उलूक टाइम्स: शुभकामनाएं
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रविवार, 27 अक्टूबर 2019

शुभकामनाएं पर्व दीपावली पटाखे फुलझड़ी भी नहीं




कुछ
रोशनी
की
करनी हैं
बातें

और
कुछ भी
नहीं

दीवाली
अलग है
इस बार की

पहले
जैसे
अब नहीं

अंधेरा
अब
कहीं
होता
ही नहीं

जिक्र
करना
भी नहीं

उजाले
लिख दिये
जायें
बस

दीयों
की
जरूरत
ही नहीं

बोल
रोशनी हुऐ
लब दिये

तेल की
कुछ
कमी नहीं

सूरज
उतर आया
जमीं पर

मत
कह देना
नहीं नहीं

चाँद तारे
सभी पीछे
उसके

एक तेरा
कुछ
पता नहीं

आँख
बंद कर
अंधेरा
सोचने से

अब
कुछ होना नहीं

शुभकामनाएं
पर्व दीपावली

पटाखे
फुलझड़ी
भी नहीं

खाली जेब
सब
रोशनी से
लबालब भरी

‘उलूक’ 
हाँ हाँ
ही सही

नहीं नहीं

जरा
सा भी
ठीक नहीं।
चित्र साभार: http://www.clipartpanda.com

बुधवार, 3 जुलाई 2019

शुभकामनाएं पाँचवें वर्ष में कदम रखने के लिये पाँच लिंको के आनन्द


बकबक-ए-उलूक

समझ में 
नहीं आता है 

जब कभी 
किसी बात पर 

कुछ 
कहने के लिये 
कह दिया जाता है 

ऐसे ही 
किसी क्षण 

एक 
पहाड़ 
बना दिया गया 

राई 
का दाना 
बहुत घबराता है 




पता 
ही नहीं 
चल पाता है 
भटकते भटकते 

एक गाँव 
कब और कैसे 

शहरों 

के बीच घुस के 
घिर घिरा जाता है 

कविता 
कहानी की 
बाराहखड़ी 
से डरते हुऐ 

किताबों के 
पन्नों के 
सपनों के बीच 

खुद को 
खुद ही 
दबा ले जाता है 

हकीकत 
जान लेवा होती है 

सब को 
पता होती है 

कोई
पचा लेता है 

कोई
पचा दिया जाता है 

समझना 
आसान भी है 
कठिन को 

समझना 
बहुत कठिन है 
सरल को भी 

लिखना 
लिखाना भी 

कभी
यूँ ही 
उलझा
ले जाता है 

कैसे बताये 
पूछने वाले को 

बकवास 
करने वाले से 
जब सीधा सपाट 
कुछ लिखने को 
बोला जाता है 

बस चार लाईन 
लिखने की ही 
आदत नहीं है 
‘उलूक’ की 

हर सीधे को 
जलेबी जरूर 
बना ले जाता है 


पाँच लिंको के आनन्द के 

पाँचवे साल में 
कदम
रखने के अवसर पर 

पता नहीं क्यों 

‘ठुमुक चलत राम चंद्र बाजत पैजनियाँ’ 

और
धीरे धीरे कदम
आगे बढ़ाता हुआ 

छोटा सा नन्हा सा
 ‘राम’
याद आता है 

राजा दशरथ 
और
रानियों से भरे 
दरबार में

लोग मोहित हैं 

हर कोई 
तालियाँ बजाता है 

शुभकामनाएं 

इसी तरह से 

हर आने वाला
देता हुआ 

‘राम’
के साथ बढ़ते हुऐ 

‘राम राज्य’
 की ओर 
चलना चाहता है 

पुन:
शुभकामनाएं 

पाँच लिंको के आनन्द
 । 

गुरुवार, 25 जनवरी 2018

गणों को तंत्र के शुभकामनाएं आज के लिये कल से फिर लग लेना है सजाने अपनी अपनी दुकान को


