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रविवार, 17 जनवरी 2010

भ्रम

आदमी 

क्यों चाहता है

अपनी ही शर्तों पर
जीना

सिर्फ
अमन चैन
सुख की 
हरियाली
में सोना

ढूंढता है

कड़वे स्वाद
में मिठास

और
दुर्गंध में 
सुगंध

हाँ

ये आदमी
की ही 
तो है
चाहत

उसे भूलने
से मिलती
है राहत

फिर भी

पीढ़ा दुख
का अहसास

एक स्वप्न
नहीं

सुख की
ही है
छाया

और
छाया कभी
पीछा नहीं
छोड़ती

सिर्फ अँधेरे
से है
मुंह मोड़ती

आदमी
अंधेरा भी 
नहीं चाहता

करता है
सुबह का
इंतजार

अंधेरा 
मिटाने को

रात का
इंतजार

छाया 
भगाने को

और
ऎसे ही
निकलते
हैं दिन बरस

फिर भी
न जाने 
आदमी

क्यों
चाहता है
अपनी ही 
शर्तों पर
जीना ।