उलूक टाइम्स: सोच
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रविवार, 6 अगस्त 2023

फटी सोच से फटी किताब में लिखे गए कुछ फटे शेर 'उलूक' ले कर के आता है

 


 कितना कुछ कुलबुलाता है
भटक कर अँगुलियों के पोरों तक आ जाता है
कलम की नोक तक सुरसुराता हुआ
सामने पड़े सफ़ेद पर बस फ़ैल जाता है

खून लाल होता है कहा जाता है
सफ़ेद होकर कब पानी में बदल जाता है
कहीं जिक्र नहीं करता है कोई
इंसान होने में अब किसे फक्र हो पाता है

कूंची लिए हाथ में कसमसाता है
रंगों से इन्द्रधनुष बनाना चाहता है
एक रंग काफी होता है
पागल बादशाह  जब जाल अपना फैलाता है

सीधे तू चोर है कभी भी नहीं कहना चाहिए
 ना ही किसी से सीधे कहा जाता है
अलीबाबा के समय चालीस रहे होंगे
अब तो पांच सौ चालीस से देश चल पाता है

सीवर जरूरी नहीं सब बहा कर ले जाए
बहुत कुछ सब के हिस्से का बचा रह जाता है
सफाई और गन्दगी के बीच की लाइन खींचना ठीक नहीं
अब माना जाता है
सब कुछ हम्माम हो चला  है देख रहे हैं खुद को नहाते हुए इसी में
कौन हडबड़ाता है
गांधी को सोचना और उसकी बात करने वाला
अब एक निहायती गंवार माना जाता है

खोदना जरूरी है सारी खूबसूरत इमारतों को एक बार
और ये उसे करना है
तू किसलिए लरबराता है
ईट बहुत  है औकात बताने  के लिए
क्यों पगलाता है
चर्च मन्दिर मस्जिद गुरूद्वारा अगर भरभराता  है

बहुत सारी गन्दगी है बहुत बदबूदार है
फेंकना भी होता है हर कोई फेंकना भी चाहता है
‘उलूक’ आसान नहीं होता है शब्द नहीं होते हैं पास में
एक वाक्य तक नहीं बनाया जाता है |
 

चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/


शनिवार, 29 मई 2021

किसने कहा है बकवास पढ़ना जरूरी है ‘उलूक’ की ना लिखा कर कहकर मत उकसाओ


उड़ रहे हैं काले कौऐ आकाश दर आकाश
कबूतर कबूतर चिल्लाओ
कौन बोल रहा है सच
रोको उसे ढूँढ कर एक गाँधी कहीं जा कर के कूट आओ

इस से पूछो उस से पूछो
कहीं से भी पूछ कर कुछ उसके बारे में पता लगाओ
कैसे आगे हो सकता है कोई उसका अपना उससे
कहीं तो जा कर के कुछ आग लगाओ 

कुछ मर गये कुछ आगे मरेंगे
अपने ही लोग हैं सबकी फोटो सब जगह जा लगाओ
कुछ रो लो कुछ धो लो कुछ पैट्रोल ले लो हाथ में और जोर से आग आग गाओ 

उल्लू लिख रहा है एक अखबार हद है
कुछ तो शरम करो और कुछ तो शरमाओ
रोको उसे कुछ ना कुछ करके
इस से पहले सब लिख ले बेशरम कुछ कपड़े दिखाओ 

उसका लिखा है किसने समझना है तुम भी जानते हो
बेकार का दिमाग मत लगाओ
पढ़ने कोई नहीं आता है
बस देखने आता है कौन कौन पढ़ गया आके
समझ जाओ

सकारात्मक होना बहुत अच्छी बात है कौन रोकता है
तुम अपनी कुछ सुनाओ
बहुत ही नकारात्मक है वही लिख फिर रहा है रोक लो
कह दो इतनी भीड़ ना बनाओ

कुत्ता सोच लो दिमाग में कौन रोकता है
पट्टा और जँजीर की सोच भी जरूरी है
भागने ना दो किसी की सोच को लगाम कुछ अपनी लगाओ

अपनी अपनी सोचना बहुत ही जरूरी है
इस से पहले मौत आगोश में ले जाये कोरोना के बहाने
कुछ नोच लो कुछ खसोट लो यूँ ही कहीं से कुछ भी

रो लेना गिरीसलीन लगा के आँखों के नीचे जार जार
अखबार हैं ना
कहना नहीं पड़ेगा किसी से भी फोटो खींच कर के ले जाओ

‘उलूक’ सब परेशान हैं
तेरी इस बकवास करने की आदत से
कहते भी हैं हमेशा तुझसे कहीं और जा कर के दिमाग को लगाओ

तुझे भी पता है औकात अपनी
कितनी है गहरी नदी तेरी सोच की
मरना नहीं होता है जिसमें शब्द को
तैरना नहीं भी आये
गोता लगाने के पहले चिल्लाता है
आओ डूब जाओ।

चित्र साभार: https://pngio.com/images/png-b2702327.html

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

घर के कुत्ते ने शहर के कुत्ते के ऊपर भौंक कर आज अखबार के पन्ने पर जगह पाई है बधाई है ‘उलूक’ बधाई है


