उलूक टाइम्स

सोमवार, 2 अप्रैल 2018

एक भीड़ से निकल कर खिसक कर दूसरी भीड़ में चला जाता है एक नयी भीड़ बनाता है दंगे तो सारे ऊपर वाला ही करवाता है


एक भीड़ से
दूसरी भीड़
दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़
भीड़ से भीड़ में
खिसकता चलता है
मतलब को जेब में
रुमाल की तरह
डाल कर जो
वो हर भीड़ में
जरूर दिखाई
दे जाता है



भीड़ कभी
मुद्दा नहीं
होती है
मुद्दा कभी
मतलबी
नहीं होता है
मतलबी
भीड़ भी
नहीं होती है

भीड़ बनाने वाला
भीड़ नचाने वाला
कहीं किसी भीड़ में
नजर नहीं आता है

जानता है
पहली
भीड़ के हाथ
दूसरी भीड़
में पहुँच कर
भीड़ के पाँव
हो जाते हैं

दूसरी भीड़ से
तीसरी भीड़ में
पहुँचते ही पाँव
पेट होकर
गले के रास्ते
चलकर
भीड़ की
आवाज
हो जाते हैं

ये शाश्वत सत्य है
भीड़ की जातियाँ
बदल जाती हैंं
धर्म बदल जाता है

अपने मतलब के
हिसाब से समय
घड़ी की दीवार से
बाहर आ जाता है

आइंस्टाईन
का सापेक्षता
का सिद्धांत
निरपेक्ष भाव से
आसमान में
उड़ते हुऐ
चील कव्वे
गिनने के
काम का भी
नहीं रह जाता है

आती जाती
भीड़ से
निकलकर
एक मोड़ से
दूसरे मोड़ तक
पहुँचने से पहले
ही फिसलकर
एक नयी
भीड़ बनाकर
एक नया
झंडा उठाता है
बस वही एक
सत्यम शिवम सुंदरम
कहलाता है

समझदार
आँख मूँद
कर भीड़ के
सम्मोहन में
खुद फंसता है
दूसरों को
फ़ंसाता है

फिर खुद
भीड़ में से
निकलकर
भीड़ में
बदलकर
भीड़ भीड़
खेलना
सीख जाता है

बेवकूफ
‘उलूक’
इस भीड़ से
उस भीड़
जगह जगह
भीड़ें गिनकर
भीड़ की बातों को
निगल कर
उगल कर
जुगाली करने में
ही रह जाता है।

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com