उलूक टाइम्स: जून 2020

गुरुवार, 18 जून 2020

अन्दाज बकवास-ए-उलूक का कुछ बदलना चाहता है


वो जो सच में लिखना होता है 
खुद ही सहम कर पीछे चला जाता है 
कैसे लाये खयाल में किसी को कोई 
कोई और सामने से आ जाता है 
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उस मदारी के लिये बहुत कुछ 
लिख रहें है लोग अपनी समझ से 
कुछ भी लिखे को उसपर लिखा समझ कर 
जमूरा उसका अपनी राय दे जाता है
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उसे भी कहाँ आती है शर्म किसी से 
हमाम में ही सबके साथ खिलखिलाता है 
लड़ता नहीं है किसी से कभी भी 
एक भूख से मरा बच्चा ला कर के दिखाता है
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शेर और शायरी अदब के लोगों के फसाने होते हैं 
सुना है यारों से 
किसी की आदत में बस 
बकवास में बातों को उलझाना ही रह जाता है
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मुद्दत से इंतजार रहता है 
शायद बदल जायेगी फितरत हौले हौले किसी की 
तमन्ना के साथ हौले हौले उसी फितरत को अपनी
धार दिये जाता है
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कुछ नहीं बदलेगा 
कहना ही ठीक नहीं है जमाने से इस समय
जमाना खुद अपने हिसाब से 
अब चलना ही कहाँ चाहता है
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किसी के चेहरे के समय के लिखे निशानों पर 
नजर रखता है 
अपने किये सारे खून जनहित के सवालों से 
दबाना चाहता है
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किसी के लिखने और किसी को पढ़ने के बीच में 
बहुत कुछ किसी का नहीं है 
कोई लिखता चलता है मीलों 
किसी को ठहर कर पढ़ने में मजा आता है
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किसी के लिखे पर कुछ कहना चाहे कोई 
सारे खाली छपने वालों को छोड़ कर 
किसलिये डरता है कोई इतना 
लिखे पर कह दिये को 
घर ले जा कर पढ़ना चाहता है
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कुछ भी लिख देने की आदत रोज रोज 
कभी भी ठीक नहीं होती है ‘उलूक’ 
किसलिये अपना लिख लिखा कर 
कहीं और जा कर 
फिर से दिखना चाहता है।
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चित्र साभार: 

शुक्रवार, 12 जून 2020

गुलामी सुनी सुनाई बात है लगभग सत्तर साल की महसूस कर बेवकूफ स्वतंत्र तो तू अभी कुछ साल पहले ही से तो हो रहा था




देखा
नहीं था
बस
कुछ सुना था

कुछ
किताबों के
सफेद पन्नों
पर

काले से
किसी ने कुछ
आढ़ा तिरछा सा
गड़ा था

उसमें से थोड़ा
मतलब का कुछ कुछ
पढ़ा था

बहुत कुछ
यूँ ही
पन्नों के साथ चिपका कर
बस
पलट 
चला था 

पल्ले ही नहीं
 पड़ा था

ना गुलाम
देखे थे
ना गुलामी
महसूस की थी
कहीं कोई
बंदिश नहीं थी

सब कुछ
आकाश था
चाँद तारों
और
चमकदार सूरज से
लबालब
भरा था

ऐसा
भी नहीं था
कहीं कूड़ा नहीं था

जैविक था
अजैविक भी था
सोच में भी
अलग से रखा
कूड़ादान
भी वहीं था

वैसा ही जैसे
 आज का
अभी का हो
रखा चमका हुआ
नया था

खुल भी रहा था
बन्द
ढक्कन के साथ
हो
रहा था

एक था गाँधी
कर गया था
गुड़ का गोबर
तब कभी

अभी अभी
कहीं कोई कह
रहा था

गाय बकरी भैंस
के दिन
फिर रहे थे
अब
कहीं जाकर

गोबर का
बस और बस
सब गुड़
हो रहा था

लड़का 
लिये छाता  
एक छत से कूदता
दूसरी छत
चाकलेट फेंकता

धूप से बचाता 
नीचे कहीं
राह चलती

एक लड़की

सामाजिक
दूरी बना
खुश
हो रहा था

समय
घड़ी की टिक टिक
के साथ

अन्दर
कहीं घर के
तालाबन्द हो कर
जार जार
खुशी के आँसू
दो चार बस रोज

 दिखाने का
कुछ रो
रहा था

महामारी
दौड़ा रही थी
मीलों
आदमी नंगे पाँव
सड़क पर

नेता
घर बैठ
चुनावी रैलियाँ
बन्द सारे
दिमागों में
बो रहा था

‘उलूक’
गुलामी
सुनी सुनाई बात है
लगभग
सत्तर साल की

महसूस कर
बेवकूफ

स्वतंत्र तो
तू अभी
कुछ साल
पहले ही से
हो रहा था।

चित्र साभार: www.123rf.com