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बुधवार, 11 मार्च 2020

लिखा सबका नहीं फैलता है कागज पर कुछ का बहता चला जाता है सलीके से: यूँ ही एक खोज



खुलता रोज है
एक पन्ना
हमेशा

खुलता है
उसी तरह

जैसे
खोला जाता है
सुबह

किसी
दुकान का शटर

और
बन्द
कर दिया जाता है
शाम को
आदतन

पिछले
कई दिनों से

तारीख
बदल रही है
रोज की रोज

मगर
कलम है
लेट जाती है
थकी हुयी सी
बगल में ही
सफेद पन्ने के

सो जाती है
आँखे
खुली रख कर

देखने के लिये
कुछ
रंगीन सपने
गलतफहमी के

लिख सके
कुछ
सकारात्मक सा

फजूल
बक बक करते करते
सालों हो गये हों जब

लिख दिये होंगे
अब तक तो
सारी अंधेरी रात के
सारे कालेपन

सोच कर
कुछ नयापन
कुछ पुराना
बदलना चाह कर

अपनी
जीभ का स्वाद
ढूँढने
निकल पड़ती है
नींद में

कुछ नया
खुली आँखों से
देखते देखते
ओढ़े हुऐ
सकारात्मकता

फैली हुयी
भीड़ के
चेहरे दर चेहरे

भीड़ दर भीड़
पढ़ाती
एक भीड़
अकेले

अकेले को
अलग

अलग
बनाने के लिये
एक भीड़

भीड़
जो
बहुत जरूरी
हो गयी है आज

सारे चेहरे
लहाराते हुऐ
ओढ़ी
सकारात्मकता

जो ढक लेती है
पूरी भीड़ को
बदल जाती है
सारी परिभाषाऐं
बहती हुई
भीड़ के अंदर अंदर

दूर
किसी
ठूँठ पर बैठे
अन्धेरे में

आँखे
चौंधियाता
उलूक
प्रकाशमान
होता हुआ

कलम की
नोक से
कुरेदते हुऐ
अपने दाँतो के बीच
ताजी नोची लाश के
चिथड़े को

खुश
हो कर
काम आ गयी
कलम की नोक पर

अपनी
पीठ ठोक कर
अपने को खुद
दाद देता

नकारात्मकता
को
लीप देने के लिये

समय के गोबर
और
मिट्टी के साथ
अपने
चारों तरफ

और
मदहोश होता
खुश्बू से
फैलती हुई

मानकर
कुछ भी लिखा
इसी तरह
फैलता
चला  जाता है

बहता
नहीं है
निर्धारित
रास्ते पर ।

चित्र साभार:
 https://www.graphicsfactory.com/

शनिवार, 31 मार्च 2018

घर में तमाशे हो रहे हों रोज कुछ दिनों चाँद की ओर निकल लेने में कुछ नहीं जाता है

खोला तो
रोज ही
जाता है

लिखना भी
शुरु किया
जाता है

कुछ नया
है या नहीं है
सोचने तक

खुले खुले
पन्ना ही
गहरी नींद में
चला जाता है

नींद किसी
की भी हो
जगाना
अच्छा नहीं
माना जाता है

हर कलम
गीत नहीं
लिखती है

बेहोश
हुऐ को
लोरी सुनाने
में मजा भी
नहीं आता है

किस लिये
लिख दी
गयी होती हैं
रात भर
जागकर नींदें
उनींदे
कागजों पर

सोई हुवी
किताबों के
पन्नों को जब
फड़फड़ाना
नहीं आता है

लिखने
बैठते हैं
जो
सोच कर
कुछ
गम लिखेंगे
कुछ
दर्द भी

लिखना
शुरु होते ही
उनको अपना
पूरा शहर
याद
आ जाता है

सच लिखने की
हसरतों के बीच

कब किसी झूठ
से उलझता है
पाँव कलम का

अन्दाज ही
नहीं आता है

उलझता
चला जाता है

बहुत आसान
होता है
क्योंकि
लिख देना
एक झूठ ‘उलूक’

जिस पर
जब चाहे
लिखना
शुरु करो
बहुत कुछ
और
बहुत सारा
लिखा जाता है

घर
और तमाशे
से शुरु कर
एक बात को
चाँद
पर लाकर
इसी तरह से
छोड़ दिया
जाता है ।

चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

एक पन्ने पर कुछ देर रुक कर अच्छा होता है आवारा हो लेना पूरी किताब लिखनी जरूरी है कहाँ लिखा होता है

