उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

लेखक पाठक गिनता है पाठक लेखक की गिनती को गिनता है

लिखते लिखते

कभी
अचानक
महसूस होता है

लिखा ही
नहीं जा रहा है

अब
लिखा नहीं
जा रहा है

तो
किया क्या
जा रहा है

अपने
ही ऊपर
अपना ही शक

गजब
की बात
नहीं है क्या

लेकिन
कुछ सच
वाकई में
सच होते हैं

क्यों होते हैं
ये तो
पता नहीं
पर होते है

लिखते लिखते

कब
लेखक
और पाठक

दोनो शुरु
हो चुके होते हैं
कुछ गिनना

क्या
गिन रहे होते हैं
ये तो नहीं मालूम

पर
दिखता
कुछ नहीं है

गिनने
की आवाज
भी नहीं होती है

बस
कुछ लगता है
एक दो तीन चार
सतरह अठारह
नवासी नब्बे सौ

अब
लेखक
कौन सी
गिनती कर
रहा होता है

गिनतियाँ

लिख
लिख कर
क्या गिन
रहा होता है

पाठक
क्या पढ़
रहा होता है

लेखक
का सौ
पाठक का नब्बे
हो रहा होता है

लेकिन हो
रहा होता है

ये
लेखक भी
जानता है

और
लेखक
की गिनतियों को

पाठक भी
पहचानता है

बस
मानता नहीं है
दोनों में से एक भी

गिनतियों
की बात को

बहस जारी
रहती है

गिनतियों में
ही होती है

गिनतियाँ
गड़बड़ाती है

सौ
पूरा होने
के बावजूद
अठहत्तर पर
वापिस
लौट आती है

लेखक
और पाठक
दोनो झल्लाते है

मगर
क्या करें
मजबूर होते हैं

अपनी अपनी
आदतों से
बाज नहीं आते हैं

फिर से
गिनना
शुरु हो जाते हैं

स्वीकार
फिर भी
दोनों ही
नहीं करते हैं

कि गिनती
करने के लिये

गिनते गिनते
इधर उधर
होते होते

बार बार
एक ही
जगह पर
गिनती करने
पहुँच जाते हैं ।

चित्र साभार: vecto.rs