उलूक टाइम्स

रविवार, 8 दिसंबर 2013

जरूरी जो होता है कहीं जरूर लिखा होता है

क्या ये
जरूरी है

कि

कोई
महसूस करे

एक
शाम की
उदासी

और

पूछ ही ले

बात ही
बात में
शाम से

कि

वो इतनी
उदास क्यों है

क्या
ये भी
जरूरी है

कि

वो
अपने
हिस्से की

रोशनी
की बात

कभी

अपने
हिस्से के
अंधेरे से
कर ही ले

यूं ही

कहीं
किसी
एक खास
अंदाज से

शायद

ये भी
जरूरी नहीं

कर लेना

दिन की
धूप को
पकड़ कर
अपनी मुट्ठी में

और

बांट देना
टुकड़े टुकड़े

फिर
रात की
बिखरी

चाँदनी
को बुहारने
की कोशिश
में देखना

अपनी
खाली हथेली
में रखे हुऐ
चंद अंंधेरे
के निशान

और
खुद ही
देखना

करीने से
सजाने की
जद्दोजहद
में कहीं

फटे
कोने से
निकला हुआ

खुद की
जिंदगी
का एक
छोटा सा कोना

कहाँ
लिखा है

अपनी
प्रायिकताओं से

खुद
अपने आप
जूझना

और

अपने
हिसाब से
तय करना
अपनी जरूरते

होती रहे
शाम उदास

आज
की भी

और
कल
की भी

बहुत
कुछ
होता है

करने
और
सोचने
के लिये
बताया हुआ

खाली

इन
बेकार की
बातों को ही

क्यों है
रोज
का रोज
कहीं ना कहीं

इसी
तरह से
नोचना !