दरवाजा
खोल कर
निकल लेना
बेमौसम
बिना सोचे समझे

सीधे सामने के
रास्ते को
छोड़ कर कहीं

मुड़ कर
पीछे की ओर
ना चाहते हुऐ भी

जरूरी
हो जाता है
कभी कभी

जब हावी
होने लगती
है सोच
आस पास की
उड़ती हवा की

यूँ ही
जबर्दस्ती
उड़ा ले जाने
के लिये
अपने साथ
लपेटते हुए
अपनी सोच
के एक
आकर्षक
खोल में

अपने अन्दर
के 'ना' को
नकारने में माहिर

बहुत सारे
साफ हाथों से
सुलेख में
'हाँ' लिखे हुऐ
पोस्टर बैनर
ली हुयी
भीड़ के बीच

'नहीं' को
बचा ले जाने
की कोशिशें
नाकाम होनी
ही होती हैं

अच्छा होता है
नजर हटा लेना
अपने अन्दर
जल रही
आग से
बने कोयले
और राख से
पारदर्शी आयने
हो चुके चेहरों से

और देख लेना
आरपार
सड़क पर खड़े एक
जीवित शरीर को
आत्मा समझ कर
दूर कहीं
हरे भरे पेड़ पौंधों
उड़ते हुऐ चील कौवों
या क्रिकेट खेलते हुऐ
खिलदंडों से भरे
मैदान से उड़ती
हुई धूल को

कविताओं के शोर में
दब गयी आवाज को
बुलन्द कर ले जाना
आसान नहीं होता है

चलती साँस को
कुछ देर रोक कर
धीरे से छोड़ने के लिये
इसीलिये कहा जाता
होगा शायद

खाली
सफेद पन्ने भी
पढ़े जा सकते हैं
लिखना छोड़ कर
किसी मौसम में
‘उलूक’

खुद ही पढ़ने
और
समझ लेने
के लिये
खुद लिखे गये
आवारा रास्तों
के निशान।

चित्र साभार: canstockphoto.com

गुरुवार, 7 दिसंबर 2017

पन्ना एक सफेद सामने से आया हुआ सफेद ही छोड़ देना अच्छा नहीं होता है

बकवास का
हिसाब रखने
वाले को
पता होता है

उसने कब
किस समय
कहाँ और
कितना कुछ
कहा होता है

इस जमाने
के हिसाब से
कुछ भी
कहीं भी
कभी भी
कितना भी
कह कर
हवा में
छोड़ देना
अच्छा होता है

पकड़ लेते हैं
उड़ती हवाओं
में से छोड़ी
गयी बातों को
पकड़ लेने वाले

बहुत सारे
धन्धों के
चलने में
इन्ही सारी
हवाओं का
ही कुछ
असर होता है

गिन भी लेना
चाहिये फेंकी
गयी बातों को
उनकी लम्बाई
नापने के साथ

बहुत कुछ होता है
करने के लिये
ऐसी जगह पर
सारा शहर जहाँ
हर घड़ी आँखें
खोल कर खड़े
होकर भी सोता है

सपने बना कर
बेचने वाले भी
 इन्तजार करते हैं
हमेशा अमावस
की रातों का

चाँद भी बेसुध
हो कर कभी
खुद भी सपने
देखने के
लिये सोता है

‘उलूक’
तबियत के
नासाज होने
का कहाँ
किसे अन्दाज
आ पाता है

कब बुखार में
कब नींद में
और
कब नशे में

क्या क्यों और
किसलिये
बड़बड़ाता
हुआ सा कहीं
कुछ जब
लिखा होता है ।

चित्र साभार: Clipart Library

सोमवार, 2 नवंबर 2015

खाली सफेद पन्ना अखबार का कुछ ज्यादा ही पढ़ा जा रहा था

कुछ ज्यादा
ही हलचल
दिखाई
दे रही थी
अखबार के
अपने पन्ने पर

संदेश भी
मिल रहे थे
एक नहीं
ढेर सारे
और
बहुत सारे
क्या
हुआ होगा
समझ में
नहीं आ
पा रहा था