अखबार में
फोटो आई है
सारा घर मगन है

मालिक
कभी दिखाया नहीं जाता है
घर के कुत्ते ने बहुत धूम मचाई है

घर में
भौंकता नहीं है कभी
कटखन्ने होने की मिठाई है

किसी को
 कभी काटा नहीं
किसी को कभी भौंका नहीं
अपने को बचाने की कीमत मिली है
या
किसी ने कीमत चुकाई है

बजट
अभी अभी निकला है
जनता समझ नहीं पायी है

कुत्ते कुत्ते
पट्टे पट्टे
खबर किस ने पहुंचाई है
खबर
मगर लाजवाब आई है

मालिक की
खबर की जगह
एक कुत्ते की खबर
हमेशा पव्वे के सहारे
अद्धे ने पहुंचाई है

कुत्ता
घूमता रहता है शहर शहर
मालिक की आज बन आई है

कुत्ते ने
अखबार में जगह पा कर
मालिक को दी बधाई है

जय जय कार है अखबार की
गजब की खबर एक आज बना के दिखाई है

कुत्ते को पता नहीं है कुछ भी
उसने आज भी उसी तरह अपनी पूंछ हिलाई है
 
मालिक सोच में पड़ा है
उसकी खबर किसने क्यों और कैसे उड़वाई है

‘उलूक’
कुत्ते पाला कर
शहर में भी भेजा कर
अखबारों की जरूरत आज बदल कर
नई सोच उभर कर आई है

अच्छा करना
ठीक नहीं
कुत्ते ने कुत्ते के ऊपर भौंक कर
आज अखबार के पन्ने पर जगह पाई है ।

रविवार, 22 नवंबर 2020

धुआँ धुआँ हो कहीं हो फिर भी

 



धुआँ धुआँ सा 
जरा सा सोच में 
चला आया आज 
पता नहीं क्यों 

कोई खबर 
कहीं आग लगने की 
सुबह के अखबार में नहीं दिखी 
फिर भी 

बहुत कुछ जलता है 
ना धुआँ होता है ना आग दिखती है कहीं 
राख भी हो जाती है राख तक 
नामों निशा नहीं मिलता है कहीं 
फिर भी 

सुलगना जरूरी है 
बस कोयले का ही नहीं 
हर एक सोच का भी 
कहीं भी थोड़ा सा ही सही 
आग भी हो और राख भी हो
दूर बहुत हो 
फिर भी 

अपनी सम्भलती नहीं गाय 
दूसरे की उजाड़ जाने की चिंता में 
गलता एक आदमी दिखता है 
होता हुआ धुआँ धुआँ 
नजर नहीं आता है कहीं 
फिर भी 

बहुत सारी आग 
बहुत सारा धुआँ 
सम्भालते लोग 
आग और धुऐं की बात 
आते ही कहीं 
बातों को 
पानी और दूध की ओर 
टालते लोग 
फिर भी 

पागल ‘उलूक’ अंधा ‘उलूक’
 बेशरम ‘उलूक’ 
दिन में रात 
और रात में दिन की 
बातें करता ‘उलूक’ 
धुआँ और आग 
या आग और धुऐं की 
बातों को सम्भालता ‘उलूक’ 
फिर भी 

 फायर ब्रिगेड जरूरी है पता है 
आग हो या धुआँ हो फिर भी 
बेफिकर होकर 
चुटकुलों के साथ 
आग और धुआँ 
मुँह से निकालता ‘उलूक’ 
सिगरेट का धुआँ हो या 
धुआं यूं ही धुआं धुआं 
फिर भी 

चित्र साभार: http://clipart-library.com/s

बुधवार, 26 अगस्त 2020

सोच तो थी बहुत कुछ लिखने की लेकिन लगता नहीं है उसमें से थोड़ा सा कुछ भी लिख पाउँगा कहीं

 


सारी जिन्दगी निकल गयी
लेकिन लगने लगा है
थोड़ी सी भी आँख तो अभी खुली ही नहीं 

अन्धा नहीं था लेकिन अब लग रहा है
थोड़ा सा भी पूरे का
अभी तो कहीं से भी दिखा ही नहीं 

नंगा और नंगई सोचने में
शर्म दिखाने के बाद भी बहुत आसान सा लगता रहा
बस कपड़े ही तो उतारने हैं कुछ शब्द के
सोच लिया

अरे क्या कम है
बस ये किया और कुछ किया ही नहीं 

परदे बहुत से
बहुत जगह लगे दिखे लहराते हुऐ हवा में
कई कई वर्षॉं से टिके
खिड़कियाँ भी नहीं थी ना ही दरवाजे थे
कहीं दिखा ही नहीं 

क्या क्या कर रहे हैं
सारे शरीफ़
अखबार की सुबह की खबर और पेज में दिखाई देने वाले

जब बताने पै आ जाता है एक गरीब
तब शर्म आती है आनी भी चाहिये
बहुत लिख लिये गुलाब भी और शराब भी

