उलूक टाइम्स: जून 2017

शुक्रवार, 30 जून 2017

बुरा हैड अच्छा टेल अच्छा हैड बुरा टेल अपने अपने सिक्कों के अपने अपने खेल

           
              चिट्ठाकार दिवस की शुभकामनाएं ।


आधा
पूरा 
हो चुके 


साल
के 
अंतिम दिन 

यानि

ठीक 
बीच में 

ना इधर 
ना उधर 

सन्तुलन 
बनाते हुऐ 

कोशिश 
जारी है 

बात
को 
खींच तान 
कर

लम्बा 
कर ले 
जाने
की 

हमेशा 
की
तरह 

आदतन 

मानकर

अच्छी
और 
संतुलित सोच 
के
लोगों को 

छेड़ने
के लिये 
बहुत जरूरी है 

थोड़ी सी 
हिम्मत कर 

फैला देना 
उस
सोच को 

जिसपर 

निकल
कर 
आ जायें 

उन बातों 
के
पर 

जिनका 
असलियत 
से

कभी 
भी कोई 
दूर दूर 
तक
का 
नाता रिश्ता 
नहीं हो 

बस

सोच 
उड़ती हुई 
दिखे 

और 
लोग दिखें 

दूर 
आसमान 
में कहीं 

अपनी
नजरें 
गढ़ाये हुऐ 

अच्छी
उड़ती हुई
इसी 
चीज पर 

बंद
मुखौटों 
के
पीछे से 

गरदन तक 
भरी

सही 
सोच को 

सामने लाने 
के
लिये ही

बहुत
जरूरी है 

गलत
सोच के 

मुद्दे

सामने 
ले कर
आना 

डुगडुगी
बजाना 

बेशर्मी के साथ 

शरम
का 
लिहाज 
करने वाले 

कभी कभी 

बमुश्किल 
निकल कर 
आते हैं
खुले में

उलूक’ 

सौ सुनारी 
गलत बातों
पर 

अपनी अच्छी 
सोच
की 

लुहारी
चोट 
मारने
के
लिये।

मंगलवार, 27 जून 2017

पुराना लिखा मिटाने के लिये नया लिखा दिखाना जरूरी होता है

लगातार
कई बरसों तक
सोये हुऐ पन्नों पर
नींद लिखते रहने से
 शब्दों में उकेरे हुऐ
सपने उभर कर
नहीं आ जाते हैं

ना नींद
लिखी जाती है
ना पन्ने उठ
पाते हैं नींद से

खुली आँख से
आँखें फाड़ कर
देखते देखते
आदत पढ़ जाती है
नहीं देखने की
वो सब
जो बहुत
साफ साफ
दिखाई देता है

खेल के नियम
खेल से ज्यादा
महत्वपूर्ण होते हैं

नदी के किनारे से
चलते समय के
आभास अलग होते हैं

बीच धारा में पहुँच कर
अन्दाज हो जाता है

चप्पू नदी के
हिसाब से चलाने से
नावें डूब जाती हैं

बात रखनी
पड़ती है
सहयात्रियों की

और
सोच लेना होता है
नदी सड़क है
नाव बैलगाड़ी 
है 
और
यही जीवन है

किताबों में
लिखी इबारतें
जब नजरों से
छुपाना शुरु
कर दें उसके
अर्थों को

समझ लेना
जरूरी हो
जाता है

मोक्ष पाने
के रास्ते का
द्वार कहीं
आसपास है

रोज लिखने
की आदत
सबसे
अच्छी होती है

कोई ज्यादा
ध्यान नहीं
देता है
मानकर कि
लिखता है
रहने दिया जाये

कभी कभी
लिखने से
मील के पत्थर
जैसे गड़ जाते हैं

सफेद पन्ने
काली लकीरें
पोते हुऐ जैसे
उनींदे से

ना खुद
सो पाते हैं
ना सोने देते हैं

‘उलूक’
बड़बड़ाते
रहना अच्छा है

बीच बीच में
चुप हो जाने से
मतलब समझ में
आने लगता है
कहे गये का
होशियार लोगों को

पन्नो को नींद
आनी जरूरी है
लिखे हुऐ को भी
और लिखने वाले
का सो जाना
सोने में सुहागा होता है ।