पृष्ठ पर
आने जाने
वालों पर
नजर रखने
वाला
सूचकाँक
भी ऊपर
बहुत ऊपर
को चढ़ता
हुआ नजर
आ रहा था

और
ये सब
शुरु हुआ था
जिस दिन से
खबरें छपना
थोड़ा कम होते
कुछ दिन के
लिये बंद
हुआ था

ऐसा नहीं था
कि खबरें नहीं
बन रही थी

लूट मार हमेशा
की तरह धड़ल्ले
से चल रही थी
शरीफ लुटेरे
शराफत से रोज
की तरफ काम
पर आ जा रहे थे

लूटना नहीं
सीख पाये
बेवकूफ
रोज मर्रा
की तरह
तिरछी
नजर से
घृणा के
साथ देखे
जा रहे थे

गुण्डों की
शिक्षा दीक्षा
जोर शोर से
औने पौने
कोने काने
में चलाई
जा रही थी

पढ़ाई लिखाई
की चारपाई
टूटने के
कगार पर
चर्र मर्र
करती हुई
चरमरा रही थी

‘उलूक’
काँणी आँख से
रोज की तरह
बदबूदार
हवा को
पचा रहा था
देख रहा था
देखना ही था
आने जाने के
रास्तों पर
काले फूल
गिरा रहा था

कहूँ ना कहूँ
बहुत कह
चुका हूँ
सभी
कुछ कहा
एक ही
तरह का
कब तक
कहा जाये
सोच सोच
कर कलम
कभी
सफेद पानी में
कभी
काली स्याही में
डुबा रहा था

एक दिन
दो दिन
तीन दिन
छोड़ कर
कुछ नहीं
लिखकर
अच्छा कुछ
देखने
अच्छा कुछ
लिखने
का सपना
बना रहा था

कुछ नहीं
होना था
सब कुछ
वही रहना था
फिर लिखना
शुरु
किया भी
दिखा भी
अपनी सूरत
का जैसा ही
जमाने से
लिखा गया
आज भी
वैसा ही कुछ
कूड़ा कूड़ा
सा ही
लिखा जा
रहा था

जो है सो है
बस यही पहेली
बनी रही थी
देखने पढ़ने
वाला खाली
सफेद पन्ने को
इतने दिन
बीच में
किसलिये
देखने के लिये
आ रहा था ।

चित्र साभार: www.clker.com

गुरुवार, 25 जून 2015

इकाई दहाई नहीं सैकड़े का अंतिम पन्ना




कुछ
जग बीती हो 
या
कुछ आप बीती 

यहाँ
सब बराबर होता है 
ये भी
एक मिसाल है 
 :) 


कभी
किसी समय 
सब कुछ छोड़ कर 

अपनी
खुद की एक
बात कह देने में 
कोई बुराई नहीं है 

बाकी बातें 
अपनी जगह हैं 

ये भी सही है 
कोई
सुनता नहीं है 

ना
किसी को
कोई 
फर्क पड़ता है 
किसी के 
कहते रहने से 

अपना
सब कुछ 
समेटते समेटते 
इधर उधर के
कुछ 

कुछ
उलझे उलझते 
किसी और के 

कटोरों
में
बटोरे हुऐ 

तुड़े मुड़े
कागजों की 
सिलवटों को

सीधा 
करते चले जाने से 

ना ही
सिलवटे‌ 
सीधी होती हैं 

ना ही
कागज के 
दर्द ही कम होते हैं 

उधर की दुनियाँ में 

उसके
सच्चे होने 
का
भ्रम ही 
तो होता है 

इधर
तो सभी 
कुछ भ्रम है 

भूलभुलइया 
की
गलियों में
बने हुऐ रास्तों 
के निशान

जिन्हें 
कोई भी आने 
जाने वाला 
देखने समझने 
की कोशिश 
नहीं करता है 

फिर भी
भीड़ 
आ भी रही है 
और 
जा भी रही है 

ऐसे में
सब कुछ 
सबका लिख 
दिया जाये 
या
कभी अपनी 
किताब का 
एक कोरा पन्ना 
खोल के रख 
दिया जाये 

