उलूक टाइम्स: दिसंबर 2015

गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

स्वागत: चलें बिना कुछ गिने बुने सपने एक बार फिर से उसी तरह


पिछली बार
वो गया था 
इसी तरह से 

जब सुनी थी
उसने इसके आने की खबर

ये आया था
नये सपने अपने ले कर अपने साथ ही

वो गया
अपने पुराने हो चुके
सपनों को साथ ले कर

इसके सपने इसके साथ रहे
रहते ही हैं

किसे फुर्सत है
अपने सपनों को छोड़
सोचने की
किसी और के सपनों की

अब ये जा रहा है
किसी तीसरे के आने के समाचार के साथ

सपने इसके भी हैं
इसके ही साथ में हैं
उतने ही हैं जितने वो ले कर आया था

कोई किसी को
कहाँ सौंप कर जाता है
अपने सपने
खुद ही देखने खुद ही सींचने
खुद ही उकेरने खुद ही समेटने पड़ते हैं
खुद के सपने

कोई नहीं
खोलना चाहता है
अपने सपनों के पिटारों को 
दूसरे के सामने

कभी डर से
सपनों के सपनों में
मिल कर खो जाने के

कभी डर से
सपनों के पराये हो जाने के

कभी डर से
सपनों के सच हो खुले आम 
दिन दोपहर मैदान दर मैदान
बहक जाने के

इसी उधेड़बुन में
सपने

कुछ भटकते
चेहरे के पीछे 
निकल कर झाँकते हुऐ
सपनों की ओट से

बयाँ करते 
सपनों के आगे पीछे के सपनों की
परत दर परत

पीछे के सपने
खींचते झिंझोड़ते सपनों की भीड़ के

बहुत अकेले
अकेले पड़े सपने

सपनों की
इसी भगदड़ में
समेटना सपनों को किसी जाते हुऐ का

गिनते हुऐ अंतिम क्षणों को

किसी का
समेरना 
उसी समय सपनों को

इंतजार में
शुरु करने की
अपने सपनों के कारवाँ अपने साथ ही

बस वहीं तक
जहाँ से लौटना होता है हर किसी को

एक ही तरीके से
अपने सपनों को लेकर वापिस अपने साथ ही

कहाँ के लिये
क्यों किस लिये
किसी को नहीं सोचना होता है

सोचने सोचने तक
भोर हो जाती है हमेशा
लग जाती हैं कतारें
सभी की इसके साथ ही

अपने अपने सपने
अपने अपने साथ लिये
समेटने समेरने बिछाने ओढ़ने लपेटने के साथ
लौटाने के लिये भी

नियति यही है
आईये फिर से शुरु करते हैं

आगे बढ़ते हैं
अपने अपने सपने
अपने अपने साथ लिये
कुछ दिनों के लिये ही सही

बिना सोचे लौट जाने की बातों को

शुभ हो मंगलमय हो
जो भी जहाँ भी हो जैसा भी हो

सभी के लिये
सब मिल कर बस दुआ
और
दुआ करते हैं ।

चित्र साभार: www.clipartsheep.com

बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बहकता तो बहुत कुछ है बहुत लोगों का बताते कितने हैं ज्यादा जरूरी है


परेशानी तो है 
आँख नाक दिमाग सब खोल के चलने में 
आजकल के जमाने के हिसाब से 

किस समय
क्या खोलना है कितना खोलना है किस के लिये खोलना है 
अगर नहीं जानता है कोई
तो पागल तो होना ही होना है 

पागल हो जाना भी एक कलाकारी है समय के हिसाब से 
बिना डाक्टर को कुछ भी बताये कुछ भी दिखाये 

बिना दवाई खाये बने रहना पागल सीख लेने के बाद 
फिर कहाँ कुछ किसी के लिये बचता है 

सारा सभी कुछ 
पैंट की नहीं तो कमीज की ही किसी दायीं या बायीं जेब में 
खुद बा खुद जा घुसता है 

घुसता ही नहीं है 
घुसने के बाद भी जरा जरा सा थोड़े थोड़े से समय के बाद 
सिर निकाल निकाल कर सूंघता है 
खुश्बू के मजे लेता है 

पता भी नहीं चलता है 
एक तरह के सारे पागल एक साथ ही
पता नहीं क्यों 
हमेशा एक साथ ही नजर आते हैं 

समय के हिसाब से समय भी बदलता है 
पागल बदल लेते हैं साथ अपना अपना भी 

नजर आते हैं फिर भी 
कोई इधर इसके साथ कोई उसके साथ उधर 

बस एक ऊपर वाला
नोचता है एक गाय की पूँछ या सूँअर की मूँछ कहीं 
गुनगुनाते हुऐ राम नाम सत्य है 
हार्मोनियम और तबले की थाप के साथ 

‘उलूक’ पागल होना नहीं होता है कभी भी 
पागल होना दिखाना होता है दुनियाँ को 
चलाने के लिये बहुत सारे नाटक 

जरूरी है अभी भी समझ ले
कुछ साल बचे हैं पागल हो जाने वालों के लिये अभी भी 

पागल पागल खेलने वालों से 
कुछ तो सीख लिया कर कभी पागल ।

चित्र साभार: dir.coolclips.com

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

आती ठंड के साथ सिकुड़ती सोच ने सिकुड़न को दूर तक फैलाया पता नहीं चल पाया

दिसम्बर
शुरु हो चुका
ठंड के
बढ़ते पैरों ने
शुरु कर दिया
घेरना
अंदर की
थोड़ी बहुत
बची हुई
गरमी को