चित्र साभार: Science ABC

गुरुवार, 22 जून 2017

हिन्दी के ठेकेदारों की हिन्दी सबसे अलग होती है ये बहुत ही साफ बात है

हिन्दी में
लिखना
अलग बात है

हिन्दी
लिखना
अलग बात है

हिन्दी
पढ़ लेना
अलग बात है

हिन्दी
समझ लेना
अलग बात है

हिन्दी
भाषा का
अलग प्रश्न
पत्र होता है

साहित्यिक
हिन्दी
अलग बात है

हिन्दी
क्षेत्र की
क्षेत्रीय भाषायें

हिन्दी
पढ़ने
समझने
वाले ही

समझ
सकते हैं
समझा
सकते हैं

ये सबसे
महत्वपूर्ण

समझने
वाली बात है

हिन्दी बोलने
लिखने वाले
हिन्दी में लिख
सकते हैं

किस लिये
हिन्दी में
लिख रहे हैं

हिन्दी
की डिग्री
रखे हुऐ
लोग ही
पूछ सकते हैं

हिन्दी
के भी कभी
अच्छे दिन
आ सकते हैं

कब आयेंगे
ये तो बस
हिन्दी की
डिग्री लिये
हुऐ लोग ही
बता सकते हैं

भूगोल
से पास
किये लोग

कैसे
हिन्दी की
कविता बना
सकते है

कानून
बनना
बहुत जरूरी है

कौन सी
हिन्दी

कौन
कौन लोग
खा सकते हैं
पचा सकते हैं

नेताओं की
हिन्दी अलग
हिन्दी होती है

कानूनी
हिन्दी
समझने की
अलग ही
किताब होती है

‘उलूक’
तू किस लिये
सर फोड़ रहा है
हिन्दी के पीछे

तेरी हिन्दी
समझने वाले
हैं तो सही

कुछ तेरे
अपने ही हैं

कुछ
तेरे ही हैं
आस पास हैं

और
बाकी
बचे कुछ
क्या हुआ

अगर बस
आठ पास हैं

हिन्दी को
बचा सकते हैं
जो लोग

वो
बहुत
खास हैं
खास खास हैं।


चित्र साभार: Pixabay

सोमवार, 19 जून 2017

बे सिर पैर की उड़ाते उड़ाते यूँ ही कुछ उड़ाने का नशा हो जाता है

सबके पास
होती हैं
कहानियाँ
कुछ पूरी
कुछ अधूरी

अपंग
कहानियाँ
दबी होती है
पूरी कहानियोँ
के ढेर के नीचे

कलेजा
बड़ा होना
जरूरी
होता है
हनुमान जी
की तरह
चीर कर
दिखाने
के लिये

आँखे
सबकी
देखती हैं
छाँट छाँट
कर कतरने
कहानियोँ
के ढेर
में अपने
इसके उसके

कुछ
कहानियाँ
पैदा होती हैं
खुद ही
लकुआग्रस्त

नहीं चाहती हैं
शामिल होना
कहानियों
के ढेर में
संकोचवश

इच्छायें
आशायें
रंगीन
नहीं भी सही
काली नहीं
होना चाहती हैं

अच्छा होता है
धो पोछ कर
पेश कर देना
कहानियोँ को
कतरने बिखेरते
हुऐ सारी
इधर उधर

कहानियों की
भीड़ में छुपी
लंगडी
कहानियाँ
दिखायी ही
नहीं देती
के बहाने से
अपंंग
कहानियों से
किनारा करना
आसान हो जाता है

