किसी की मजबूरी होती है
अन्दर की बात लाकर
बाहर के अंधों को दिखाना
बहरों को सुनाना
और
बेजुबानों को
बात को बार बार कई बार
बोलने बतियाने के लिये
उकसाना
सबके बस में भी
नहीं होती है
झोले में कौए रख कर
रोज की कबूतर बाजी
हर कोई नहीं कर सकता है
भागते हुऐ शब्दों को
लंगोट पहना पहना कर
मैदान में दौड़ा ले जाना
कुछ कलाकार होते हैं
माहिर होते हैं
जानते हैं शब्दों को बाँध कर
उल्लू की भाँति
अंधेरे आकाश में
बिना लालटेन बांधे
उड़ा ले जाना
सुना है
कहीं किसी हकीम लुकमान ने
अपने बिना लिखे नुस्खे
में कहा है
अच्छा नहीं होता है
पत्थरों पर
कुछ भी लिख लिखा कर
सबूत दे जाना
सबूत दे जाना
देख सुन कर तो
कभी किसी दिन
समझ लिया कर
‘उलूक’
अन्दर की बात का
बाहर निकलते निकलते
हवा हवा में हवा होकर
हवा हो जाना।
चित्र साभार: www.clker.com