उलूक टाइम्स: पागल पागल
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बुधवार, 9 दिसंबर 2015

बहकता तो बहुत कुछ है बहुत लोगों का बताते कितने हैं ज्यादा जरूरी है


परेशानी तो है 
आँख नाक दिमाग सब खोल के चलने में 
आजकल के जमाने के हिसाब से 

किस समय
क्या खोलना है कितना खोलना है किस के लिये खोलना है 
अगर नहीं जानता है कोई
तो पागल तो होना ही होना है 

पागल हो जाना भी एक कलाकारी है समय के हिसाब से 
बिना डाक्टर को कुछ भी बताये कुछ भी दिखाये 

बिना दवाई खाये बने रहना पागल सीख लेने के बाद 
फिर कहाँ कुछ किसी के लिये बचता है 

सारा सभी कुछ 
पैंट की नहीं तो कमीज की ही किसी दायीं या बायीं जेब में 
खुद बा खुद जा घुसता है 

घुसता ही नहीं है 
घुसने के बाद भी जरा जरा सा थोड़े थोड़े से समय के बाद 
सिर निकाल निकाल कर सूंघता है 
खुश्बू के मजे लेता है 

पता भी नहीं चलता है 
एक तरह के सारे पागल एक साथ ही
पता नहीं क्यों 
हमेशा एक साथ ही नजर आते हैं 

समय के हिसाब से समय भी बदलता है 
पागल बदल लेते हैं साथ अपना अपना भी 

नजर आते हैं फिर भी 
कोई इधर इसके साथ कोई उसके साथ उधर 

बस एक ऊपर वाला
नोचता है एक गाय की पूँछ या सूँअर की मूँछ कहीं 
गुनगुनाते हुऐ राम नाम सत्य है 
हार्मोनियम और तबले की थाप के साथ 

‘उलूक’ पागल होना नहीं होता है कभी भी 
पागल होना दिखाना होता है दुनियाँ को 
चलाने के लिये बहुत सारे नाटक 

जरूरी है अभी भी समझ ले
कुछ साल बचे हैं पागल हो जाने वालों के लिये अभी भी 

पागल पागल खेलने वालों से 
कुछ तो सीख लिया कर कभी पागल ।

चित्र साभार: dir.coolclips.com