लिख देने वाला सच
बेशर्मी से जरा सा भी तो
‘उलूक’
कहीं भी
आज तक लिखा ही नहीं।

चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/

ulooktimes.blogspot.com २६/०८/२०२० के दिन 

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शनिवार, 21 दिसंबर 2019

जरूरी है जिंदा ना रहे बौद्धिकता


क्या
परेशानी है
किसी को

अगर
कोई

अपने
हिसाब
का
सवेरा

अपने
समय
के
हिसाब से

करवाने
का

दुस्साहस
करता है

उनींदे
सूरज को

गिरेबान खींच

ला
कर
रख देना

अपनी
सोच की
दिशा के
छोर पर

और
थमा देना

उसके
हाथ में

अपने
बहुमत से
निर्धारित
किया गया

उसके
समय का
सरकारी आदेश

उसके
चमकने का कोण

और
ताकत

उसे बता कर

समय से पहले
पौंधे
पर

पैदा हो गयी
कली की
पंखुड़ियों
को

आदेशित
कर
खुल लेने
का

और

तुरंत
बन जाने
के लिये

एक फूल

किसी के
हिसाब
का

समय से पहले
पैदा
हुऐ बच्चे
को

मैराथन
में दौड़ लेने

या
उनके

उड़ने
की
कल्पना
 बेचने की

बिना पंखों के

सब संभव है

बस
बैठा दीजिये

हर
सुखा दिये गये
जवान पेड़
की
फुनगी पर

एक कबूतर

एक निशान
लगा हुआ
एक रंग
की
एक या दो लाईन का

जरूरी है
कबूतर ने
उजाड़ी हो
कोई एक
फलती फूलती डाल

जिसके हों
 कहीं ना कहीं
उसके चेहरे पे
निशान
बौद्धिकता 
जिंदा
ना रहे

ठानकर

मरे
ना भी

तो 
भी
घिसटती रहे

ताउम्र

जिसे
देखते रहें

लाईन पड़े
कबूतर

अट्टहास
करते हुऐ

‘उलूक’
जरूरी है

अंधों
का
रजिस्टर
बनना भी

जो
रात में
देख लेते हैं
ऊल जलूल

तेरी तरह।

चित्र साभार: 

सोमवार, 2 दिसंबर 2019

यूँ ही अचानक/ कैसे हुआ इतना बड़ा कुछ/ तब तक समझ में नहीं आयेगा/ उसके धीरे धीरे थोड़ा थोड़ा होने के निशान रोज के /अपने आसपास अगर देख नहीं पायेगा



इतने दिन भी
नहीं हुऐ हैं

कि
याद ना आयें
खरोंचें
लगी हुई
सोच पर

और
भूला जाये
रिसता हुआ
कुछ

जो
ना लाल था
ना ही
उसे
रक्त कहना
सही होगा

अपने
आस पास
के

नंगे नाँचों
के
बगल से

आँख
नीची कर
के
निकल जाने को

वैसे
याद
नहीं आना चाहिये

भूल जाना
सीखा जाता है

यद्यपि
वो ना तो
बुढ़ापे की
निशानी होता है

ना ही
उसे
डीमेंशिया कहना
ठीक होगा

ऐसे सारे
महत्वाकाँक्षाओं
के बबूल
बोने के लिये

सौंधी मिट्टी
को
रेत में
बदलते समय

ना तो
शर्म आती है

ना ही
अंधेरा
किया जाता है

छोटे छोटे
चुभते हुवे
काँटो को

निकाल फेंकने
के
लिये भी
समय
कहाँ होता है

बूँद दर बूँद
जमा होते
चले जाते हैं

सोच की
नर्म खाल
को
ढकते हुऐ से

मोमबत्तियाँ
तो
सम्भाल कर
ही
रखी जाती हैं

जरा सा में
टूट जाती हैं

मोम
बिना जलाये भी
बरबाद हो जाता है
समय के साथ

और
हर बार
एक
दुर्घटना
फिर
झिंझोड़ जाती है

पूछते हुऐ

कितनी बार
और

किस किस

छोटी
घटना से

बचते हुऐ
अपने
आसपास की
आँखे फेरेगा ‘उलूक’

