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मंगलवार, 10 दिसंबर 2024

लिख ले लिखता चल जमीर को मार दे

 


शब्द चार उधार ले जिंदगी सुधार दे
आसमां उतार ले जमीं जमीं निथार दे

कदम उठा ताल दे कहने दे बबाल दे
किसने किस को देखना आईना उबाल  दे

अपना अपना देख ना उसका उस का देखना
देखने से भर गया लिबास अब उतार दे

इसे दिखा उसे दिखा सब दिखा प्रचार दे
झूठ पकड़ प्यार दे सच जकड़ सुधार दे

इधर मिला उधर मिला मिल मिला व्यापार दे
जहर मिला जहर पिला पिला पिला मार दे

‘उलूक’ तहजीब सीख और हिसाब दे
लिख ले लिखता चल जमीर को मार दे


चित्र साभार: https://www.dreamstime.com/
 

शनिवार, 4 मई 2024

‘उलूक’ लगा रहेगा आदतन बकवास करने यहाँ गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे

 
माहौल पर नहीं लिखेंगे कुछ भी
कुछ इधर की लिखेंगे कुछ उधर की लिखेंगे
वो कुछ अपनी लिखेंगे हम कुछ अपनी लिखेंगे
लिखेंगे और रोज कुछ लिखेंगे

धूप बहुत तेज है हो लू से मरे आदमी मरे
हम पेड़ पर लिखेंगे उसकी छाँव पर लिखेंगे
आंधी से उड़ गयी हो छतें गरीबों की रहने दें
हम ठंडी हवा लिखेंगे और गाँव लिखेंगे

कोई झूठ बोले बोलता रहे हम सच पर लिखेंगे
सच की वकालत पर लिखेंगे हम पड़ताल  लिखेंगे
मर रहे हैं लोग बीमारियों से मरें और मरते रहें
हम लिखे में अपने सारे हस्पताल लिखेंगे

तीन बंदरों की नयी बात लिखेंगे
गांधी और नेहरू को पडी लात की सौगात लिखेंगे
तीन बंदरों को   खुद ही सुधार लेने को
उनकी औकात लिखेंगे उनकी जात लिखेंगे

लिखेंगे दिखेंगे पढेंगे
दो चार पांच को ले जाकर रोज सुबह
बेरोकटोक सूबेदार लिखेंगे
‘उलूक’ लगा रहेगा आदतन बकवास करने यहाँ
गोदी पर बैठे उधर सारे यार लिखेंगे
चित्र साभार: https://www.shutterstock.com/

रविवार, 31 मार्च 2024

ईश्वर है है ईश्वर मंदिर मूरत छोड़ कर आज वो एक नश्वर हो गया है


सारी किताबें खुली हुई हैं
स्वयं बताएं खुद अपना पन्ने को पन्ने
शक्कर देख रही कहीं दूर से
लड़ते सूखे सारे गन्नों से गन्ने

सच है सारा पसर गया है
झूठ बेचारा यतीम हो गया है
बता गया है बगल गली का
एक लंबा लंबा सा नन्हे

चश्मा लाठी धोती पीटे सर अपना ही
एक चलन हो गया है
बुड्ढा सैंतालिस से पहले का एक
आज बदचलन हो गया है

बन्दर सारे ही सब खोल कर बैठे हैं
अपना सारा ही सब कुछ
आँख नहीं है कान नहीं है
मुंह पर भी अब कपड़ा भींचे सारे बन्ने

आँखे दो दो ही सबकी आँखें
कौआ ना अब वो कबूतर हो गया है
मत लिख मत कह अपनी कुछ
उससे पूछ जो तर बतर हो गया है

ईश्वर है है ईश्वर मंदिर मूरत छोड़ कर
आज वो एक नश्वर हो गया है
नश्वर है ईश्वर ईश्वर है नश्वर ‘उलूक’
कर कोशिश लग ले ईश्वर कुछ जनने


चित्र साभार: https://pngtree.com/


 

