उलूक टाइम्स: कील
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गुरुवार, 4 दिसंबर 2014

बिना नोक की कील जैसा लिखा नहीं ठोका जा सकता सोच में कितना भी बड़ा हो हथौड़ा

 

हो गये होते होते
आठ पूरे और एक आधा सैकड़ा
कुछ नहीं किया जा सका
केकड़े में नहीं दिखा
चुल्लू भर का भी परिवर्तन

दुनियाँ बदल गई
यहाँ से वहाँ पहुँच गई
उसे कहाँ बदलना क्यों बदलना
किसके लिये बदलना

वो नहीं बदलेगा
जिसको रहना अच्छा लगता रहा हो
हमेशा से ही एक केकड़ा

खुद भी टेढ़ा मेढ़ा सोच भी टेढ़ी मेढ़ी
लिखा लिखाया कभी नहीं हो पाया
एक सवार खड़ा रहा पूँछ हिलाता हुआ 
सामने से हमेशा तैयार
एक उसकी खुद की लेखनी का लंगड़ा घोड़ा

रहा लकीर का फकीर 
उस लोटे के माँनिंद
पैंदी उड़ गई हो जिसकी
किसी ने मार कर कोड़ा उसे बहुत बेदर्दी से हो तोड़ा

बेपेंदी की सोच कुछ लोटों की लोट पोट

मवाद बनता रहा 
बड़ा होता चला गया
जैसे बिना हवा भरे ही एक पुराना छोटा सा फोड़ा

सजा कर लपेट कर
एक शनील के कपड़े में
बना कर गुलाब छिड़क कर इत्र

हवा में हवाई फायर कर
धमाके के साथ
एक नयी सोच की नयी कविता ने
ठुमके लगा ध्यान अपनी ओर इस तरह से मोड़ा

उधर का उधर रह गया इधर का इधर रह गया
जमाने ने 
मुँह काले किये हुऐ को ही ताजो तख्त नवाज कर छोड़ा

शुक्रिया जनाब यहाँ तक पहुँचने का

‘उलूक’ जानता है पर्दे के पीछे से झाँकना

जो शुरु किया था किसी जमाने में
किसी ने आज तक
उस सीखे सिखाये को
सिखाने के धंधे का
अभी भी बाँधा हुआ है 
अपने दीवान खाने पर
अकबर के गधे को उसकी पीठ पर लिखकर घोड़ा ।

चित्र साभार: http://www.fotosearch.com/