एक ही बात है 

उसपर

सबकुछ 
लिख दिये गये 

और 
खुद पर
कुछ नहीं 
लिखे गये

दोनो 
एक ही बात हैं 

उनके लिये

जिन्हे 
गलियाँ पसंद हैं 

निशान लगी
दीवारें नहीं ।
चित्र साभार: www.canstockphoto.com

सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

कोई नहीं कोई गम नहीं तू भी यहीं और मैं भी यहीं



साल के दसवें
महीने का
तेरहवाँ दिन

तेरहवीं नहीं
हो रही है कहीं

हर चीज
चमगादड़
नहीं होती है
और उल्टी
लटकती
हुई भी नहीं


कभी सीधा भी
देख सोच
लिया कर

घर से
निकलता
है सुबह

ऊपर
आसमान में
सूरज नहीं
देख सकता क्या

असीमित उर्जा
का भंडार
सौर उर्जा
घर पर लगवाने
के लिये नहीं
बोल रहा हूँ

सूरज को देखने
भर के लिये ही
तो कह रहा हूँ

क्या पता शाम
होते होते सूरज के
डूबते डूबते
तेरी सोच भी
कुछ ठंडी हो जाये

और घर
लौटते लौटते
शाँत हवा
के झौकों के
छूने से
थोड़ा कुछ
रोमाँस जगे
तेरी सोच का

और लगे तेरे
घर वालों को भी
कहीं कुछ गलत
हो गया है

और गलत होने
की सँभावना
बनी हुई है
अभी भी
जिंदगी के
तीसरे पहर से
चौथे पहर की
तरफ बढ़ते हुऐ
कदमों की

पर होनी तो तेरे
साथ ही होती है
‘उलूक’
जो किसी को
नहीं दिखाई देता
किसी भी कोने से
तेरी आँखे
उसी कोने पर
जा कर रोज
अटकती हैं
फिर भटकती है

और तू
चला आता है
एक और पन्ना
खराब करने यहाँ

इस की
भी किस्मत
देश की तरह
जगी हुई
लगती है ।

चित्र साभार: http://www.gograph.com/

बुधवार, 24 सितंबर 2014

बहुत कुछ है तेरे पास सिखाने के लिये पुराना पड़ा हुआ कुछ नई बाते नये जमाने की सिखाना भी सीख


सीख क्यों नहीं लेता 
बहुत कुछ है सीखने के लिये सीखे सिखाये से इतर भी 
कुछ इधर उधर का भी सीख 

ज्यादा लिखी लिखाई पर
भरोसा करना ठीक नहीं होता 
जिसे सीख कर
ज्यादा से ज्यादा 
माँगना शुरु कर सकता है भीख 

भीख भी
सबके नसीब में नहीं होती मिलनी 
पहले कुछ इधर भी होना सीख 

इधर आकर सीखा जायेगा बहुत कुछ इधर का 
उसके बाद इधर से उधर होना भी कुछ सीख 

बेनामी आदमी हो लेना उपलब्धि नहीं मानी जाती 
किसी नामी आदमी का खास आदमी होना भी सीख 

लाल हरी नीली गेरुयी पट्टियाँ ही अब होती हैं पहचान 
कुछ ना कुछ होने की सतरंगी सोच से निकल 
किसी एक रंग में खुद को रंगने रंगाने की सीख 

रोज गिरता है अपनी नजरों से 
लुटेरों की सफलता की दावतें देख कर 
कभी सब कुछ अनदेखा कर
अपनी चोर नजर उठाना भी सीख 

जो सब सीख रहे हैं सिखा रहे हैं 
कभी कभी उन की शरण में जाना भी सीख 

अपना भला हो नहीं सकता तुझसे 
तेरे सीखे हुऐ से किसी और का भला 
उनकी सीख को सीख कर ही कर ले जाना सीख 

कितना लिखेगा
कब तक लिखेगा इस तरह से ‘उलूक’ 
कभी किसी दिन खाली सफेद पन्नों को
थोड़ी सी साँस लेने के लिये भी
छोड़ जाना भी सीख । 