गुरुवार, 28 दिसंबर 2023

बातें करिए बातें बोइये बातें खेलिए करना किसी को नहीं है कुछ कहीं

कोशिश करते रहिये
कहने की सच
बात अलग है
कहने भर से ही बस काम नहीं हो जाएगा
जो कहा गया है उसको
किसी हजूर के तराजू में तोला भी जाएगा
बांट लिखने वाले के होंगे भी नहीं
कोर्ट कचहरी की अंधी मूर्ती से भी
काम नहीं चल पायेगा
आप से बस
हमेशा जोर लगा कर पूछा जाएगा
आप क्या सोच रहे हो
आपकी सोच को
इस तरह
सार्वजनिक किया जाएगा
सब शामिल हैं
इस खेल में घर से लेकर मैदान तक
बल्ला आपको दिए बिना
आपसे क्रिकेट खेलने को कहा जाएगा
बातें करिए बातों मैं कहीं भी आपको
आयकर लगा नजर नहीं आयेगा
जो जितना लंबा फेंकेगा
सोने का मैडल उसी के हाथ नजर आयेगा
प्रतिस्पर्धा कहीं है ही नहीं
मुकाबला करने आने वाले की
मुट्ठी गरम कर उसे
गीता का ज्ञान दिया जाएगा
एक ही चेहरे के साथ जीने वाले को
नरक ज्ञान की आभासी दुनियाँ
से भटका कर स्वर्गलोक में
होने का आभास
बातों से ही दे दिया जाएगा
बातें करिए बातें बोइये बातें खेलिए
करना किसी को नहीं है कुछ कहीं
‘उलूक’ तू खुद सोच ले
अपने दिन का सपना
तेरा रात का बकबकाना ही कहीं
तेरा फांसी का फंदा
तेरे लिए तो नहीं एक बन जाएगा ?

चित्र साभार : https://navbharattimes.indiatimes.com/

मंगलवार, 14 जून 2022

फिर से एक आधी बकवास पूरे महीने के आधे में ही सही कुछ तो खाँस

 




शर्म एक शब्द ही तो है
मतलब उसका भी है कुछ तब भी

और आधा सच होने मे कोई शर्म नहीं होनी चाहिये
होती भी नहीं है

पूर्णता किसे मिलती है?
 हाँ फख्र दिखता है आधे सच का
जिस पर मिलती हैं शाबाशियाँ
और पीटी जाती हैं तालियाँ

पूरा सच सिक्के के एक तरफ होता भी कहां है
हेड या टैल
दोनो और आधा आधा सच
सिक्का खड़ा भी हो जाये
तब भी दिखेगा एक तरफ का आधा सच ही

और आधे सच का खिलाड़ी
सबसे गजब का खिलाड़ी जो कभी गोल नहीं करता है
क्यों की गोल होने से खेल का परिणाम सामने से होता है
और खेल विराम लेता है

पूर्णता के साथ फिलम खतम करना कोई नहीं चाहता है
आधे भरे गिलास में भरी शराब पानी का करती इंतजार
सबसे बड़ा सपना होता है एक शराबी के लिये
शराबी को नशा होता है वो भी आधा
सुबह होती है यानि कि आधा दिन
और सपना टूट जाता है

जो हम करते हैं
उसे छोड़ कर सब कह देना
लेकिन कभी पूरा नहीं बस आधा आधा छोड़ देना
क्योंकि आधा ही पूर्ण है
पूर्ण मे‌ खुल जाता पूरा झोल है

‘उलूक’ बखिया उधेड़ लेकिन पूरी नहीं
पूरी उधड़ने से खिसक सकती है ढकी हुई झूठ कि पुतली
इसलिये आधा देख आधा फेँक आधा सेक
और मौज में काट ले जिंदगी

वैसे भी कौन सा मरना भी पूरा होता है
कहते हैं फिर जनम होता है
बाकी आधे का हिसाब किताब देने के लिये।


चित्र साभार: https://clipart.me/

शनिवार, 6 नवंबर 2021

रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

 


सब कुछ समेटने के चक्कर में बहुत कुछ बिखर जाता है
जमीन पर बिखरी धूल थोड़ी सी उड़ाता है खुश हो जाता है

आईने पर चढ़ी धूल हटती है कुछ चेहरा साफ नजर आता है
खुशफहमियाँ बनी रहती हैं समय आता है और चला जाता है

दिये की लौ और पतंगे का प्रेम पराकाष्ठाओं में गिना जाता है
दीये जलते हैं पतंगा मरता है बस मातम नजर नहीं आता है

झूठ एक बड़ा सा हसीन सच में गिन लिया जाता है
लबारों की भीड़ के खिलखिलाने से भ्रम हो जाता है

पर्दे में रखकर खुराफातें अपनी एक होशियार खुद कभी आग नहीं लगवाता है
रोम से क्या मतलब नीरो को अब वो अपनी बाँसुरी भी किसी और से बजवाता है

कोई कुछ कर ले जाता है
कोई कुछ नहीं कर पाता है तो कुछ लिखने को चला आता है
कुछ समझ ले कुछ समझा ले खुद को ही ‘उलूक’
हर बात को किसलिये यहां रोने चला आता है ।

