उलूक टाइम्स: चाकू
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शुक्रवार, 20 जून 2014

आभार वीरू भाई आपके हौसला बढ़ाने के लिये और आज का मौजू आपकी बात पर ।



'उलूक टाइम्स' के 18-06-2014 के पन्ने की पोस्ट 

पर ब्लॉग
के ब्लॉगर 
की टिप्पणी 
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आभार आपकी टिप्पणियों का।
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सार्थक लेखन को पंख लग गए हैं आपके।"
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पर आभार व्यक्त करते हुऐ
                   

‌‌‌सब कुछ उड़ता है वहाँ 
उड़ाने वाले होते हैं जहाँ


लेखन को पँख
लग गये हैं जैसे
उसने कहा

क्या उड़ता हुआ
दिखा उसे बस
यही पता नहीं चला

लिखा हुआ भी
उड़ता है
उसकी भी उड़ाने
होती हैं सही है

लेकिन कौन सी
कलम किस तरह
कट कर बनी है

कैसे चाकू से
छिल कर उसकी
धार बही है

खून सफेद रँग
का कहीं गिरा
या फैला तो नहीं है

किसे सोचना है
किसे देखना है

मन से हाथों से
होते होते
कागज तक
उड़कर पहुँची है

छोटी सोच की
ऊड़ान है और
बहुत ऊँची है

किस जमीन में
कहाँ रगड़ने के
निशान
छोड़ बैठी है

उड़ता हुआ जब
किसी को किसी ने
नहीं देखा है

तो उड़ने की बात
कहाँ से लाकर
यूँ ही कह दी गई है

पँख कटते है जितना
उतना और ऊँचा
सोच उड़ान भरती है

पूरा नहीं तो नापने को
आकाश आधा ही
निकल पड़ती है

पँख पड़े रहते हैं
जमीन में कहीं
फड़फड़ाते हुऐ

किसे फुरसत होती है
सुनने की उनको
उनके अगल बगल
से भी आते जाते हुऐ

उड़ती हुई चीजें
और उड़ाने किसे
अच्छी नहीं लगती हैं

‘उलूक’ तारीफ
पैदल की होती हुई
क्या कहीं दिखती है

जल्लाद खूँन
गिराने वाले नहीं
सुखाने में माहिर
जो होते हैं

असली हकदार
आभार के बस
वही होते हैं

लिखने वाला हो
लेखनी हो या
लिखा हुआ हो

उड़ना उड़ाना हो
ऊँचाइ पर ले जा कर
गिरना गिराना हो

तूफान में कभी
दिखते नहीं
कहीं भी कभी भी
तूफान लाने का
जिसको अनुभव
कुछ पुराना हो

असली कलाकार
वो ही और बस
वो ही होते हैं

लिखने लिखाने वाले
तो बस यूँ ही कुछ भी
कहीं भी लिख रहे होते हैं

तेरी नजर में ही है
कुछ अलग बात
तेरे लिये तो उड़ने के
मायने ही अलग होते हैं ।