'उलूक' की 20/01/2014 की पोस्ट
पर दिगम्बर नसवा जी की
टिप्पणी
"बहुत खूब ...
बहते हुए शब्द कहीं दूर निकल गए पर अंत में फिर मुकाम पे ले आए आप उन्हें ..."
बहते हुए शब्द कहीं दूर निकल गए पर अंत में फिर मुकाम पे ले आए आप उन्हें ..."
पर निकले उदगार
भोगना और भोगे हुऐ को
शब्दों में जैसे का तैसा उतार देना
हो ही नहीं पाता है
लाख कोशिश करने के बाद भी
कहीं ना कहीं
थोड़ा सा ही सही भटका ही जाता है
मनस्थिति
समय के साथ समय के अनुसार
रूप बदलने में बहुत माहिर होती है
सच कहें तो बहुत ही शातिर होती है
अपनी ही होने से भी कुछ नहीं होता है
पता होता है हर एक को अपने बारे में
बहुत कुछ साफ साफ
अपना देखा अपना लिखा
अपना जैसा ही होता है
बात तो तब होती है
जब किसी और की समझ में
थोड़ा थोड़ा सा उसमें से
निथर कर आ जाता है
लिखने और पढ़ने की आदत
हर कोई तो डाल नहीं पाता है
बहुत सुखी होता है
जो ना लिखता है ना पढ़ता है
बस कुछ का कुछ करता चला जाता है
एक ही शब्द घूमता हुआ एक आईना हो जाता है
एक ही के लिये हर चक्कर के बाद
एक नया अर्थ ले आता है
बिरले होते हैं जिनके लिये
हर रास्ता एक पहचान हो जाता है
चलते चलते
कौन खो रहा है कहाँ
और कहाँ पहुँच कर
फिर से अपने को पा जाता है
सागर की गहराई को नाप लेना किसी चीज से
एक बड़ी बात हो जाने में नहीं आता है
बात तो तब होती है
जब पानी के रंग को देख कर कोई
पानी की कहानी घर बैठे बैठे सुना जाता है
पढ़ना फिर समझना किसी और के मन को
उसके लिखे शब्दों से
हर ऐसे वैसे को कहाँ आ पाता है
पर जो सीख लेता है करते करते लिखते पढ़ते
बिना काटे और चखे
कितना मीठा है एक फल
वही और वही बता पाता है
भटकना भी सँभलने का एक तरीका हो जाता है
अगर कोई प्यार से समझा ले जाता है ।