ऎसे ही
बैठे बैठे
कोई
कुछ नहीं
कह देता है
ऎसे ही
बिना सोचे
कोई
कुछ भी
कहीं भी
लिख नहीं
देता है
बांंधने
पढ़ते हैं
अंदर
उबलते हुवे
लावों से
भरे हुऎ
ज्वालामुखी
बहुत कुछ
ऎसा भी
होता है जो
सबके सामने
कहने जैसा ही
नहीं होता है
कहीं नहीं
मिलते हैं
खोजने
पड़ते हैं
मिलते जुलते
कुछ
ऎसे शब्द
खींच सकें
जो उन गन्दी
लकीरों को
शराफत से
पहना कर
कुछ
ऎसे कपडे़
जिस के
आर पार
सब कुछ
साफ साफ
दिख रहा
होता है
पर ये सब
कर ले जाना
इतना
आसान भी
नहीं होता है
शब्द खुद
ही उतारते
चले जाते हैं
शब्दों के कपडे़
शब्द
मौन होकर
ऎसे में कुछ नहीं
कह रहा होता है
चित्र
जीवित होता है
वर्णन करना
उस जीवंतता का
लिखने वाले को ही
जैसे नंगा
कर रहा होता है
क्या किया जाये
लिखने वाले
की मजबूरी को
कोई कहाँ
समझ रहा होता है
अंदर ही अंदर
दम तोड़ते
शब्दों पर
शब्द ही जब
तलवार खींच
रहा होता है
शब्दों के
फटने की
आहट से ही
लिखने वाला
बार बार चौंक
रहा होता है
इसी अंतरद्वंद से
जब रचना का जन्म
हो रहा होता है
सच
किसी कोने में
बैठ कर
रो रहा होता है
जो निकल के
आ जाता है
एक पन्ने में
वो कुछ कुछ
जरूर होता है
पर एक पूरा
सच होने से
मुकर रहा
होता है ।
बैठे बैठे
कोई
कुछ नहीं
कह देता है
ऎसे ही
बिना सोचे
कोई
कुछ भी
कहीं भी
लिख नहीं
देता है
बांंधने
पढ़ते हैं
अंदर
उबलते हुवे
लावों से
भरे हुऎ
ज्वालामुखी
बहुत कुछ
ऎसा भी
होता है जो
सबके सामने
कहने जैसा ही
नहीं होता है
कहीं नहीं
मिलते हैं
खोजने
पड़ते हैं
मिलते जुलते
कुछ
ऎसे शब्द
खींच सकें
जो उन गन्दी
लकीरों को
शराफत से
पहना कर
कुछ
ऎसे कपडे़
जिस के
आर पार
सब कुछ
साफ साफ
दिख रहा
होता है
पर ये सब
कर ले जाना
इतना
आसान भी
नहीं होता है
शब्द खुद
ही उतारते
चले जाते हैं
शब्दों के कपडे़
शब्द
मौन होकर
ऎसे में कुछ नहीं
कह रहा होता है
चित्र
जीवित होता है
वर्णन करना
उस जीवंतता का
लिखने वाले को ही
जैसे नंगा
कर रहा होता है
क्या किया जाये
लिखने वाले
की मजबूरी को
कोई कहाँ
समझ रहा होता है
अंदर ही अंदर
दम तोड़ते
शब्दों पर
शब्द ही जब
तलवार खींच
रहा होता है
शब्दों के
फटने की
आहट से ही
लिखने वाला
बार बार चौंक
रहा होता है
इसी अंतरद्वंद से
जब रचना का जन्म
हो रहा होता है
सच
किसी कोने में
बैठ कर
रो रहा होता है
जो निकल के
आ जाता है
एक पन्ने में
वो कुछ कुछ
जरूर होता है
पर एक पूरा
सच होने से
मुकर रहा
होता है ।