उलूक टाइम्स

गुरुवार, 18 अगस्त 2016

मुर्दा पर्दे के पीछे सम्भाल कर जीना सामने वाले को पर्दे के सामने से समझाना होता है

मेहनताना
खेत खोदने का
अगर मिलता है

चुपचाप
जेब में
रख कर
आना होता है

किसने पूछना
होता है हिसाब 


घरवालों
के खुद ही
बंजर किये
खेत में
वैसे भी
कौन सा
विशिष्ठ
गुणवत्ता
के धान ने
उग कर
आना होता है

घास
खरपतवार
अपने आप
उग जाती है

रख रखाव
के झंझट
से भी
मुक्ति मिल
जाती है

छोड़ कर
खेत को

हिसाब किताब
की किताब को
साफ सुथरे
अक्षरों से
सजा कर
आना होता है

झाड़ झंकार
से बनने वाली
हरियाली को
भूल कर

इकतीस
मार्च तक
बिल्कुल
भी नहीं
खजबजाना
होता है

 सबसे
महत्वपूर्ण
जो होता है

वो खेत
छोड़ कर
और कहीं
जा कर

गैर जरूरी
कोई दीवार
सीढ़ी सड़क
का बनाना
होता है

पत्थर भी
उधर के लिये
खेत में से ही
उखाड़ कर
उठा कर
लाना होता है

चोखे
मेहनाताने
पर आयकर देकर

सम्मानित
नागरिक
हो जाने
का बिल्ला
सरकार
से लेते हुए

एक फोटो
अखबार में
छपवाने
के वास्ते

प्रसाद
और फूल
के साथ
दे कर
आना होता है

‘उलूक’
की बकवास
की भाषा में
कह लिया जाये

बिना किसी
लाग लपेट के

अगर सौ बातों
की एक बात

अपने अपने
बनाये गये
मुर्दों को

अपने अपने
पर्दों के पीछे
लपेट कर
सम्भालकर
आना होता है

फिर सामने
निकल कर
आपस में
मिलकर
सामने वालों को
मुस्कुराते हुऐ

जिंदगी क्या है

बहुत
प्यार से
समझाना
होता है ।


चित्र साभार: www.canstockphoto.com