सावन निकल गया
कुछ नया नहीं हुआ
पहले भी सारा
हरा हरा ही नजर आया है
अब तो
हरा जो है
और भी हरा हरा हो गया है
किससे कहूँ किसको बताऊँ
हरा कोई नहीं देखता है
हरे की जरूरत भी किसी को नहीं है
ना ही जरूरत है सावन की
मेरे शहर में
जमाने गये बहुत से लोग हुऐ
हाय
उस समय सोचा भी नहीं
किसी ने बहुत जोर देकर
हरे को हरा ही कहा
एक दिन नहीं कई बार कहा
यहाँ तक कहा हरा
कि
सारे लोगों ने उसे पागल कह दिया
होते होते
सारा सब कुछ हरा हरा हो गया
एक नहीं दो नहीं पूरा शहर ही
पागलों का हो गया
ऐसा भी क्या हरा हुआ
हरा भरा शहर
बचपन से हरा होता हुआ
देखते देखते सब कुछ हरा हो गया
लोग हरे सोच हरी आत्मा हरी
और क्या बताऊँ
जो हरा नहीं भी था
वो सब कुछ हरा हो गया
इस सारे हरे के बीच में
जब ढूँढने की कोशिश की
सावन के बाद
सावन के बाद
बस
जो नहीं बचा था
जो नहीं बचा था
वो ‘उलूक’ का हरा था
हरा
नजर आया ही नहीं
हरे के बीच में
हरा ही खो गया ।
चित्र साभार: www.vectors4all.net