आदमी
क्यों चाहता है
अपनी ही शर्तों पर जीना
सिर्फ अमन चैन
सुख की हरियाली में सोना
ढूंढता है
कड़वे स्वाद में मिठास
और दुर्गंध में सुगंध
हाँ
ये आदमी
की ही तो है चाहत
उसे भूलने से मिलती है राहत
फिर भी
पीड़ा
दुख का अहसास
दुख का अहसास
एक स्वप्न नहीं
सुख की ही है छाया
और
छाया कभी
पीछा नहीं छोड़ती
सिर्फ अँधेरे से है मुंह मोड़ती
आदमी अंधेरा भी नहीं चाहता
करता है सुबह का इंतजार
अंधेरा मिटाने को
रात का इंतजार
छाया भगाने को
और ऎसे ही
निकलते हैं दिन बरस
फिर भी न जाने
आदमी क्यों चाहता है
अपनी ही शर्तों पर जीना ।
'admi kyon chahta hai apni sharto par jeena'... bahut badhiya ! kuch shabdon mein aapne badi baat keh daali !
जवाब देंहटाएंWarna shayad wah jee bhee na sake...
जवाब देंहटाएंkabhee yahan bhee aayiye: http://newideass.blogspot.com/
hello sir nice line
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (25-11-2012) के चर्चा मंच-1060 (क्या ब्लॉगिंग को सीरियसली लेना चाहिए) पर भी होगी!
सूचनार्थ...!
सोचने को विवश करती सुंदर रचना...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (08-09-2014) को "उसके बग़ैर कितने ज़माने गुज़र गए" (चर्चा मंच 1730) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शायद अहम् का प्रश्न है ....सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजन्नत में जल प्रलय !
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द सोेमवार 04 नवंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआदमी जो ठहरा !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना 🙏
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