‘उलूक’
कहानियों
के ढेर से
एक लंगड़ी
कहानी
उठा कर
दिखाने वाला
जानता है

कहानियाँ
बेचने वाला
ऐसे हर
समय में

दूसरी तरफ
की गली से
होता हुआ
किसी और
मोहल्ले की ओर
निकल जाता है।

चित्र साभार: https://es.123rf.com

शनिवार, 17 जून 2017

अट्ठाईस लाख का घपला पुराना हो भी अगर घर का ‘उलूक’ किस लिये बिना सबूत नया नया रो रहा होता है

सोच कर
लिखे गये
कुछ को
पढ़ कर
कोई 
कुछ भी
सोच रहा
होता है

लिखे हुऐ पर
लिखने वाला
समय 
नहीं
लिख
 रहा
होता है 


किसे
पता होता है
सोचने से
लिखने तक
पहुँच लेने में
कितना समय
लग रहा होता है

होने का क्या है
हो चुका कुछ
आज ही नहीं
हो रहा होता है

पता हेी
नहीं होता है
बहुत बार
पहले भी
कुछ कुछ
ऐसा ही
कई बार
हो रहा
होता है

सोच कर
लिखना
कई बार
लगता है
सच में बहुत
बुरा हो
रहा होता है

अपने शहर
की बात
अपने शहर
के लोगों से
करना ठीक
नहीं हो
रहा होता है

खून हो
रहा होता है
किसी के
हाथों से
खुले आम
हो रहा
होता है
अपना ही
कोई कर
रहा होता है
कोई कुछ भी
नहीं कहीं
कह रहा
होता है

मरने वाले
शहर में
रोज ही मर
रहे होते हैं
एक दो
बाजार में
अगले दिन
दिखने वाला
उसके जैसे
कोई भी
भूत नहीं
हो रहा
होता है

लिखना बेवफाई
बेवफाओं के देश में

इस से बढ़ कर
बड़ा गुनाह
कोई नहीं
 हो रहा होता है

हिस्सेदारी में
नहीं लगे
लोगों को
कहने का
कोई
हक नहीं
हो रहा होता है

लुटेरे सफेदपोशों
की लूट का हिस्सा
उनके अपनों में
बट रहा होता है

रविश को भी
मिल रही
हैं गालियाँ
लोकतंत्र का
सबूत बन रही हैं
गाँधी भेी
गालियाँ
खा रहा है
इससे अच्छा
कुछ भी कहीं
नहीं हो
रहा होता है

 ‘उलूक’
बहुत ही गंदी
आदत होती है
तेरे जैसे
कहने वालों की
बहुत सा
बहुत अच्छा
रोज ही जब
अखबारों में
रोज ही हो
रहा होता है ।

चित्रसा भार: Credit Union Times

रविवार, 11 जून 2017

सीखिये नस दबाना और पाइये जवाब क्यों दिखता है सफेद कौए का काले कौए के सर के ऊपर हाथ

कृष्ण अर्जुन
उपदेश
और गीता
आज भी हैं
 बस गीता
किताब
नहीं रही
अखबार
हो गई है

बुद्धिजीवियों
के ऊपर बैठा
हुआ कौआ
का का करता है

कौए को
कृष्ण की
नस का
पता रहता है

अखबार
गीता है
और उसपर
छपी खबर
श्लोक होती है

जिनको नहीं
पता है वो
समझ लें
और
हनुमान
चालीसा पढ़ना
छोड़ कर
रोज सुबह का
अखबार बाँच लें

चोरी करें
डाका डालें
कुर्सी में
बैठने के लिये

ऊपर कहीं
दूर से दबाव
डलवालें

वहाँ भी कृष्ण हैं
गीता बाँचते हैं
खबर बहुत
जरूरी होती है
नस दबाने
के बाद ही
सीढ़ी पूरी
होती है