नरमी भी
जरूर हुआ
करती होगी
साथ में
उसके कभी
निश्चित
तौर पर
सौ आने
उसका
बहक जाना
गायब
हो जाना
भी हुआ
होगा कभी
पता नहीं
चल पाया

जिंदगी की
सिकुड़ती
फटती
चादर
कभी
ऊपर से
खिसक कर
सिर से
उतरती रही

कभी
आँखों के
ऊपर अंधेरा
करते हुऐ
नीचे से
नंगा
करती रही

पता
चला भी
तब भी
कुछ नहीं
हो पाया

जो
समझाया गया
उसके भी
समझ में
आते आते
 ये भी
मालूम नहीं
चल पाया
दिमाग
कब अपनी
जगह को
छोड़ कर
कहीं किसी
और जगह
ठौर ठिकाना
ढूँढने को
निकल गया
फिर लौट
कर भी
नहीं आ पाया

अपनापन
अपनों का
दिखने
में आता
अच्छी
तरह से
जब तक

साफ सुथरे
पानी के
नीचे तली
पर कहीं
पास में
ही बहती
हुई नदी में
तालाब में
बहुत सारी
आटे की
गोलियों
के पीछे
भागती
मछलियों
के झुंड
की तरह

पत्थर
मार कर
पानी में
लहरेंं
उठाता
हुआ
एक बच्चा
बगल से
खिलखिलाता
हुआ
निकल भागा
धुँधलाता हुआ
सब कुछ
उतरता
चढ़ता
पानी जैसा
ही कुछ
हो आया

चिढ़ना चाह
कर भी
चिढ़
नहीं पाया

हमेशा
की तरह
कुछ झल्लाया
कुछ खिसियाया

जिंदगी
ने समझा
कुछ
‘उलूक’ के
उल्लूपन को
कुछ
उल्लूपने ने
जिंदगी के
बनते
बिगड़ते
सूत्रों का राज
जिंदगी को
बेवकूफी
से ही सही
बहुत अच्छी
तरह से
समझाया

जो है सो है
कुछ उसने
उसमें
इसका
जोड़ कर
उसे
ऊपर किया
कुछ इसने
इसमें से
उसका
घटा कर
कुछ
नीचे गिराया

ठंड का
बढ़ना
जारी रहा
बहुत कुछ
सिकुड़ा
सिकुड़ता रहा

सिकुड़ती
सोच ने
सिकुड़ते हुऐ
सब कुछ को
कुछ
भारी शब्दों
से बेशरमी
से दबाया

बहुत
कुछ दिखा
नजर आया
महसूस हुआ

सिकुड़न ने
पूरी फैल कर
हर कोने
हर जर्रे
पर जा
अपना जाल
फैलाया

जरा
सा भी
पता नहीं
चल पाया
अंदाज
आया भी
अंदाज नहीं
भी आ पाया ।

चित्र साभार: www.toonvectors.com

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

क्या कुछ कौन से शब्द चाहिये कुछ या बहुत कुछ व्यक्त करने के लिये कोई है जो चल रहा हो साथ में लेकर शब्दकोष शब्दों को गिनने के लिये

कुछ लिखने
का
दिल किया
कई दिनों
के बाद
कुछ कुछ
होना शुरु
होते होते
कुछ नया
कुछ अलग
लिखने की
सोच कर

पुराने सारे
लिखे लिखाये
को
कुछ देखना
शुरु किया
मतलब
शुरू से
शुरु किया

कुछ गिनना
कुछ जोड़ना
कुछ घटाना
जब
सारे लिखे
लिखाये पर
आरंभ से
अंत तक
सही में

सही सही
कहा जाये तो
शुरु किये गये
कुछ से
आज और
अभी तक
लिखे गये
कुछ कुछ तक

कितना खोजा
बहुत टटोला
बस मिला
बार बार
कई बार
किया गया
शब्द
जो प्रयोग
उनमें
बहुत कुछ
के प्रयोग से
बहुत कुछ
लिखा लिखाया
नहीं मिला

बस मिला
लिखा हुआ
अधिकतर में
ज्यादातर
कहीं कुछ
अखबार
कुछ आदमी
कुछ कुत्ता
कुछ खबर
कहीं कुछ गधा
कुछ गाँधी
कुछ चोर
कुछ उलूक
कुछ देश
कुछ बंदर
कहीं कहीं
कुछ बात
कुछ हवा
कुछ सोच
और
कहीं
थोड़े से
थोड़े
कुछ लोग

समझते
समझते
बस इतना
ही समझ
में आया

शब्दकोश
कितना बड़ा
समेटे हुऐ
खुद अपने में
कितने कितने
समझे बूझे हुऐ
अनगिनत शब्द
पर
कहने के लिये
अपनी
इसकी उसकी
आसपास की
व्यथा कथा
चाहिये
बहुत थोड़े
कुछ कुछ
छोटे छोटे
बेकार के
रोज रोज के
साग सब्जी
रोटी दाल
कपड़े बरतन
जैसे
शब्दों के
बीच में
गिरते लुड़कते
शब्दों को
जोड़ते तोड़ते
मरोड़ते शब्द

कोशिश में
समझाने की
बताने की
कुछ व्यक्त
कुछ अव्यक्त
व्यर्थ में
असमर्थ
समर्थ शब्द ।

चित्र साभार: www.fotosearch.com