चित्र साभार: http://www.clipartpal.com/

रविवार, 7 सितंबर 2014

लिखा हुआ पढ़ते पढ़ते नहीं लिखा पढ़ने से रह गया था

कुछ था
जरूर
उन सब
जगहों पर

जहाँ से
गुजरा
था मैं

एक नहीं
हजार बार
जमाने के
साथ साथ

और
कुछ नहीं
दिखा था
कभी भी

ना मुझे

ना ही
जमाने को

कुछ दिखा
हो किसी को

ऐसा
जैसा ही
कुछ लगा
भी नहीं था

अचानक
जैसे बहुत
सारी आँखे
उग आई थी
शरीर में

और
बहुत कुछ
दिखना शुरु
हो गया था

जैसे
कई बार
पढ़ी गई
किताब के

एक खाली
पड़े पन्ने को

कुछ नहीं
लिखे होने
के बावजूद

कोई पढ़ना
शुरु
हो गया था

आदमी
वही था

कई कई
बार पढ़ा
भी गया था

समझ में
हर बार
कुछ
आया था

और
जो आया था

उसमें
कभी कुछ
नया भी
नहीं था

फिर
अचानक

ऐसा
क्या कुछ
हो गया था

सफेद पन्ना
छूटा हुआ
एक पुरानी
किताब का

बहुत कुछ
कह गया था

एक
जमाने से

जमाना भी
लगा था
पढ़ने
पढ़ा‌ने में

लिखा
किताब का

और
एक खाली
सफेद पन्ना

किसी का
सफेद
साफ चेहरा
हो गया था

‘उलूक’
आँख
ठीक होने
से ही
खुश था

पता ही
नहीं चला
उसको

कि
सोच में
ही एक
मोतियाबिंद
हो गया था ।

चित्र साभार: http://www.presentermedia.com/

बुधवार, 27 अगस्त 2014

नजर टिक जाती है बहुत देर तक अंजाने में किसी की डायरी के एक पन्ने में बस यूँ ही कभी

 
ढूँढना
शुरु करना कभी कुछ 
थोड़ी देर देखने भर के लिये 
खुद को अपने ही आस पास से हटा कर 
दूर ले जाने की मँशा के साथ भटकते भटकते 

रुकते हुऐ
कदम किसी के पन्ने पर 
बस इतना सोच कर कि ठीक नहीं
रोज अपनी ही बात को लेकर खड़े हो जाना 

दर्द बहुत हैं बिखरे हुऐ
गुलाबों की सुर्ख पत्तियों से जैसे ढके हुऐ 
बहुत कुछ है यहाँ
पता लगता भी है 

कहीं किसी मोड़ पर आकर
मुड़ा हुआ पन्ना किसी किताब का
रोक लेता है कदमों को 
और नजर
गुजरती किसी लाईन के बीच 
पता चलता है खोया हुआ किसी का समय

और 
रुकी हुई घड़ी
जैसे इंतजार में हो
किसी के लौटने के आने की खबर के लिये 

जानते बूझते
किसी के चले जाने की 
एक सच्ची बहुत दूर से आई और गयी
खबर के झूठ हो जाने की आस में 

अपने गम
बहुत हल्के होते हुऐ
तैरते नजर आना शुरु होते हैं
और नम कर देते हैं आँखो को एक आह के साथ

जो निकलती है
एक दुआ के साथ दिल से 
खोये हुऐ के सभी अपनों के लिये । 

चित्र साभार:  http://apiemistika.lt/ 

बुधवार, 18 जून 2014

पुरानी किताब का पन्ना सूखे हुऐ फूल से चिपक कर सो रहा था


वो गुलाब
पौंधे पर खिला हुआ नहीं था

पुरानी
एक 
किताब के
किसी फटे हुऐ अपने ही एक
पुराने पेज पर चिपका हुआ पड़ा था

खुश्बू वैसे भी
पुराने 
फूलों से आती है कुछ
कहीं भी किसी फूल वाले से नहीं सुना था

कुछ कुछ बेरंंगा कुछ दाग दाग
कुछ किताबी कीड़ोंं का नोचा खाया हुआ
बहुत कुछ
ऐसे ही 
कह दे रहा था

फूल के पीछे
कागज 
में कुछ भी
लिखा हुआ 
नहीं दिख रहा था 
ना जाने फिर भी
सब कुछ एक आइने में जैसा ही हो रहा था

बहुत सी
आड़ी तिरछी 
शक्लों से भरा पड़ा था

खुद को भी
पहचानना 
उन सब के बीच में कहीं
बहुत मुश्किल हो रहा था

कारवाँ चला था 
दिख भी रहा था कुछ धुंंधला सा 
रास्ते में ही कहीं बहुत शोर हो रहा था