जो
दिखाई
और
सुनाई दे रहा है

वो
अचानक
नहीं हुआ है

महत्वाकाँक्षाओं
के
मुर्दों के
कफनों
के

जुड़ते चले
जाने से
बना

विशाल
एक
झंडा हो गया है

जो
लहरायेगा
बिना
हवा के

ढक लेगा
सोच
को

कहीं
कुछ भी

नजर
आने लायक
नहीं
रह जायेगा

सौंधी
मिट्टियों
से
बनी रेत
की
आँधियों में
सब उड़ जायेगा

कुछ
नहीं बचेगा

महत्वाकाँक्षाओं 
के
भूतों से
लबालब

एक
शमशान
हो जायेगा।
चित्र साभार: https://www.123rf.com/

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

ध्यान ना दें मेरी अपनी समस्यायें मेरा अपना बकना मेरा कूड़ा मेरा आचार विचार



हैं
दो चार

वो भी

कोई इधर

कोई उधर

कोई
कहीं दूर

कोई

कहीं
उस पार


सोचते हुऐ

होने की

आर पार

लिये
हाथ में

लिखने
का
कुछ

सोच कर
एक
हथियार


जैसे

हवा
को
काटती हुई
जंक लगी
सदियों पुरानी

शिवाजी

या
उसी तरह के
किसी
जाँबाज की

एक

तलवार

सभी
की
सोच में

तस्वीर

सूरज

और

रोशनी
 उसकी

शरमाती

हुई सी
नयी नवेली सी
नहीं

बल्कि
झाँसी की रानी
की सी

तीखी


करने

 वाली
हर मार पर
पलट वार

देखते
जानते हुऐ

अपने आस पास

अन्धेरे में

अन्धेरा
बेचने वाले

सौदागरों
की सेना


और

उसके
सरदार

खींचते हुऐ

लटकते हुऐ
सूरज पर

ठान कर


ना होने देंगे
उजाला

बरबाद
कर देंगे


लालटेन
की भी
सोच रखने वाले

कीड़े

दो चार
कुछ उदार

किसे
समझायें

किसे बतायें

किसने सुननी है

नंगे
घोषित कर दिये गये हों
शरीफों के द्वारा

जब हर गली

शहर पर
एक नहीं कई हजार

डिग्रियाँ
लेने के लिये
लगे हुऐ बच्चे

कोमल
पढ़े लिखे

कहलायेंगे
होनहार


उस से
पहले


खतना

कर दिये
जाने की


उनकी
सोच से

बेखबर

तितलियाँ

बना कर
उड़ाने का है

कई
शरीफों का

कारोबार

पहचान
किस की
क्या है


सब को पता है


बहुत कुछ


हिम्मत
नहीं है

कहने की

सच


मगर
बेच रहा है
दुकानदार भी

सुबह का अखबार


‘उलूक’

हैं
कई बेवकूफ
मेंढक

कूदते
रहते हैं

तेरी तरह के

अपने अपने

कूओं में

तुझे
क्या करना है
उनसे

तू कूद
अपनी लम्बाई
चार फिट की

अपनी

सोच के
हिसाब से


किसे पड़ी है
आज

अगर
बन जाता है

एक
कुआँ

मेढकों का स्वर्ग


और
स्वर्गवासी
हो लेने के अवसर
तलाशते दिखें

हर तरफ

मेंढक हजार।


चित्र साभार: https://www.gettyimages.in/

गुरुवार, 31 अक्टूबर 2019

व्यंग और बरतन पीटने की आवाजों के बीच का हिसाब महीने के अन्तिम दिन



एक सी
नहीं 
मानी जाती हैं 

आधुनिक
चित्रकारी 

कुछ खड़ी 
कुछ पड़ी रेखायें 
खुद कूदी हुयी मैदान पर 
या
जबरदस्ती की मारी

और
कुछ भी
लिख 
देने की बीमारी 

होली पर
जैसे 
आसमान की तरफ 
रंगीन पानी मारती 

खिलखिलाते
बच्चे के 
हाथ की पिचकारी 

उड़ते
फिर फैल जाते हुऐ रंग 

बनाते
अपने अपने
आसमान

जमीन पर
अपने हिसाब से 
घेर कर
अपने हिस्से की जमीन

और
मिट्टी पर
बिछ गये चित्रों को
बेधती आँखें गमगीन

खोलते हुऐ
अपने सपनों
की 
बाँधी हुई
गठरियों पर 
पड़ चुकी
बेतरतीब गाँठों को 

कहीं
जमीन पर
उतरती तितलियाँ 

कहीं
उड़ती परियाँ
रंगीन परिधानों में 

फूलों
की सुगंध
कहीं चैन

तो 
कहीं
उसी पर
भंवरे बैचेन

किसी के लिये
यही सब 

महीना
पूरे होते होते

रसोई में
खाली हो चुके 

राशन के
डब्बों के ऊपर 
उधम मचाते
नींद उड़ाते 
रद्दी बासी
अखबार कुतरते
चूहे

किसी की
माथे पर पड़ी
चिंता की रेखायें

कहीं
कंकड़ पत्थर
से भरी 

कहीं
फटी उधड़ी
खाली हो चुकी
जेब 

किसी
कोने पर
खड़ी

एक
सच को

सच सच
लिख देने के
द्वंद से

आँख बचाती
सोच

ऊल जलूल
होती हुयी
दिशाहीन 

अच्छा होता है
कुछ

देखे अन्देखे
सुने सुनाये

उधड़े
नंगे हो चुके

झूठ 
के

पन्ने में
उतर कर
व्यंग के मुखौटे में
बेधड़क
निकल लेने
से

कभी कभी
यूँ ही
कुछ नहीं के

खाली बरतनों
को
पीट लेना 
‘उलूक’

महीने
के
अन्तिम दिन

कैलेण्डर
मत
देखा कर

राशन
नहीं होता है

लिखना

महीने का ।
चित्र साभार: https://www.timeanddate.com/

शनिवार, 5 अक्टूबर 2019

फितरत छिपाये अपनी लड़ाके सिपाही एक रणछोड़ की झूठी दास्तान सुन रहे हैं


पता ही नहीं है कुछ भी अन्जान बन रहे हैं 
लगता भी नहीं है
कहते हैं
इन्सान बन रहे हैं

खूबसूरत बन रहे हैं कफन
बेफिक्र होकर
जिंदगी के साथ साथ बुन रहे हैं 

आरामदायक भी बनें सोच कर
सफेद रूई को एक
लगातार धुन रहे हैं

कब तक है रहना खबर ही नहीं है
बेखबर होकर
एक सदी का सामान चुन रहे हैं 

कहानियाँ हैं बिखरी
कुछ मुरझाई हुई सी कुछ दुल्हन सी निखरी 

कबाड़ में बैठे हुऐ कबाड़ी
आँख मूँदे हुऐ
जैसे कुछ इत्मीनान गिन रहे हैं 

फितरत छिपाये अपनी
लड़ाके सिपाही
एक रणछोड़ की
झूठी दास्तान सुन रहे हैं

‘उलूक’
रोने के लिये कुछ नहीं है
हँसने के फायदे कहीं हैं
सोच से अपनी लोग खुद
बिना आग बिना चूल्हे
भुन रहे हैं ।