कहाँ जरूरत है
किसे जरूरत है
पढ़ने याद करने
या समझने की
संविधान को



कुछ दिन होते हैं
बस करने को सलाम
दूर ऊपर देखते हुऐ
फहराते हुऐ तिरंगे को
और नीले आसमान को




किसने कह दिया
चलते रहिये
बने हुऐ
रास्तों पर पुराने
बना कर पंक्तियाँ
मिला कर कदम
बचा कर
अपने स्वाभिमान को


उतर कर तो देखिये
बाहर किनारे
से सड़क के लेकर
भीड़ एक बेतरतीब
चिल्लाते हुऐ कहीं
किसी बियाबान को

सभी कुछ सीखना
जरूरी नहीं है
लिखी लिखाई
किताबों से पढ़कर
एक ही बात को
रोज ही सुबह
और शाम को


दिख रही है
मौज में आयी हुई
तालीमें घर की
सड़क पर पत्थर
मारती हुई बच्चों
के मुकाम को



सम्भाल कर
रखे हुऐ है पता नहीं
कब से सोच में
तीन रंग झंडा एक
और कुछ दुआएं
अमनोचैन की
याद करते हुए
मुल्क-ए-राम को


लगा रहता है
‘उलूक’
समझने में
झंडे के बगल में
आ खड़े हुऐ
एक रंगी झंडे
की शखसियत
सत्तर मना लिये
कितने और भी
मनायेगा अभी
गणतंत्र दिवस
बढ़ाने को
गणों के
सम्मान को ।



चित्र साभार: https://www.canstockphoto.com

रविवार, 31 दिसंबर 2017

वर्ष पूरा हुआ एक और बनी रहे पालतू लोगों की फालतू होड़ कल आ रहा हूँ मैं अबे ओ कुर्सी छोड़

आईये
फिर से
शुरु हो जायें
गिनती करना
उम्मीदों की

उम्मीदें
किसकी कितनी
उम्मीदें कितनी
किससे उम्मीदें

हर बार
की तरह
फिर एक बार
मुड़ कर देखें


कितनी
पूरी हो गई

कितनी अधूरी
खुद ही रास्ते में
खुद से ही
उलझ कर
कहीं खो गई

आईये
फिर से उलझी
उम्मीदों को
उनके खुद के
जाल से
निकाल कर
एक बार
और सुलझायें

धो पोछ कर
साफ करें
धूप दिखायें

कुछ लोबान
का धुआँ
लगायें

कुछ फूल
कुछ पत्तियाँ
चढ़ायें

कुछ
गीत भजन
उम्मीदों के
फिर से
बेसुरे रागों
में अलापें
बेसुरे हो कर
सुर में
सुर मिलायें

आईये
फिर से
कमजोर
हो चुकी
उम्मीदों की
कमजोर
हड्डियों की
कुछ
पन्चगुण
कुछ
महानारयण
तेल से
मालिश
करवायें

आह्वान करें
आयुर्वेदाचार्यों का
पुराने अखाड़ों
को उखाड़ फेंक
नयी कुश्तियाँ
करवाने के
जुगाड़ लगवायें

आईये
हवा से हवा में
हवा मारने
की मिसाईलें
अपनी अपनी
कलमों में
लगवायें

करने दें
कुर्सीबाजों
को सत्यानाश
सभी का

खीज निकालें
खींस निपोरें
बेशरम हो जायें

करने वाले
करते रहें
मनमानी

कुछ ना
कर सकने का
शोक मनायें

बहुत
लिख लिया
‘उलूक’
पिछ्ले साल
अगले साल
के लिये
बकवासों की
फिर से
बिसात बिछायें

इकतीस
दिसम्बर
को लुढ़कें
होश गवायें

एक
साल बाद
उठ कर
कान
पकड़ कर
माफी माँग
फिर से
शुरु हो जायें।

(श्वेता जी के अनुरोध पर 2018 की शुभकामनाओं के साथ) :

