हो गये होते होते
आठ पूरे और एक आधा सैकड़ा
कुछ नहीं किया जा सका
केकड़े में नहीं दिखा
चुल्लू भर का भी परिवर्तन
दुनियाँ बदल गई
यहाँ से वहाँ पहुँच गई
उसे कहाँ बदलना क्यों बदलना
किसके लिये बदलना
वो नहीं बदलेगा
जिसको रहना अच्छा लगता रहा हो
हमेशा से ही एक केकड़ा
खुद भी टेढ़ा मेढ़ा सोच भी टेढ़ी मेढ़ी
लिखा लिखाया कभी नहीं हो पाया
एक सवार खड़ा रहा पूँछ हिलाता हुआ
सामने से हमेशा तैयार
एक उसकी खुद की लेखनी का लंगड़ा घोड़ा
रहा लकीर का फकीर
उस लोटे के माँनिंद
पैंदी उड़ गई हो जिसकी
किसी ने मार कर कोड़ा उसे बहुत बेदर्दी से हो तोड़ा
बेपेंदी की सोच कुछ लोटों की लोट पोट
मवाद बनता रहा
बड़ा होता चला गया
जैसे बिना हवा भरे ही एक पुराना छोटा सा फोड़ा
सजा कर लपेट कर
एक शनील के कपड़े में
बना कर गुलाब छिड़क कर इत्र
हवा में हवाई फायर कर
धमाके के साथ
एक नयी सोच की नयी कविता ने
ठुमके लगा ध्यान अपनी ओर इस तरह से मोड़ा
उधर का उधर रह गया इधर का इधर रह गया
जमाने ने
मुँह काले किये हुऐ को ही ताजो तख्त नवाज कर छोड़ा
शुक्रिया जनाब यहाँ तक पहुँचने का
‘उलूक’ जानता है पर्दे के पीछे से झाँकना
जो शुरु किया था किसी जमाने में
किसी ने आज तक
उस सीखे सिखाये को
सिखाने के धंधे का
अभी भी बाँधा हुआ है
अपने दीवान खाने पर
अकबर के गधे को उसकी पीठ पर लिखकर घोड़ा ।
चित्र साभार: http://www.fotosearch.com/