चित्र साभार: https://owips.com https://twitter.com


रविवार, 29 सितंबर 2019

सोच कुछ भी हो आईने सी साफ हो लिखे लिखाये में सूरत दिखनी भी नहीं है



साफ
कहना है

कहने से
कोई परहेज
होना भी नहीं है

बात
अपनी
खुद की

जरा
सा भी
कहीं
करनी भी
नहीं है

थोड़े से
मतभेद
से केवल

अब
कहीं कुछ
होता भी नहीं है

पूरा 
कर लें 
मनभेद 
इस से
अच्छा माहौल

आगे
होना भी नहीं है

झूठ सारे
लिपटे हुऐ हैं
परतों में

पर्दे में
नहाने की

जरूरत
भी नहीं है

बन्द
रखनी हैं
बस आँखें

हमाम
की दीवारें
खिड़कियाँ
दरवाजे

अभी
तैयार
भी नहीं हैं

भेड़िये
सियार कुत्ते
सारे साथ हैं

क्या हुआ
रिश्तेदार
भी नहीं हैं

सोचना
भी नहीं है

नोचना
ही तो है
सबने

कुछ ना कुछ

क्या हुआ
अगर जिन्दा हैं

लाशें अभी
बनी भी नहीं हैं

लिखने में
कुछ नहीं
जाता है

सब कुछ
लिखने के
बीच का

कुछ
लिखना
भी नहीं है

सोच
कुछ
भी हो
‘उलूक’

आईने सी
साफ हो

लिखे
लिखाये में
सूरत दिखनी
भी नहीं है ।

 चित्र साभार: http://clipart-library.com

सोमवार, 2 सितंबर 2019

मुखौटों के ऊपर मुखौटा कुछ ठीक से बैठता नहीं ‘उलूक’ चेहरा मत लिख बैठना कभी अपना शब्दों पर




एक
भीड़
लिख रही है 

लिख रही है
चेहरे
खुद के 

संजीदा
कुछ
पढ़ लेने वाले

अलग
कर लेते हैं

सहेजने
के लिये 

खूबसूरती
किसी भी
कोण से 

बना लेते हैं
त्रिभुज
या
वर्ग 

या
फिर
कोई भी
आकृति

सीखने में
समय
लगता है 
सीखने वाले को

पढ़ने वाले 
के
पढ़ने के
क्रम

जहाँ
क्रम होना
उतना 
जरूरी नहीं होता 

जितना
जरूरी होता है 

होना
चेहरा
एक अ‍दद 

जो
ओढ़ सके
सोच 

चेहरे के
ऊपर से 

पढ़ने
वाले की
आँखों की 

आँख से
सोचने वालों
को

जरूरत
नहीं होती
दिल
और
दिमाग की 

‘उलूक’
कभाड़
और
कबाड़ में 

कौन
शब्द सही है
कौन गलत 

कोई
फर्क
नहीं पड़ता है 

लगा रह
समेटने में 
लिख लिखा कर
एक पन्ना

संजीदगी
से
संजीदा
सोच का 

बस
चेहरा
मत दे देना
अपना

कभी
किसी
लिखे के ऊपर 

मुखौटों के ऊपर
मुखौटा
कुछ
ठीक से
बैठता नहीं।
चित्र साभार: https://www.dreamstime.com

बुधवार, 5 दिसंबर 2018

रोज ही पढ़ने आता है साहिब नापागल लिखा पागल ‘उलूक’ का समझ में नहीं आता है कहता फिरता है किसी से कुछ पूछ क्यों नहीं लेता होगा

कपड़े सोच के उतार देने के बाद 
दौड़ने वाले की सोच में 
केवल और केवल यही होता होगा

अब इसके बाद कौन क्या कर लेगा 
इससे ज्यादा सोच में उसके 
होना भी नहीं होता होगा

कपड़े सोच के उतरे होते हैं कौन देखता है 
ना सोच पाता है ऐसा भी जलवा 
पहने हुऐ कपड़ों का होता होगा

कोशिश जारी रखता है उतारने की 
किसी का भी कुछ भी 
नहीं सोचता है 
खुदा भी ऊपर से कुछ तो देखता होगा

लगा रह खींचने में कपड़े रूह के 
अपने अपनों के भी 
कोई शक नहीं करता होगा कि खींचता होगा

आदत पड़ गयी हो शराब पीने की जिसे 
दिये के तेल की बोतल को देख कर 
उसी पर रीझता होगा 

आईना हो जाता है किसी के घर के हमाम का 
किसी का लिखा लिखाया 
क्या लिख दिया 
शर्मा कर थोड़ा सा तो कभी सोचता होगा

कहने को कहता फिर रहा होता है इस सब के बाद
 इक पढ़ा लिखा 
ये आदमी है या जानवर पता नहीं 