चित्र साभार: https://www.gograph.com/

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2020

उलूक पागल है है कब नहीं माना फिर भी किसलिये पागल सिद्ध करने के लिये पागल सरदार का हर पागल अपने खोल से बाहर निकल निकल कर आ रहा है


वैसे भी

कौन
लिख पाता है
पूरा सच

कोशिश

सच की ओर
कुछ कदम
लिखने की होती है

कोशिश जारी
रहती है
जारी रहनी चाहिये

आप लिख रहे हैं
लिखते रहें

आपके लिखने
ना 

लिखने से
किसी को
कोई फर्क
नहीं पड़ता है

हाँ
ज्यादा
मुखर होने से
कुछ समय बाद

आपको महसूस
होने लगता है
सच आप पर ही
भारी पड़ रहा है

आप कौन है

होंगे कोई

आपके गले में

कोई पट्टा
अगर
नहीं दिख रहा है

पट्टे डाले हुऐ

गली के
इस कोने से
लेकर उस कोने
तक

दिखेगा

आपसे
कुत्तों की तरह
निपट रहा है

इन्सान मत ढूँढिये
अब कहीं

ढूँढिये
कोई हिंदू
कोई मुसलमान

अगर आप को
किसी भी कोने से
दिख रहा है

खुद कुछ भी
नहीं सोचना है

ध्यान से सुनें

खुद
 कुछ भी नहीं
सोचना है

सियार की तरह
आवाज करने की
कोशिश में

कुत्ते के गले से
निकलती हुई
आवाज

हुआ हुआ
की ओर
ध्यान लगा कर

कोई आसन
कोई योग
सोचना है

घर छोड़ चुके हैं
लोग

ना जाने क्यों

घर में रहकर
भी
लग रहा है

उन्हें
क्या करना है

किसलिये
देखनी  है

मोहल्ले की गली

अरे हमें तो
देश के लिये
बहुत ही आगे

कहीं और
निकलना है

क्या करे

पागल ‘उलूक’

उस के लिखते ही

हर गली का पागल

उसे पागल
सिद्ध
करने के लिये

अपने पागल
सरदार की
टोपी 


हाथ में
लहराता हुआ 

सा
निकल रहा है।

चित्र साभार:
https://graphicriver.net/item/psycho-owl-cartoon/11613131

गुरुवार, 28 नवंबर 2019

ध्यान ना दें मेरी अपनी समस्यायें मेरा अपना बकना मेरा कूड़ा मेरा आचार विचार



हैं
दो चार

वो भी

कोई इधर

कोई उधर

कोई
कहीं दूर

कोई

कहीं
उस पार


सोचते हुऐ

होने की

आर पार

लिये
हाथ में

लिखने
का
कुछ

सोच कर
एक
हथियार


जैसे

हवा
को
काटती हुई
जंक लगी
सदियों पुरानी

शिवाजी

या
उसी तरह के
किसी
जाँबाज की

एक

तलवार

सभी
की
सोच में

तस्वीर

सूरज

और

रोशनी
 उसकी

शरमाती

हुई सी
नयी नवेली सी
नहीं

बल्कि
झाँसी की रानी
की सी

तीखी


करने

 वाली
हर मार पर
पलट वार

देखते
जानते हुऐ

अपने आस पास

अन्धेरे में

अन्धेरा
बेचने वाले

सौदागरों
की सेना


और

उसके
सरदार

खींचते हुऐ

लटकते हुऐ
सूरज पर

ठान कर


ना होने देंगे
उजाला

बरबाद
कर देंगे


लालटेन
की भी
सोच रखने वाले

कीड़े

दो चार
कुछ उदार

किसे
समझायें

किसे बतायें

किसने सुननी है

नंगे
घोषित कर दिये गये हों
शरीफों के द्वारा

जब हर गली

शहर पर
एक नहीं कई हजार

डिग्रियाँ
लेने के लिये
लगे हुऐ बच्चे

कोमल
पढ़े लिखे

कहलायेंगे
होनहार


उस से
पहले


खतना

कर दिये
जाने की


उनकी
सोच से

बेखबर

तितलियाँ

बना कर
उड़ाने का है

कई
शरीफों का

कारोबार

पहचान
किस की
क्या है


सब को पता है


बहुत कुछ


हिम्मत
नहीं है

कहने की

सच


मगर
बेच रहा है
दुकानदार भी

सुबह का अखबार


‘उलूक’