चित्र साभार: http://tvtropes.org

सोमवार, 2 अक्टूबर 2017

प्रेषित जन्मदिन शुभकामनाओं के लिये आभार, आभासी परिवार, शब्द ढूँढना मुश्किल हो जाता है

कहीं भी
नहीं
होने का
अहसास
भी होता है

जर्रे जर्रे
में होने का
भ्रम भी
हो जाता है

अपने अपने
पन्नों की
दुनियाँ में

अपना अपना
कहा जाता है

पन्नों के ढेर
लग जाते हैं

किताब
हो जाना
नहीं
हो पाता है

ढूँढने की
कोशिश में
एक छोर

दूसरा
हाथ से
फिसल
जाता है

ऐसी
आभासी
दुनियाँ के
आभासों में
तैरते उतराते

एक पूरा साल
निकल जाता है

आभासी होना
हमेशा नहीं
अखरता है

किसी दिन
नहीं होने में
ही होने का
मतलब भी
यही
समझाता है

आभार
आभासी
दुनियाँ

आभार
कारवाँ

आभार
मित्रमण्डली

एक
छोटा सा
जन्मदिन
शुभकामना सन्देश

स्नेह
शुभाशीष
शुभकामनाओं का

एक ही
दिन में
कितने कितने
अहसास
करा जाता है

आल्हादित
होता होता
अपने होने
के एहसास
से ही ‘उलूक’

स्नेह की
बौछारों से
सरोबार
हो जाता है।

 चित्र साभार: My Home Reference ecards

शुक्रवार, 14 अगस्त 2015

आजाद देश के आजादी के आदी हो चुके आजाद लोगों को एक बार पुन: आजादी की ढेर सारी शुभकामनाएं

एक
आजाद देश के
आजादी के
आदी
हो चुके
आजाद
लोगों को

एक बार
पुन:
आजादी की
ढेर सारी
शुभकामनाएं

सुबह उठें
तिरंगा
जरूर लहरायें
तालियाँ
उसके
बाद ही बजायें

जन गण मन
साथ में गायें
मिठाइयाँ बटवाऐं
कुछ भाषण
खुद फोड़े
कुछ इनसे
और
कुछ उनसे
फुड़वायें

देश प्रेम से
भरे भरे
पाँव से
सिर तक
ही नहीं
उसके
ऊपर ऊपर
कहीं तक
भर भर जायें

इतना भरें
शुद्ध पारदर्शी
स्वच्छ गँगाजल
की तरह
छलछ्ल कर
छलछलाते हुऐ दूर
बहुत दूर से भी
साफ साफ
नजर आयें

दूरदर्शन
आकाशवाणी
से उदघोषणा
करवायें

समाचार
लिख लिखा
कर ढेर सारी
प्रतियों में
फोटो कापी
करवायें

माला डाले
सुशील संभ्रांत
किसी ना किसी
व्यक्ति का फोटो
रंगीन खिंचवायें

एक दो नहीं
घर शहर देश
प्रदेश के
सभी अखबार
में छपवाने
के लिये
घर के खबरी
को दौड़ायें

दिन निकले
इसी तरह
खुशी खुशी
शामे दावत
की तैयारी में
जुट जायें

आजादी के
होकर गुलाम
फिर वही सब
रोज का करने को
वही सब काम

एक गीता
बगल में दबा कर
शुरु वहीं से
जहाँ रुके थे
फिर से शुरु हो जायें

एक
आजाद देश के
आजादी के
आदी हो चुके
आजाद लोगों को
एक बार पुन:
आजादी की
ढेर सारी
शुभकामनाएं।

चित्र साभार: happyfreepictures.com

सोमवार, 17 मार्च 2014

होली हो ली तशरीफ ले जायें

मौगैम्बो
सुबह सुबह
जब नींद से उठा
बहुत खुश हुआ

उसे जैसे ही
पता चला होली का

होली आज हो रही है
छपा हुआ दिखा
अखबार में
मुख्यपृष्ठ के ऊपर के
दायें कौने में छोटा सा