सफेद कौआ
काले कौए की
वकालत करता
नजर आता है

अखबार कौए
के रंग की बात
पता नहीं क्यों
खा जाता है

नस दबाना
अब किसी
और जगह
सिखाया
जाने वाला है

जगह नहीं
मिल रही है
कहीं भेी
अभी तक
ये अलग
बात है
और
छोटा सा
बबाला
आने वाला है

समय बहुत
अच्छा है
बस नस
दबा कर
कुछ भी
कहीं भी
कैसा भी
काम किसी
से भी करवाना

आधार कार्ड
के साथ
हो जाने
वाला है

ठंड रखना
जरूरी है

फर्जी की
तरक्की का
सरकारी आदेश
जल्दी ही
आने वाला है

‘उलूक’
अखबार
सरकार
और फर्जी
मत सोच

आराम से
किसी भी
ईमानदार
की
ईमानदारी
 की
नींव खोद ।

चित्र साभार: Dreamstime.com

शुक्रवार, 9 जून 2017

अपना देखना खुद को अपने ही जैसा दिखाई देता है

बहुत लिखता है
आसपास रहता है
अलग बात है
लिखता हुआ
कहीं भी नहीं
दिखाई देता है

दिखता है तो
बस उसका
लिखा हुआ ही
दिखाई देता है

क्या होता है
अगर उसके
लिखे हुऐ में
कहीं भी
वो सब नहीं
दिखाई देता है

जो तुझे भी
उतना ही
दिखाई देता है
जितना सभी को
दिखाई देता है

आँखे आँखों में
देख कर नहीं
बता सकती
हैं किसी की
उसे क्या
दिखाई देता है

लिखता बहुत
लाजवाब है
लिखने वाला

हर कोई खुल
कर देता है
बधाई पर
बधाई देता है

बहुत
दूर होता है

फिर भी पढ़ने
वाले को जैसे
लिखे लिखाये में
अपने एक नहीं
हजारों आवाज
देता हुआ
सुनाई देता है

बहुत छपता है
पहले पन्ने को
खोलने का जश्न
हर बार होता है

भीड़ जुटती है
चेहरे के पीछे
के चेहरों को
गिना जाता है
बहुत आसानी से

अखबारों के
पन्नों में छपी
तस्वीरों पर
खबर का मौजू
देखते ही
समझ में
आ जाता है

होगा जरूर
कहीं ना कहीं
खबर में चर्चे में

बस चार लाईन
पढ़ते ही पहले
उसका ही नाम
खासो आम जैसा
दिखाई देता है

अपने देखने से
मतलब रखना
चाहिये ‘उलूक’

जरूरी नहीं
होता है हर
किसी को
खून का रंग
लाल ही
दिखाई देता है ।

चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com/categories/seeing-clipart

शुक्रवार, 2 जून 2017

चोर चोर चिल्लाना शगुन होता है फुसफुसाना ठीक नहीं माना जाता है

महीना
बदलने से

किसने
कह दिया

लिखना

बदल
जाता है

एक
महीने में
पढ़ लिख
कर

कहाँ
कुछ नया
सीखा
जाता है

खुशफहमी
हर बार ही

बदलती है
गलतफहमी में

जब भी
एक पुराना
जाता है

और
कोई नया
आता है

कोई तो
बात होती
ही होगी

फर्जियों में

फर्जियों का
पुराना खाता

बिना
आवेदन किये

अपने आप
नया हो
जाता है

कान से
होकर
कान तक
फिसलती
चलती है

फर्जीपने के
हिसाब की
किताबें

फर्जियों
की फर्जी
खबर पर

सीधे सीधे
कुछ
कह देना

बदतमीजी
माना जाता है

बाक्स
आफिस
पर

उछालनी
होती है
फिलम
अगर

बहुत
पुराना
नुस्खा है

और
आज भी
अचूक
माना
जाता है

हीरो के
हाथ में
साफ साफ

मेरा बाप
चोर है

काले
रंग में
सजा के
लिखा
जाता है

‘उलूक’
चिड़ियों की
खबरों में भी

कभी ध्यान
लगाता

थोड़ा
सा भी  अगर

अब तक
समझ चुका
होता
शायद

तोते को
कितना भी
सिखा लो

चोर चोर
चिल्लाना

चोरों के
मोहल्ले में तो

इसी
बात को

कुर्सी में
बैठने का
शगुन माना
जाता है ।

चित्र साभार: Clipart Panda