बकबक-ए-उलूक
समझ में
नहीं आता है
जब कभी
किसी बात पर
कुछ
कहने के लिये
कह दिया जाता है
ऐसे ही
किसी क्षण
एक
पहाड़
पहाड़
बना दिया गया
राई
का दाना
बहुत घबराता है
पता
ही नहीं
चल पाता है
ही नहीं
चल पाता है
भटकते भटकते
एक गाँव
कब और कैसे
शहरों
के बीच घुस के
घिर घिरा जाता है
कविता
कहानी की
बाराहखड़ी
से डरते हुऐ
किताबों के
पन्नों के
सपनों के बीच
खुद को
खुद ही
दबा ले जाता है
हकीकत
जान लेवा होती है
सब को
पता होती है
कोई
पचा लेता है
कोई
पचा दिया जाता है
समझना
आसान भी है
कठिन को
समझना
बहुत कठिन है
सरल को भी
लिखना
लिखाना भी
कभी
यूँ ही
उलझा
ले जाता है
ले जाता है
कैसे बताये
पूछने वाले को
बकवास
करने वाले से
जब सीधा सपाट
कुछ लिखने को
बोला जाता है
बस चार लाईन
लिखने की ही
आदत नहीं है
‘उलूक’ की
हर सीधे को
जलेबी जरूर
बना ले जाता है
पाँच लिंको के आनन्द के
पाँचवे साल में
कदम
रखने के अवसर पर
रखने के अवसर पर
पता नहीं क्यों
‘ठुमुक चलत राम चंद्र बाजत पैजनियाँ’
और
धीरे धीरे कदम
आगे बढ़ाता हुआ
छोटा सा नन्हा सा
‘राम’
याद आता है
राजा दशरथ
और
रानियों से भरे
रानियों से भरे
दरबार में
लोग मोहित हैं
लोग मोहित हैं
हर कोई
तालियाँ बजाता है
शुभकामनाएं
इसी तरह से
हर आने वाला
देता हुआ
देता हुआ
‘राम’
के साथ बढ़ते हुऐ
के साथ बढ़ते हुऐ
‘राम राज्य’
की ओर
की ओर
चलना चाहता है
पुन:
शुभकामनाएं
पाँच लिंको के आनन्द ।
शुभकामनाएं
पाँच लिंको के आनन्द ।