आदमी
क्यों चाहता है
अपनी ही शर्तों पर जीना
सिर्फ अमन चैन
सुख की हरियाली में सोना
ढूंढता है
कड़वे स्वाद में मिठास
और दुर्गंध में सुगंध
हाँ
ये आदमी
की ही तो है चाहत
उसे भूलने से मिलती है राहत
फिर भी
पीड़ा
दुख का अहसास
दुख का अहसास
एक स्वप्न नहीं
सुख की ही है छाया
और
छाया कभी
पीछा नहीं छोड़ती
सिर्फ अँधेरे से है मुंह मोड़ती
आदमी अंधेरा भी नहीं चाहता
करता है सुबह का इंतजार
अंधेरा मिटाने को
रात का इंतजार
छाया भगाने को
और ऎसे ही
निकलते हैं दिन बरस
फिर भी न जाने
आदमी क्यों चाहता है
अपनी ही शर्तों पर जीना ।