उलूक टाइम्स: जून 2019

गुरुवार, 27 जून 2019

खूबसूरत लिखे के ऊपर खूबसूरत चेहरे के नकाब ओढ़ाये जायेंगे फिर ईनाम दिलवाये जायेंगे



सुपुर्द-ए-खाक
हो गये हों

या
जल कर
राख हो गये हों

ढूँढ कर

निकाल कर
लाये जायेंगे 

राख और मिट्टी
हो गये कुछ खास

फिर से

जमीन से खोद कर
धुलवाये जायेंगे

विज्ञान के
सारे ज्ञान का तेल

निकाल कर
पेल ले जायेंगे

पर छोड़ेंगे नहीं

मरे हुऐ भी

फिर से
जिन्दा
करवाये जायेंगे

अभी

बस
भूतों के
पीछे पड़े हैं

पाँच साल
रुकिये
भविष्य तय
कर करा कर

फंदे के
अंदर घसीट
लटका कर
ही जायेंगे

बाकि
काम तो
चलता ही रहता है

सत्तर साल
मिले हैं
आगे के

बराबरी
करने के लिये

अभी तो
सारा वही कुछ

पुराना
खोद कर
धो पोछ कर

नया बना

गा गा
कर लोरियाँ बनायेंगे

चेहरे
सामने के
चेहरे
आईने के

दिखते रहेंगे
देखते चले जायेंगे

चेहरे
असली
पीछे के

कोशिश करेंगे

जितना
हो सके
छुपायेंगे

कविता लिखेंगे

चेहरे बुनेंगे

साम्य
कुछ
जरूर बैठायेंगे

कर्म
किसने
देखने सुनने हैं

कभी
खुल भी गये

तो
थोड़ा सा
होंठों में
मुस्कुरायेंगे

कुछ को
ईनाम देंगे

कुछ को
शाबाशी मिलेगी

थोड़े कुछ
लिखने वाले रोड़े

गालियाँ
भी खायेंगे

गिरोह
शराफत के
दिखेंगे
जगह जगह

कुछ
हरों में
कुछ
पीलों में
गिने जायेंगे

कुछ
अलग होगा
कहीं किसी जगह
की सोच
बनाये रखेंगे

देखेंगे

हर जगह

राष्ट्रीय चरित्र
एक जैसा
‘उलूक’

जापान
के लोगों
के उदाहरण

जरूर
पेश किये जायेंगे

लिखना
जरूरी है
जो
जरूरी है

लोग
खूबसूरत हैं

गजब का
लिखते हैं

नाम है

पर

क्या
 सच के साथ

खड़े हो पायेंगे?

चित्र साभार: www.istockphoto.com

बुधवार, 19 जून 2019

बरसों लकीर पीटना सीखने के लिये लकीरें कदम दर कदम

बरसों
लकीर पीटना

सीखने
के लिये लकीरें

समझने
के लिये लकीरें

कहाँ
से शुरु
और
कहाँ
जा कर खतम

समझ लेना
नहीं समझ पाना

बस लकीरें

समझते हुऐ
शुरु होने और
खतम होने का है

बस वहम और वहम

जो घर में है
जो मोहल्ले में है
जो शहर में है

वही सब
हर जगह में है

और
वही हैं
सब के
रहम-ओ-करम

सबके
अपने अपने
झूठ हैं जो सच हैं

सबके
अपने सच हैं
जरूरत नहीं है
बताने की

सबने
खुद को दी है
खुद की ही कसम

लिखना लिखाना
चाँद सूरज तारे दिखा ना

जरूरत
नहीं होती है
देखने की
दर्द-ए-लकीर पीट चल

मत किया कर रहम

पिटती लकीर है
मजे में फकीर है
सो रहा जमीर है
अमीर अब और अमीर है

कलम
लिखती नहीं है
निकलता है
उसका दम

कविता कहानी
शब्दों की जवानी

कितने
दिलाती है ईनाम

कौन है
भगवान
इधर का
और कौन है
उधर का

इन्तजार कर

भक्ति में
कहीं किसी की
कुछ तो रम

बड़े बड़े
तीरंदाज हैं
दिखाते हैं
समझाते हैं
नबाब हैं

हरकतें
दिख जाती हैं
टिप्पणी में
किस जगह से
किस सोच
के आप हैं

शोर
करते चलिये
नंगों के लिये
हमाम हर जगह हैं
नहीं होते हैं कम

अंधा ‘उलूक’ है
देखता बेवकूफ है
ना जाने क्या क्या
शरम बेशरम

लिखता
जरूर है

कविता
कहानी
लिखने का

नहीं उसे
सहूर है

पता नहीं
कौन पाठक है

पाँच हजार
पाँवों के निशान

रोज दिखते
जरूर 
 हैं 
उनको नमन ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

