उलूक टाइम्स

शनिवार, 8 मार्च 2014

आचार संहिता है हमेशा नहीं रहती है कुछ दिन के लिये मायके आती है

आचार
संहिता

कुछ दिन
के लिये
ही सही

विकराल
रूप
दिखाती है

बहुत कुछ
कर लेती है
नहीं कहा
जा रहा है

पर
कुछ चीजों
के लिये जैसे

सुरसा
हो जाती है

डर वर
किसी को
होने लगता है
किसी चीज से

ऐसी बात
कहीं भी
ऊपर से

नजर कहीं
नहीं आती है
 


शहर के
मकानों
गलियों
पेड़ पौंधों
को कुछ
मोहलत

साँस लेने
की जरूर
मिल जाती है

कई
सालों से
लगातार
लटकते
आ रहे
चेहरों को

गाड़ी
भर भर कर

कहीं
फेंकने को
ले जाती हुई

दूर से
जब नजर
आने लग
जाती है

आदमी के
दिमाग में
लटके हुऐ
चेहरों और
पोस्टरों को

छूने
और पकड़ने
की
जुगत लगानी
उसे नहीं
आती है

बहुत
शाँति का
अहसास
'उलूक'
को होता है

हमेशा ही
ऐसी ही
कुछ बेवजह
हरकतों पर
किसी की

उसकी
बाँछे पता नहीं

क्यों
खिल जाती हैं

आने वाले
एक तूफान
का संदेश
जरूर देते हैं

शहर से
चेहरों के
पोस्टर
और झंडे

जब
धीरे धीरे
बेमौसम में
गायब होते हुऐ
नजर आते हैं

पटके गये
होते हैं
इसी तरह
कई बार के
तूफानो में

इस देश
के लोग

आदत हो
जाती है

कुछ नहीं
होने वाला
होता है

आँधियों
को भी
ये पता
होता है

जनता
ही जब

एक
चिकना
घड़ा हो
जाती है ।