कल का
नहीं
खाया है
पता है
आज
फिर से
पकाया है
वो भी
पता है
कल भी
नहीं
खाना था
पता था
आज भी
नहीं
खाना है
पता है
कल भी
पकाया था
कच्चा था
पता था
पूरा पक
नहीं
पाया था
वो भी
पता था
किसी ने
कहाँ कुछ
बताया था
बताना ही
नहीं था
आज भी
पकाया है
पक नहीं
पाया है
कोई नहीं
खायेगा
जैसा था
रह जायेगा
सब को सब
पता होता है
कौन कब
कहाँ कितना
और क्यों
कहता है
सारा हिसाब
बहीखातों में
छोड़ कर
इधर भी
और
उधर भी
एक एक पाई
का सबके
पास होता है
ईश्वर और
कहीं भी
नहीं होता है
जो होता है
बस यहीं कहीं
आस पास
में होता है
दिखता है
मन्दिरों की
घन्टियाँ
बजाना
छोड़ कर
गले में
अपने ही
घन्टी
बाँध कर
यहीं पर
के किसी
एक के लिये
कोई
कितना
जार जार
सर
हिला हिला
कर रोता है
कल नहीं
पता था जिसे
उसे आज भी
पता नहीं होता है
‘उलूक’
इसलिये
कहीं भी
किसी डाल
पर नहीं
होता है
जो होते हैं
वो हर जगह
ही होते हैं
नहीं
होने वाले
नहीं हो पाने
के लिये
ही रोते हैं
पकता रहे
कुछ कुछ
जरूरी है
रसोई
के लिये
रसोईये
का काम
पकाना
और
पकाना
ही होता है
समझ में आने
के लिये नहीं
कहा होता है
जो लिखा
होता है
वो सब
समझ में
नहीं आया
होता है
इसीलिये
लिखा होता है
रोज पकाया
जाता है
कुछ ना कुछ
अधपकों के
बस में बस
इतना ही
तो होता है
जो पकाने
के बाद
भी पका
ही नहीं
होता है।
चित्र साभार: Encyclopedia Dramatica
नहीं
खाया है
पता है
आज
फिर से
पकाया है
वो भी
पता है
कल भी
नहीं
खाना था
पता था
आज भी
नहीं
खाना है
पता है
कल भी
पकाया था
कच्चा था
पता था
पूरा पक
नहीं
पाया था
वो भी
पता था
किसी ने
कहाँ कुछ
बताया था
बताना ही
नहीं था
आज भी
पकाया है
पक नहीं
पाया है
कोई नहीं
खायेगा
जैसा था
रह जायेगा
सब को सब
पता होता है
कौन कब
कहाँ कितना
और क्यों
कहता है
सारा हिसाब
बहीखातों में
छोड़ कर
इधर भी
और
उधर भी
एक एक पाई
का सबके
पास होता है
ईश्वर और
कहीं भी
नहीं होता है
जो होता है
बस यहीं कहीं
आस पास
में होता है
दिखता है
मन्दिरों की
घन्टियाँ
बजाना
छोड़ कर
गले में
अपने ही
घन्टी
बाँध कर
यहीं पर
के किसी
एक के लिये
कोई
कितना
जार जार
सर
हिला हिला
कर रोता है
कल नहीं
पता था जिसे
उसे आज भी
पता नहीं होता है
‘उलूक’
इसलिये
कहीं भी
किसी डाल
पर नहीं
होता है
जो होते हैं
वो हर जगह
ही होते हैं
नहीं
होने वाले
नहीं हो पाने
के लिये
ही रोते हैं
पकता रहे
कुछ कुछ
जरूरी है
रसोई
के लिये
रसोईये
का काम
पकाना
और
पकाना
ही होता है
समझ में आने
के लिये नहीं
कहा होता है
जो लिखा
होता है
वो सब
समझ में
नहीं आया
होता है
इसीलिये
लिखा होता है
रोज पकाया
जाता है
कुछ ना कुछ
अधपकों के
बस में बस
इतना ही
तो होता है
जो पकाने
के बाद
भी पका
ही नहीं
होता है।
चित्र साभार: Encyclopedia Dramatica