खुलता रोज है
एक पन्ना
हमेशा
खुलता है
उसी तरह
जैसे
खोला जाता है
सुबह
किसी
दुकान का शटर
और
बन्द
कर दिया जाता है
शाम को
आदतन
पिछले
कई दिनों से
तारीख
बदल रही है
रोज की रोज
मगर
कलम है
लेट जाती है
थकी हुयी सी
बगल में ही
सफेद पन्ने के
सो जाती है
आँखे
खुली रख कर
देखने के लिये
कुछ
रंगीन सपने
गलतफहमी के
लिख सके
कुछ
सकारात्मक सा
फजूल
बक बक करते करते
सालों हो गये हों जब
लिख दिये होंगे
अब तक तो
सारी अंधेरी रात के
सारे कालेपन
सोच कर
कुछ नयापन
कुछ पुराना
बदलना चाह कर
अपनी
जीभ का स्वाद
ढूँढने
निकल पड़ती है
नींद में
कुछ नया
खुली आँखों से
देखते देखते
ओढ़े हुऐ
सकारात्मकता
फैली हुयी
भीड़ के
चेहरे दर चेहरे
भीड़ दर भीड़
पढ़ाती
एक भीड़
अकेले
अकेले को
अलग
अलग
बनाने के लिये
एक भीड़
भीड़
जो
बहुत जरूरी
हो गयी है आज
सारे चेहरे
लहाराते हुऐ
ओढ़ी
सकारात्मकता
जो ढक लेती है
पूरी भीड़ को
बदल जाती है
सारी परिभाषाऐं
बहती हुई
भीड़ के अंदर अंदर
दूर
किसी
ठूँठ पर बैठे
अन्धेरे में
आँखे
चौंधियाता ‘उलूक’
प्रकाशमान
होता हुआ
कलम की
नोक से
कुरेदते हुऐ
अपने दाँतो के बीच
ताजी नोची लाश के
चिथड़े को
खुश
हो कर
काम आ गयी
कलम की नोक पर
अपनी
पीठ ठोक कर
अपने को खुद
दाद देता
नकारात्मकता
को
लीप देने के लिये
समय के गोबर
और
मिट्टी के साथ
अपने
चारों तरफ
और
मदहोश होता
खुश्बू से
फैलती हुई
मानकर
कुछ भी लिखा
इसी तरह
फैलता
चला जाता है
बहता
नहीं है
निर्धारित
रास्ते पर ।
चित्र साभार: https://www.graphicsfactory.com/
एक पन्ना
हमेशा
खुलता है
उसी तरह
जैसे
खोला जाता है
सुबह
किसी
दुकान का शटर
और
बन्द
कर दिया जाता है
शाम को
आदतन
पिछले
कई दिनों से
तारीख
बदल रही है
रोज की रोज
मगर
कलम है
लेट जाती है
थकी हुयी सी
बगल में ही
सफेद पन्ने के
सो जाती है
आँखे
खुली रख कर
देखने के लिये
कुछ
रंगीन सपने
गलतफहमी के
लिख सके
कुछ
सकारात्मक सा
फजूल
बक बक करते करते
सालों हो गये हों जब
लिख दिये होंगे
अब तक तो
सारी अंधेरी रात के
सारे कालेपन
सोच कर
कुछ नयापन
कुछ पुराना
बदलना चाह कर
अपनी
जीभ का स्वाद
ढूँढने
निकल पड़ती है
नींद में
कुछ नया
खुली आँखों से
देखते देखते
ओढ़े हुऐ
सकारात्मकता
फैली हुयी
भीड़ के
चेहरे दर चेहरे
भीड़ दर भीड़
पढ़ाती
एक भीड़
अकेले
अकेले को
अलग
अलग
बनाने के लिये
एक भीड़
भीड़
जो
बहुत जरूरी
हो गयी है आज
सारे चेहरे
लहाराते हुऐ
ओढ़ी
सकारात्मकता
जो ढक लेती है
पूरी भीड़ को
बदल जाती है
सारी परिभाषाऐं
बहती हुई
भीड़ के अंदर अंदर
दूर
किसी
ठूँठ पर बैठे
अन्धेरे में
आँखे
चौंधियाता ‘उलूक’
प्रकाशमान
होता हुआ
कलम की
नोक से
कुरेदते हुऐ
अपने दाँतो के बीच
ताजी नोची लाश के
चिथड़े को
खुश
हो कर
काम आ गयी
कलम की नोक पर
अपनी
पीठ ठोक कर
अपने को खुद
दाद देता
नकारात्मकता
को
लीप देने के लिये
समय के गोबर
और
मिट्टी के साथ
अपने
चारों तरफ
और
मदहोश होता
खुश्बू से
फैलती हुई
मानकर
कुछ भी लिखा
इसी तरह
फैलता
चला जाता है
बहता
नहीं है
निर्धारित
रास्ते पर ।
चित्र साभार: https://www.graphicsfactory.com/