"होली की शुभकामनाएं"

जैसे कह रहा हो
रोज ही होती है
आज भी होगी
तैयार हो जायें

हो ली कह जाये
कोई इससे पहले
जुट जायें

पुराने ट्रंक
को खुलवाये
कई सालो से
हर साल पहने
जा रहे होली के
कपडों को आज
एक बार फिर से
बाहर निकलवायें

धूल को झा‌ड़ लें
कहीं उधड़ा हुआ
दिखे कोई कौना
उसे सुई और धागा
सफेद ना भी मिले
सब चलता है
मानकर सुधार लें

इस्त्री करने की
जरूरत नहीं होती है
तुरंत पहने और
सिर पर टोपी
पाँव में चप्पल
एक टूटी डाल लें

कुछ लाल नीले
हरे पाउडर को
फटी हुई दहिनी
जेब में पालिथिन
की पुड़िया में
सम्भाल लें

कुछ मुँह में
ऐसा रंग लगाये
चेहरे के ऊपर ही
एक चेहरा बन जाये
कोई भी मिले उसे
देख कर जबरदस्ती
ही सही मुस्कुरायें

"होली की बहुत
बहुत बधाई"
बड़बड़ायें

दो चार घंटे सुबह के
किसी तरह काट ले
फिर चैन की साँस लें

पानी गरम करवायें
साबुन से रंग छुड़ाये

होली हो ली सोच कर
होली के कपड़ों
को धुलवायें

धूप में सुखा कर
फिर से पुराने ट्रंक
में डाल आयें

निपट गयी होली
मान कर
आराम फरमायें ।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

आजादी भी खुद चाहती है अब आजादी

सभी भारतीयों को
स्वतंत्रता दिवस की
बहुत बहुत शुभकामनाएं
लो आ गया फिर आज
वो मुबारक दिन
पूर्ण हुई थी जब कभी
मेरे देश के नागरिकों
की सारी मनोकामनाएं
आजादी मिली थी
आज ही के दिन
ऎसा कुछ कभी
पढ़ाया गया था
बताया गया था
बुजुर्गों द्वारा अपनी
कहानियों में कभी 
सुनाया गया था
आजाद हो गये हैं
सब लोक भी
और तंत्र भी
ऎसा कुछ कभी
समझाया गया था
और
ये बात तो सच है
महसूस भी होती है
दिल को अंदर तक
कहीं छू भी लेती है
आजादी अब कहीं
भी रुकती नहीं
होता नहीं कोई
घर्षण  अब कहीं
स्वत: स्फूर्त होती है
बाहर से नहीं
दिल के अंदर
से होती है
अब आजादी
जीवित ही नहीं
बेजान में तक
जीती हुई सी
मिलती है
जब आजादी
हुऎ
हम सब
आजाद ऎसे
टूटती रही सारी
सीमाऎं जैसे
धीरे धीरे कुछ
यूँ ही सभी
कसमसाती ही रही
तब ये आजादी
चाहने लगी अपने
ही खुद के लिये
भी कुछ आजादी
अब दिख रही है
हर तरफ हर चीज
खुद से आजाद ऎसे
कुछ कहती नहीं बस
मौन सी हो
गई है आजादी
हम हो चुके हैं
तोड़ कर सारी हदें
इतना आजाद
कि अब रहना
भी नहीं चाहती
साथ में ये
ही आजादी
सब को मुबारक
आज का दिन
अभी तक तो
कह ही रही है
ये ही आजादी
कल जो करे
वो सो करे
पर आज तो
मजबूर सी क्यों
लग रही है आजादी
क्या उम्र ज्यादा
होने से बूढ़ी तो
नहीं हो गई
है ये आजादी ।