कितनी
शरमा
शरमी से
यहाँ तक
पहुँच ही गयी
कितनी
बेशरमी से
कहीं बीच में
ही छूट गयी
कुछ
कबाड़ सी
महसूस हुयी
फाड़ कर
बेखुदी में
फेंक भी
दी गयी
कुछ
पहाड़ सी
कही
जानी ही थी
बहुत
भारी हो गयी
कही ही नहीं गयी
कुछ
आधी अधूरी सी
रोज की आवारा
जिन्दगी सी
पिये
खायी हुयी सी
किसी कोने में
उनींदी हो
लुढ़क ही गयी
खुले
पन्ने में
सामने से
फिलम की
खाली एक रील
एक नहीं
कई बार
खाली खाली ही
खाली चलती
ही चली गयी
कहाँ
जरूरी है
सब कुछ
वही कहना
जो दिखे
बाहर बाजार
में बिकता हुआ
रोज का रोज
‘उलूक’
किसी दिन
आँखें बन्द
कर के
झाँक भी
लिया कर
अपनी ही
बन्द
खिड़कियों
की दरारों के पार
कभी
छिर के गयी
थोड़ी सी रोशनी
अभी तक
बची भी है
या
यूँ ही
देखी
अनदेखी में
बुझ भी गयी।
चित्र साभार: https://wewanttolearn.wordpress.com
शरमा
शरमी से
यहाँ तक
पहुँच ही गयी
कितनी
बेशरमी से
कहीं बीच में
ही छूट गयी
कुछ
कबाड़ सी
महसूस हुयी
फाड़ कर
बेखुदी में
फेंक भी
दी गयी
कुछ
पहाड़ सी
कही
जानी ही थी
बहुत
भारी हो गयी
कही ही नहीं गयी
कुछ
आधी अधूरी सी
रोज की आवारा
जिन्दगी सी
पिये
खायी हुयी सी
किसी कोने में
उनींदी हो
लुढ़क ही गयी
खुले
पन्ने में
सामने से
फिलम की
खाली एक रील
एक नहीं
कई बार
खाली खाली ही
खाली चलती
ही चली गयी
कहाँ
जरूरी है
सब कुछ
वही कहना
जो दिखे
बाहर बाजार
में बिकता हुआ
रोज का रोज
‘उलूक’
किसी दिन
आँखें बन्द
कर के
झाँक भी
लिया कर
अपनी ही
बन्द
खिड़कियों
की दरारों के पार
कभी
छिर के गयी
थोड़ी सी रोशनी
अभी तक
बची भी है
या
यूँ ही
देखी
अनदेखी में
बुझ भी गयी।
चित्र साभार: https://wewanttolearn.wordpress.com