फालतू में क्या ऊल जलूल 
क्यों हर समय
कुछ ना कुछ लिखता दीखता होगा 

पागलों की भीड़ में किसी 
एक पागल के इशारे पर 
कपड़े उतार देने का खेल जमाने से चल रहा होगा 

कपड़े समझ में आना उतारना समझ में आना 
खेल समझ मे आने का खेल समझाने से चल रहा होगा

किसी भी शरीफ को शराफत के अलावा 
किसलिये क्यों देखना सुनना 

अपनी अपनी आँखें सबकी 
अपना अपना सब को अपने हिसाब का दीखता होगा

नंगे ‘उलूक’ के देखने को लिखा देख कर 
कुछ भी कहो 

टाई सूट पहन कर निकलते समय 
आईने के सामने साहिब जरा सा तो चीखता होगा।


चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

शुक्रवार, 16 नवंबर 2018

कुछ नहीं हो सकता है एक पक चुकी सोच का किसी कच्ची मिट्टी को लपेटिये जनाब

फूल होकर
डाल से उतरा

पक पका गया
एक फल
हो चुकी है आज

कैसे 

फिर से वही
बीज हो जाये 



जिस से
पैदा हुयी थी
कभी जनाब

कैसे बदलें
अब इस
पुरानी सोच को

सोच भी
नहीं पा रहे हैं
अपने आप

आप यूँ ही
कह देते
हैं हम से

अपनी
सोच को 
अब बदल
लीजिये जनाब

मित्र
पढ़ते हैं
कुछ लिखा
लिखाया हमारा

तुरन्त राय
देते हैं
जरूर एक दाग

बहुत साल
गधे रह लिये हैं

अब
घोड़े ही कुछ
सोच में
देख लीजिये जनाब

बेचैनी
शुरु होती है
क्या करें
जब देख लेते हैं
कुछ धुँआ
कहीं पर बिना आग

आग की बात कर
धुँआ दिखा कर ही
रोटियाँ सेक रहे हैं
सबसे बड़े साहब

अब आज ही
दिखे थे कुछ
दलाल घूमते हुऐ
अपने घर मोहल्ले
शहर के आस पास

कोई बिकेगा
कोई खरीदेगा
जल्दी ही कुछ

बड़ी कुर्सी पर
किसी के कहीं
जाकर बैठने
का जैसा
हो रहा है आभास

उम्र हो गयी
‘उलूक’ की
सीखते सीखते
सब गलत सलत सारा

ये होगा आपका हिसाब

कुछ नहीं
हो सकता है
माटी के पक चुके
इस घड़े का

जिसपर
अपनी सोच की
कलाकारी नक्काशी
उकेर देने वाले
अब नहीं भी कहीं

बस
उनके मीठे
अहसास बचे हैं

उसके पास
उसकी रूह के
बहुत पासपास

शनिवार, 13 अक्टूबर 2018

धरम बिना आवाज का कैसा होता है रे तेरा कैसे बिना शोर करे तू धार्मिक हो जाता है

किसलिये
खोलता है

खुद ही

हमेशा
अपनी पोल

तेरी सोच में

और
तुझमें भी हैं

ना जाने
कितने झोल

दुनियाँ पढ़
दुनियाँ लिख

कभी
बक बक छोड़

दुनियाँ सोच
की आँखें खोल

पण्डित है 


सुना है
पण्डिताई
तक नहीं
दिखला 

पाता है

घर के
मन्दिर के
अन्दर कहीं
पूजा करवाता है

बाहर किसी
मन्दिर को
जाता हुआ
नजर नहीं
आता है

गणपति
पूजा के
ढोल नगाढ़े
पड़ोसी एक

एक और एक
ग्यारह दिन तक

अपने घर में
बजवा जाता है

कान में
ठूस कर रूई
इतने दिन

पता नहीं
अपने घर के
किस कोने में

तू घुस जाता है

दशहरा आता है
राम की लीला
शुरु होती है

दुर्गा का पण्डाल
घर की छत से
नजर आता है

सोने की जरूरत
खत्म हो जाती है

सुबह
पौ फटते ही

फटी आवाज
का एक मंत्र
अलार्म
हो जाता है

सारा
मोहल्ला
जा जा कर
भजनों में
भाग लगाता है

तू
फिर अपने
कानों में
अंगुली ठूसे
घर के किसी
कमरे में
चक्कर
लगाता है

कोरट
कचहरी
में भी शायद
होता होगा

तेरा जैसा ही
कोई बेवकूफ

हल्ला गुल्ला
शोर शराबे पर
कानून बना कर

थाने थाने
भिजवाता है

भक्ति पर जोर
कहाँ चलता है

जोर लगा कर
हईशा के साथ

भगतों का रेला

ऐसे कागजों में
मूँगफली
बेच जाता है

कैसी तेरी पूजा
कैसी तेरी भक्ति
'उलूक'

कहीं भी तेरी
पूजा का भोंपू

किसी को
नजर नहीं
आता है

बिना
आवाज करे
बिना नींद
हराम करे

जमाने की

कैसे
तू ऊपर
वाले को
मक्खन
लगा कर

चुपचाप
किनारे से
निकल जाता है

समझ में
नहीं आता है

पूजा
करने वाला
ढोल नगाड़े
भोंपू के बिना

कैसे ईश्वर को
पा जाता है

और
समझ में
आता है

किसलिये
तू कभी भी
हिन्दू नहीं
हो पाता है ।

चित्र साभार: https://www.hindustantimes.com/mumbai-news/noise-can-make-you-deaf-this-diwali-turn-a-deaf-ear-to-noise/

