सोच कर
लिखे गये
कुछ को
पढ़ कर कोई
कुछ भी
सोच रहा
होता है
लिखे हुऐ पर
लिखने वाला
समय नहीं
लिख रहा
होता है
किसे
पता होता है
सोचने से
लिखने तक
पहुँच लेने में
कितना समय
लग रहा होता है
होने का क्या है
हो चुका कुछ
आज ही नहीं
हो रहा होता है
पता हेी
नहीं होता है
बहुत बार
पहले भी
कुछ कुछ
ऐसा ही
कई बार
हो रहा
होता है
सोच कर
लिखना
कई बार
लगता है
सच में बहुत
बुरा हो
रहा होता है
अपने शहर
की बात
अपने शहर
के लोगों से
करना ठीक
नहीं हो
रहा होता है
खून हो
रहा होता है
किसी के
हाथों से
खुले आम
हो रहा
होता है
अपना ही
कोई कर
रहा होता है
कोई कुछ भी
नहीं कहीं
कह रहा
होता है
मरने वाले
शहर में
रोज ही मर
रहे होते हैं
एक दो
बाजार में
अगले दिन
दिखने वाला
उसके जैसे
कोई भी
भूत नहीं
हो रहा
होता है
लिखना बेवफाई
बेवफाओं के देश में
इस से बढ़ कर
बड़ा गुनाह
कोई नहीं
हो रहा होता है
हिस्सेदारी में
नहीं लगे
लोगों को
कहने का
कोई
हक नहीं
हो रहा होता है
लुटेरे सफेदपोशों
की लूट का हिस्सा
उनके अपनों में
बट रहा होता है
रविश को भी
मिल रही
हैं गालियाँ
लोकतंत्र का
सबूत बन रही हैं
गाँधी भेी
गालियाँ
खा रहा है
इससे अच्छा
कुछ भी कहीं
नहीं हो
रहा होता है
‘उलूक’
बहुत ही गंदी
आदत होती है
तेरे जैसे
कहने वालों की
बहुत सा
बहुत अच्छा
रोज ही जब
अखबारों में
रोज ही हो
रहा होता है ।
चित्रसा भार: Credit Union Times
लिखे गये
कुछ को
पढ़ कर कोई
कुछ भी
सोच रहा
होता है
लिखे हुऐ पर
लिखने वाला
समय नहीं
लिख रहा
होता है
किसे
पता होता है
सोचने से
लिखने तक
पहुँच लेने में
कितना समय
लग रहा होता है
होने का क्या है
हो चुका कुछ
आज ही नहीं
हो रहा होता है
पता हेी
नहीं होता है
बहुत बार
पहले भी
कुछ कुछ
ऐसा ही
कई बार
हो रहा
होता है
सोच कर
लिखना
कई बार
लगता है
सच में बहुत
बुरा हो
रहा होता है
अपने शहर
की बात
अपने शहर
के लोगों से
करना ठीक
नहीं हो
रहा होता है
खून हो
रहा होता है
किसी के
हाथों से
खुले आम
हो रहा
होता है
अपना ही
कोई कर
रहा होता है
कोई कुछ भी
नहीं कहीं
कह रहा
होता है
मरने वाले
शहर में
रोज ही मर
रहे होते हैं
एक दो
बाजार में
अगले दिन
दिखने वाला
उसके जैसे
कोई भी
भूत नहीं
हो रहा
होता है
लिखना बेवफाई
बेवफाओं के देश में
इस से बढ़ कर
बड़ा गुनाह
कोई नहीं
हो रहा होता है
हिस्सेदारी में
नहीं लगे
लोगों को
कहने का
कोई
हक नहीं
हो रहा होता है
लुटेरे सफेदपोशों
की लूट का हिस्सा
उनके अपनों में
बट रहा होता है
रविश को भी
मिल रही
हैं गालियाँ
लोकतंत्र का
सबूत बन रही हैं
गाँधी भेी
गालियाँ
खा रहा है
इससे अच्छा
कुछ भी कहीं
नहीं हो
रहा होता है
‘उलूक’
बहुत ही गंदी
आदत होती है
तेरे जैसे
कहने वालों की
बहुत सा
बहुत अच्छा
रोज ही जब
अखबारों में
रोज ही हो
रहा होता है ।
चित्रसा भार: Credit Union Times