हैं
कई बेवकूफ
मेंढक

कूदते
रहते हैं

तेरी तरह के

अपने अपने

कूओं में

तुझे
क्या करना है
उनसे

तू कूद
अपनी लम्बाई
चार फिट की

अपनी

सोच के
हिसाब से


किसे पड़ी है
आज

अगर
बन जाता है

एक
कुआँ

मेढकों का स्वर्ग


और
स्वर्गवासी
हो लेने के अवसर
तलाशते दिखें

हर तरफ

मेंढक हजार।


चित्र साभार: https://www.gettyimages.in/

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

सागर किनारे लहरें देखते प्लास्टिक बैग लेकर बोतलें इक्ट्ठा करते कूड़ा बीनते लोग भी कवि हो जाते हैं


ना
कहना
आसान होता है

ना
निगलना
आसान होता है

सच
कहने वाले
के
मुँह
पर राम

और

सीने पर
गोलियों का
निशान होता है

सच
कहने वाला
गालियाँ खाता है

निशान
बनाने वाले का

बड़ा
नाम होता है

‘उलूक’
यूँ ही नहीं
कहता है

अपने
कहे हुऐ
को
एक बकवास

उसे
पता है

कविता
कहने
और
करने वाला
कोई एक
 खास होता है

अभी
दिखी है
कविता

अभी
दिखा है
एक कवि

 कूड़ा
समुन्दर
के पास
बीन लेने
वाले को

सब कुछ
सारा
माफ होता है

बड़े
आदमी के
शब्द

नदी
हो जाते हैं

उसके
कहने
से ही
सागर में
मिल जाते हैं

बेचारा
प्लास्टिक
हाथ में
इक्ट्ठा
किया हुआ
रोता
रह जाता है

बनाने
वालों के
अरमान

फेक्ट्रियों
के दरवाजों
में
खो जाते हैं

बकवास
बकवास
होती है

कविता
कविता होती है

कवि
बकवास
नहीं करता है

एक
बकवास
करने वाला

कवि
हो जाता है ।


चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

सोमवार, 9 सितंबर 2019

गंदा लिख भी गया अगर माना साबुन लगा कर क्या धो नहीं सकता है

लिखी
लिखायी
बकवास को

लिखने के
बाद ही सही

थोड़ा सा
नीरमा लेकर
क्या
धो नहीं सकता है

लिखे को
धोने में
परेशानी है अगर

सोच को ही
धो लेने का
कोई इन्तजाम

क्या
लिखने से पहले
हो नहीं सकता है

दिखता है

देखने
वाले के
देखने से

थोड़ा सा
कुछ लिखने
की कोशिश में

असली बात
इस तरह से
हमेशा ही कोई
खो नहीं सकता है

सालों
लिखते
हो गये
थोड़ा सच
और
थोड़ा झूठ

अब
यहाँ तक
पहुँच कर

एक
पूरा सच
और
एक
पूरा झूठ

सामने
रख दे
सीधे सीधे
हँसते हँसाते

थोड़ी
देर के लिये
झूठा ही सही

क्या
रो नहीं सकता है

‘उलूक’
सीखता
क्यों नहीं कुछ

कभी
पढ़कर भी कुछ

कुछ भी
लिखता
लिखाता
सही गलत
ही सही

होने
का क्या है
ठान ले
अगर कोई

क्या कुछ
हो नहीं सकता है।

 चित्र साभार: https://www.teepublic.com

शनिवार, 17 अगस्त 2019

झूठ लिखने का नशा बहुत जियादा कमीना है उस के नशे से निकले तो सही कोई तब जाकर तो कोई कहीं एक सच लिखेगा



आखिर
कितना

और

कब तक

इतना

एक
चेहरा


बदसूरत 
सा 
लिखेगा

बहुत सुन्दर

लिखने
का
रिवाज है

लिखे
लिखाये
पर
यहाँ

लिख देने का

कोई
अगर
लिख भी देगा

तो भी
वैसा ही
तो

और
वही कुछ
तो
लिखेगा

लिखे
को
लिखे के
ऊपर रखकर

कब तक

नापने
का
सिलसिला
रखेगा

लिखने
के
पैमाने

कुछ
के पास हैं

नापने
के
पैमाने

नापने
वाला ही
तो

अपने
पास रखेगा

लिखने
का
मिलता है

कुछ
किसी को

किसी
को
लिखे को

फैलाने
का
मिलता है

कुछ

हर
किसी की
आँख

अपनी तरह
से
देखेगी

दूरबीन
तारे देखने
की हो

तो
कैसे

चाँद
उसमें
किसी को

साथ में

कैसे
और क्यों
कर के
दिखेगा

कुछ नहीं
लिखने वालों
की
सोच

अच्छी बनी
रहती है
हमेशा

जो
लिखेगा
उसके लिखे
 पर ही
तो
उसका चेहरा

पूरा
ना सही

थोड़ा सा
तो
कहीं

किसी
कोने में से
कम से कम

झाँकता
सा
तो
दिखेगा

सालों
निकल जाते हैं

सोचने में

सच
अपना
‘उलूक’

