने सतरा
क्यों खिसियाते
कतर दी गयी सोच में बस डर बचा
कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी हर शय अब समझ लिया खतरा
एक चेहरा ओढ़ कर मुस्कुराते
कुछ परायों की दुआएं लपेटी कुछ अपनों की बद्दुआएं समेटी
अरे इस हाथ ले उस हाथ दे आते
कर्मों के हिसाब किताब किसे पता ऊपर वाला ही बनायेगा कमेटी
भाई मंदिर चले जाते घंटी बजाते
दवात स्याही कलम कागज बही खाते दिन हो गये अब
सपनों में भी नहीं आते
आभास भी आभासी हो चले कुछ लिखे का मतलब लोग
कुछ और ही लगाते
कुछ बने इसकी तरह कुछ उसकी तरह का कुछ
नहीं तो बीच का ही सही अलग सा कुछ
बता ले जाते
फिर आना अगले महीने की अंतिम तारीख को ‘उलूक’
फाईलों के दिन हैं करोड़ों एक ही से
कमाये हैं जाते
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