रविवार, 29 जुलाई 2018

बकवास करेगा ‘उलूक’ मकसद क्या है किसी दीवार में खुदवा क्यों नहीं देता है

उसकी बात
करना
सीख क्यों
नहीं लेता है

भीड़ से
थोड़ी सी
नसीहत क्यों
नहीं लेता है

सोचना
बन्द कर के
देख लिया
कर कभी

दिमाग को
थोड़ा आराम
क्यों नही देता है

तेरा मकसद
पूछता है
अगर
उसका झण्डा

झण्डा
नहीं हूँ
कहकर
जवाब क्यों
नहीं देता है

आइना
नहीं होता है
कई लोगों
के घर में

अपने
घर में है
कपड़े उतार
क्यों
नहीं लेता है

साथ में
रहता है
अंधा बन
पूरी आँखे
खोलकर

पूछता है

क्या
लिखता है
बता क्यों
नहीं देता है

शराफत से
नंगा हो
जाता है

भीड़ में भी
एक शरीफ

नंगों की
भीड़ को
अपना पता

पता नहीं
क्यों नहीं
देता है

बहुत कुछ
लिखना है

पता होता है
‘उलूक’
को भी
हर समय

उस के
ही लोग हैं
उसके ही
जैसे हैं

रहने भी
क्यों नहीं
देता है ।

चित्र साभार: www.fineartpixel.com

रविवार, 15 जुलाई 2018

किसी किसी आदमी की सोच में हमेशा ही एक हथौढ़ा होता है

दो और दो
जोड़ कर
चार ही तो
पढ़ा रहा है
किसलिये रोता है

दो में एक
इस बरस
जोड़ा है उसने
एक अगले बरस
कभी जोड़ देगा
दो और दो
चार ही सुना है
ऐसे भी होता है

एक समझाता है
और चार जब
समझ लेते हैं
किसलिये
इस समझने के
खेल में खोता है

अखबार की
खबर पढ़ लिया कर
सुबह के अखबार में

अखबार वाले
का भी जोड़ा हुआ
हिसाब में जोड़ होता है

पेड़
गिनने की कहानी
सुना रहा है कोई
ध्यान से सुना कर
बीज बोने के लिये
नहीं कहता है

पेड़ भी
उसके होते हैं
खेत भी
उसके ही होते हैं

हर साल
इस महीने
यहाँ पर यही
गिनने का
तमाशा होता है

एक भीड़ रंग कर
खड़ी हो रही है
एक रंग से
इस सब के बीच

किसलिये
उछलता है
खुश होता है

इंद्रधनुष
बनाने के लिये
नहीं होते हैं

कुछ रंगों के
उगने का
साल भर में
यही मौका होता है

एक नहीं है
कई हैं
खीचने वाले
दीवारों पर
अपनी अपनी
लकीरें

लकीरें खीचने
वाला ही एक
फकीर नहीं होता है

उसने
फिर से दिखानी है
अपनी वही औकात

जानता है
कुछ भी कर देने से
कभी भी यहाँ कुछ
नहीं होना होता है

मत उलझा
कर ‘उलूक’
भीड़ को
चलाने वाले
ऐसे बाजीगर से
जो मौका मिलते ही
कील ठोक देता है

अब तो समझ ले
बाजीगरी बेवकूफ

किसी किसी
आदमी की
सोच में
हमेशा ही एक
हथौढ़ा होता है ।

चित्र साभार: cliparts.co

शुक्रवार, 24 नवंबर 2017

दूरबीन सोच वाले कुछ कुछ ना कुछ पा जाते हैं

मजबूरियाँ
'आह' से
लेकर
'आहा'
तक की
होती हैं
कोशिश
करने वाले
भवसागर
पार कर
ही जाते हैं

खबर रोज
का रोज छपे
ताजी छपे
तभी तक
ठीक है
कुछ आदत
से मजबूर
होते हैं ठंडी
भी करते हैं
फिर धूप भी
दिखाते हैं

लिखना
मजबूरी
होती है
पढ़ना नहीं
होती है
रास्ते में
लिखे संदेश
आने जाने
वालों से
ना चाहकर
भी पढ़े जाते हैं

दो चार
कहते ही हैं
'वाह'
देखकर
दीवारों पर
बने चित्रों पर
बहुत होता है
कुछ ही सही
होते तो हैं जो
सब कुछ
समझ जाते हैं

'वाह' की आरजू
होती भी है
लिखने वाले को
समझ गये हैं
या नहीं समझे हैं
भी समझ में
आ जाता है

टिप्प्णियों की भी
नब्ज होती है

लिखने
पढ़ने वाले
चिकित्सक
साहित्यकार
नाप लेते हैं
कलम से ही
अपनी एक
आला बना
ले जाते हैं

लिखे गये की
कुन्जियाँ भी
उपलब्ध होती
हैं बाजार में

पुराने लिखे
लिखाये को
बहुत से लोग
कक्षाओं में
पढ़ते पढ़ाते हैं

कवि कविता
अर्थ प्रश्न और
उत्तर बिकते हैं
बने बनाये
दुकानों में
जिसे पढ़कर
परीक्षा देकर
पास फेल होने
वाले को मिलती
हैं नौकरियाँ
बताने वालों की
मजबूरी होती है
लिखे लिखाये
की ऊँच नीच
कान में चुपचाप
बता कर
चले जाते हैं

