कपड़े सोच के उतार देने के बाद
दौड़ने वाले की सोच में
केवल और केवल यही होता होगा
अब इसके बाद कौन क्या कर लेगा
इससे ज्यादा सोच में उसके
होना भी नहीं होता होगा
कपड़े सोच के उतरे होते हैं कौन देखता है
ना सोच पाता है ऐसा भी जलवा
पहने हुऐ कपड़ों का होता होगा
कोशिश जारी रखता है उतारने की
किसी का भी कुछ भी
नहीं सोचता है
खुदा भी ऊपर से कुछ तो देखता होगा
लगा रह खींचने में कपड़े रूह के
अपने अपनों के भी
कोई शक नहीं करता होगा कि खींचता होगा
आदत पड़ गयी हो शराब पीने की जिसे
दिये के तेल की बोतल को देख कर
उसी पर रीझता होगा
आईना हो जाता है किसी के घर के हमाम का
किसी का लिखा लिखाया
क्या लिख दिया
शर्मा कर थोड़ा सा तो कभी सोचता होगा
कहने को कहता फिर रहा होता है इस सब के बाद
इक पढ़ा लिखा
इक पढ़ा लिखा
ये आदमी है या जानवर पता नहीं
फालतू में क्या ऊल जलूल
क्यों हर समय
कुछ ना कुछ लिखता दीखता होगा
कुछ ना कुछ लिखता दीखता होगा
पागलों की भीड़ में किसी
एक पागल के इशारे पर
कपड़े उतार देने का खेल जमाने से चल रहा होगा
कपड़े समझ में आना उतारना समझ में आना
खेल समझ मे आने का खेल समझाने से चल रहा होगा
किसी भी शरीफ को शराफत के अलावा
किसलिये क्यों देखना सुनना
अपनी अपनी आँखें सबकी
अपना अपना सब को अपने हिसाब का दीखता होगा
नंगे ‘उलूक’ के देखने को लिखा देख कर
कुछ भी कहो
टाई सूट पहन कर निकलते समय
आईने के सामने साहिब जरा सा तो चीखता होगा।
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