गुरुवार, 13 जून 2019

अपने अपने मतलब अपनी अपनी खबरें अपना अपना अखबार होता है बाकी बच गया इस सब से वो समाचार होता है

कागज
पर लिखा

जमीन का
कुछ भी

उसके लिये
बेकार होता है

चाँद तारों
पर जमा जमाया

जिसका
कारोबार होता है

दुनियाँ
जहाँ पर
नजर रखता है

बहुत ज्यादा
समझदार होता है

घर की
मोहल्ले की बातें

छोटे लोगों का
रोजगार होता है

बेमतलब
कुछ भी
कह डालिये

तुरंत
पकड़ लेता है
कलाकार होता है

मतलब
की छान

बचा
लौटा देता है

जितने
से उसका
सरोकार होता है

भीड़
के शोर का
फर्क नहीं पड़ता है

चुगलखोर
आदत से
लाचार होता है

दिख
नहीं रहा है

कुछ कह
नहीं रहा है

का मतलब

सुधर जाने
का संकेत
नहीं होता है

ऊपर नीचे
होता हुआ
बाजार होता है

गिरोह
यूँ ही नहीं
बनता है
एक जैसों का

चोर
का साथी
गिरहकट जैसी

पुरानी
कहावत के लिये

पुराना सरदार
जिम्मेदार होता है

तकनीक
का जमाना है

हाथ
साफ होते हैं

कोयले का
व्यापार होता है

‘उलूक’
की खींसे
होती नहीं हैं

क्या निपोरे

चुगलखोरी
की अपनी
आदत से

बस
लाचार होता है ।

चित्र साभार: apps.apple.com

शनिवार, 1 जून 2019

बकवास अपनी कह कह कर किसी और को कुछ कहने नहीं देते हैं

बहुत कुछ है 
लिखने के लिये बिखरा हुआ 
समेटना ठीक नहीं इस समय
रहने देते हैं

होना कुछ नहीं है हिसाब का 
बेतरतीब ला कर 
और बिखेर देते हैं 
बहे तो बहने देते हैं

दीमकें जमा होने लगी हैं फिर से
नये जोश नयी ताकतों के साथ 
कतारें कुछ सीधी कुछ टेढ़ी 
कुछ थमने देते हैं 

आती नहीं है नजर 
मगर होती है खूबसूरत 
आदेश कतारबद्ध होने के 
रानी को 
घूँघट के पीछे से देने देते हैं

तरीके लूटने के नये 
अंगुलियाँ अंगुलीमाल के लिये 
साफ सफाई हाथों की जरूरी है 
डेटोल डाल कर धोने देते हैं 

बज रही हैं दुंदुभी रण की 
कोई नहीं है कहीं दूर तक 
शोर को गोलियों के 
संगीत मान चुके सैनिकों को 
सोने देते हैं 

दहाड़ सुनते हैं 
कुछ कागज के शेरों की 
उन्हें भी शहर के जंगलों की 
कुछ कागजी कहने देते हैं 

लिखना क्या सफेद कागज पर 
काली लकीरों को 
नावें बना कर रेत की नदी में 
तेजी से बहने देते हैं 

गाँधी झूठ के पर्याय 
खुल के झूठ बोलते रहे हैं सुना है 
सच तोलने वालों को चलो अब 
खुल के उनके अपने नये बीज 
बोने देते हैं

सच है दिखता है 
उनके अपने आईने से जो भी 
उन्हें सम्मानित कर ही देते हैं 

अखबार के पन्ने सुबह के 
बता देते हैं 
पढ़ने वालों में से कुछ रो ही लेते हैं 
तो रोने देते हैं 

बकवास करने में लगे कर 
जारी हों लाईसेंस 
सेंस में रहना अच्छा नहीं 
नाँनसेंस ‘उलूक’ जैसे 
अपनी कह कह कर 
किसी और को कुछ कहने नहीं देते हैं । 

चित्र साभार: clipartimage.com/