नौकरी कविता
नहीं होती है
किताबों में
सिमटे हुऐ
लिखे हुऐ और
लिखने वाले के
इतिहास भी
नहीं होते हैं

दो चार
लिखते ही हैं
सच अपने
आस पास के
जिनके बारे में
कुछ भी नहीं
लिखने वाले
लिख रहा है
लिख दिया है
की हवा
फैलाते हैं

सच ही है
हो तो रहा है
लिखना
है करके
कुछ भी
लिख
लिया जाये
लिखे गये और
हो रहे में
कोई रिश्ता
होना तो चाहिये
चिल्ला चिल्ला
कर बताते हैं

गुड़ गुरु लोग
अपनी अपनी
बनायी गयी
शक्करों को
पीठ थपथपा कर
मंत्र सच्चाई का
पढ़ा ले जाते हैं

दुनियाँ जहाँ
‘वाह’
पर लिख रही है

अपनी मर्जी से
अपनी मर्जी
लिखते चलने वाले
बेवकूफ
‘उलूक’ की
‘आह’
पर लिखने
की आदत
ठीक नहीं है

हर समय
अपनी
और अपने
घर की बातें
गलत बात है
कभी कभी
चाँद या मंगल
की बातें भी तो
लिखी जाती हैं

घर की बात
करने वाले
अपने घर में
रह जाते हैं
दूरबीन सोच
के लोग ही
घर गली
मोहल्ले शहर
रोटी कपड़ा
मकान और
पाखाने की
सोच से बाहर
निकल पाते हैं

कुछ
कुछ ना कुछ
पा जाते हैं
कुछ
तर जाते हैं
कुछ
अमर
हो जाते हैं ।

चित्र साभार : http://www.geoverse.co.uk

मंगलवार, 15 अगस्त 2017

ऊँची उड़ान पर हैं सारे कबूतर सीख कर करना बन्द पंख उड़ते समय


किसी से
उधार 
ली गई बैसाखियों पर
करतब 
दिखाना सीख लेना 

एक दो का नहीं 
पूरी एक सम्मोहित भीड़ का 

काबिले तारीफ ही होता है 

सोच के हाथ पैरों को
आराम देकर 
खेल खेल ही में सही 
बहुत दूर के आसमान 
को छू लेने का प्रयास 

अकेले नहीं
मिलजुल कर एक साथ 

एक मुद्दे 
चाँद तारे उखाड़ कर 
जमीन पर बिछा देने को लेकर 

सोच का बैसाखी लिये
सड़क पर चलना दौड़ना 

नहीं जनाब
उड़ लेने का जुनून 
साफ नजर आता है आज 

बहुत बड़ी बात है 
त्याग देना अपना सब कुछ 
अपनी खुद की सोच को तक 

तरक्की के उन्माँद
की 
खुशी व्यक्त करना 
बहुत जरूरी होता है
 ‘उलूक’ 

त्यौहारों के
उत्सवों को मनाते हुऐ 

अपने पंखों को
बन्द कर 
उड़ते पंछियों को
एक ऊँची उड़ान पर
अग्रसर होते देख कर। 

चित्र साभार: NASA Space Place

बुधवार, 10 मई 2017

जमीन पर ना कर अब सारे बबाल सोच को ऊँचा उड़ा सौ फीट पर एक डंडा निकाल

पुराने
जमाने
की सोच
से निकल

बहुत
हो गया
थोड़ा सा
कुछ सम्भल

खाली सफेद
पन्नों को
पलटना छोड़

हवा में
ऊँचा उछल
कर कुछ गोड़

जमीन पर
जो जो
होना था
वो कबका
हो चुका
बहुत हो चुका

चुक गये
करने वाले
करते करते
दिखा कर
खाया पिया
रूखा सूखा

ऊपर की
ओर अब
नजर कर
ऊपर की
ओर देख

नीचे जमीन
के अन्दर
बहुत कुछ
होना है बाकि
ऊपर के बाद
समय मिले
थोड़ा कुछ
तो नीचे
भी फेंक

किसी ने नहीं
देखना है
किसी ने नहीं
सुनना है
किसी ने नहीं
बताना है

अपना
माहौल
खुद अपने
आप ही
बनाना है

सामने की
आँखों से
देखना छोड़

सिर के पीछे
दो चार
अपने लिये
नयी आँखें फोड़

देख खुद को
खुद के लिये
खुद ही

सुना
जमाने को
ऊँचाइयाँ
अपने अन्दर
के बहुत उँचे
सफेद
संगमरमरी
बुत की

आज मिली
खबर का
‘उलूक’
कर कुछ
खयाल

जेब में
रखना छोड़
दे आज से
अपना रुमाल

सौ फीट
का डंडा
रख साथ में
और कर
कमाल

लहरा सोच
को हवा में
कहीं दूर
बहुत दूर
बहुत ऊँचे

खींचता
चल डोर
दूर की
सोच की
बैठ कर
उसी डन्डे
के नीचे
अपनी
आँखें मींचे ।


चित्र साभार: http://www.nationalflag.co.za