उलूक टाइम्स: ग्यारा सौ वीं
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शनिवार, 17 अक्टूबर 2015

सावन गुजरा इक्कीस इक्यावन ऐक सौ एक होते होते हो गये ग्यारा सौ हरा था सब कुछ हरा ही रहा

सावन निकल गया 
कुछ नया नहीं हुआ 

पहले भी सारा 
हरा हरा ही नजर आया है

अब तो
हरा जो है 
और भी हरा हरा हो गया है

किससे कहूँ किसको बताऊँ 
हरा कोई नहीं देखता है
हरे की जरूरत भी किसी को नहीं है 
ना ही जरूरत है सावन की 

मेरे शहर में 
जमाने गये बहुत से लोग हुऐ 
हाय 
उस समय सोचा भी नहीं 

किसी ने बहुत जोर देकर 
हरे को हरा ही कहा 
एक दिन नहीं कई बार कहा 
यहाँ तक कहा हरा 
कि 
सारे लोगों ने उसे पागल कह दिया 

होते होते 
सारा सब कुछ हरा हरा हो गया 
एक नहीं दो नहीं पूरा शहर ही 
पागलों का हो गया 

ऐसा भी क्या हरा हुआ 
हरा भरा शहर 
बचपन से हरा होता हुआ 
देखते देखते सब कुछ हरा हो गया 
लोग हरे सोच हरी आत्मा हरी 
और क्या बताऊँ 
जो हरा नहीं भी था 
वो सब कुछ हरा हो गया 

इस सारे हरे के बीच में 
जब ढूँढने की कोशिश की
सावन के बाद 

बस
जो नहीं बचा था 
वो ‘उलूक’ का हरा था

हरा
नजर आया ही नहीं 
हरे के बीच में 
हरा ही खो गया । 

चित्र साभार: www.vectors4all.net