बहुत कुछ था 
इतना कुछ कि पन्ना अपने ही बोझ से
जैसे
बहुत बोझिल हो रहा था

कहाँ से चलकर 
कहाँ पहुंंच गया था ‘उलूक’
बिना पंखों के धीरे धीरे

पुराने एक सूखे हुऐ
गुलाब के काँटो को चुभोने से भी
दर्द 
थोड़ा सा भी नहीं हो रहा था

कारवाँ भी पहुँचा होगा
कहीं और
किसी 
दूसरे पन्ने में किताब के

कहाँ तक पहुँचा
कहाँ
जा कर रुक गया
बस इतना ही पता नहीं हो रहा था ।

चित्र साभार: https://in.pinterest.com/

रविवार, 22 दिसंबर 2013

किताब पढ़ना जरुरी है बाकी सब अपने ही हिसाब से होता है

किताबों तक
पहुँच ही

जाते हैं
बहुत से लोग

कुछ नहीं भी
पहुँच पाते हैं

होता कुछ
भी नहीं है

किताबों को
पढ़ते पढ़ते
सब सीख
ही जाते हैं

किताबें
चीज कितने
काम की होती हैं

किताबों को
साथ रखना
पढ़ना ही
सिखाता है

अपनी
खुद की एक
किताब का
होना भी
कितना जरूरी
हो जाता है

एक
आदमी के
कुछ कहने
का कोई
अर्थ नहीं
होता है

क्या फरक
पड़ता है
अगर वो
गाँधी या
उसकी
तरह का ही
कोई और
भी होता है

लिखना पढ़ना
पाठ्यक्रम के
हिसाब से एक
परीक्षा दे देना

पास होना
या फेल होना
किताबों के
होने या
ना होने
का बस
एक सबूत
होता है

बाकी
जिंदगी के
सारे फैसले
किताबों से
कौन और
कब कहाँ
कभी ले लेता है

जो भी होता है
किसी की अपनी
खुद की किताब
में लिखा होता है

समय के साथ
चलता है
एक एक पन्ना
हर किसी की
अपनी किताब का

कोई जल्दी
और
कोई देर में
कभी ना कभी
तो अपने
लिये भी
लिख ही
लेता है

पढ़ता है
एक किताब
कोई भी
कहीं भी
और कभी भी

करने पर
आता है
तो उसकी
अपनी ही
किताब का
एक पन्ना
खुला होता है ।

सोमवार, 16 अप्रैल 2012

बातें ही बातें

लिख लिख
कर अपनी
बातों को
अपने से ही
बातें करता हूँ

फिर
दिन भर पन्ना
खोल खोल
कई कई बार
पढ़ा करता हूँ

मेरी बातों
को लेकर
वो सब भी
बातेंं करते हैं

मैं बातेंं ही
करता रहता हूँ
बातों बातों
में कहते
रहते हैं

इन सारी
बातों की
बातों से
एक बात
निकल कर
आती है

बातें
करने का
अंदाज किसी का
किसी किसी
की आँखों में
चुभ जाती है

कोई कर भी
क्या सकता है
इन सब बातों का

वो सीधे कुछ
कर जाते हैं
वो बातें कहाँ
बनाते हैं

मैं कुछ भी
नहीं कर
पाता हूँ
बस केवल
बात बनाता हूँ

फिर
अपनी ही
सारी बातों को
मन ही मन
पढ़ पाता हूँ

फिर
लिख पाता हूँ
कुछ बातें

कुछ बातें
लिख लिख
जाता हूँ

कुछ
लिखने में
सकुचाता हूँ

बस अपने से
बातें करता हूँ

बातों की बात
बनाता हूँ

बस बातें ही
कर पाता हूँ।

सोमवार, 21 नवंबर 2011

सब ठीक है

सब कुछ
आराम से
चलता रहे
इस देश में
अगर
कुछ लोग
फालतू में
अन्ना ना
बनकर
दूसरौं के
गन्नो को
लहलहाने दें
सब कुछ
ठीक चलता
रहता है
सिर्फ
थोड़ी देर
असमंजस
होती है उसे
जिसे
फटे में टांग
अड़ाने की
आदत है
सब कुछ
होता है
सब स्वीकार
करते हैं
बस कुछ
बिल्लियां
खिसियाती हैं
और पंजो
के निशान
आप देख
सकते हैं
ब्लाग के
पन्नो पर ।