सच में

किसी दिन

एक सच

कोई

कहीं
तो

लिखेगा

झूठ
लिखने
का
नशा

बहुत
जियादा
कमीना है

उस के
नशे से

निकले
तो
सही
कोई

तब
जाकर
तो
कोई

एक

झूठा सा
सही

सच

कहीं और
किसी
जगह

जा
कर के
तो
लिखेगा।

चित्र साभार: http://clipart-library.com

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

सच की जरूरत है भी नहीं वैसे भी वो अब कहीं भी दूर दूर तक नजर भी नहीं आता है


एक भी
नहीं
छिपता है
ना
मुँह छिपाता है

सामने से
आकर
गर्व के साथ
खड़ा
हो कर
मुस्कुराता है

मुखौटा
लगाने की
जरूरत भी
नहीं समझता है

पकड़ा
गया होता है
फिर भी
नहीं
घबराता है

सफेद
कागज के ऊपर
इफरात से
फैला हुआ
काला
बहुत कुछ

कितनी कितनी
कहानियाँ
बना बना कर

तालियाँ
बटोरता हुआ

इधर से उधर
यूँ ही
मौज में
आता है
और
चला जाता है

किसे
समझाये
और
कैसे
समझाये कोई
उस बात को

जिसे
एक
नासमझ

नहीं
समझने
के कारण ही
लिख लिखा कर यहाँ

जैसे
पूछने
चला आता है

किसी का
दोष नहीं है

सबको
अपनी अपनी
आँखों से
अपने आसपास
अपने अपने
हिसाब का ही
जब
साफ साफ
दिखायी
दे जाता है

और
उसी के पीछे
सारा
सब कुछ
उनके ही
हिसाब का
बेमतलब

धुँधला कर
धूँऐं के बादल
की तरह
उड़ उड़ा कर
उड़न छू
हो जाता है

रहने दे
‘उलूक’

तेरी
रोज की
बकबक से
उकता कर

देखता
क्यों नहीं है
ऐलेक्सा रैंक भी

शर्मा शर्मी से
ऊपर की ओर
उखड़ कर
चला जाता है

समझ में
नहीं आता है

जमाने के
हिसाब से
बहुसंख्यक

तू
क्यों नहीं
हो पाता है

शहर की
छोटी सी खबर

जोरों से
उड़ रही होती है

और
तू खार खाया
अपने ही बालों को

खुजला खुजला कर
नोच खाता है

चश्मा
लगा कर देख
और
सोच

भगवान शिव
आज ही
धन्य हो गये
यूँ ही

काफिले में
मंतरी और संतरी
के
पीछे पीछे
खिंची फोटुकों
के आगे

सोशियल मीडिया भी

जब
हर हर महादेव
कह कह कर

मान्यवरों
के गले में

मालायें

और
चरणों में
उनके

फूल
चढ़ाता है

इसी से
बात शुरु हुई थी

इसे
‘झूठ जी’
कहा जाता है

और
बस यही है
जो
बहुत आगे
पहुँच कर
चला आता है

 और
सच की
जरूरत

है भी
नहीं
वैसे भी

वो
अब
कहीं भी
दूर दूर तक

नजर 
भी 
नहीं
आता है ।

चित्र साभार: wwyeshua.wordpress.com

शुक्रवार, 22 मार्च 2019

पीना पिलाना बहकना बहकाना दौड़ेगा अब तो चुनावी मौसम हो गया है

आदमी
खुद में ही

जब

आदमी
कुछ कम
हो गया है

किसलिये
कहना है

रंग
इस बार
कहीं गुम
हो गया है

खुदाओं
में से

किसी
एक का

घरती
पर जनम
हो गया है

तो
कौन सा
किस पर

बड़ा
भारी
जुलम
हो गया है

मन्दिर
जरूरी नहीं

अब
वो भी

तुम
और हम
हो गया है

समझो

भगवान
तक को

इन्सान
होने का
भ्रम
हो गया है

झूठ
खरपतवार

खेतों में
सच के

सनम
हो गया है

काटना
मुश्किल
नहीं है

रक्तबीज
होने का
उसके

वहम
हो गया है

होली
के जाने का

क्यों रे
‘उलूक’

तुझे

क्या गम
हो गया है

पीना
पिलाना

बहकना
बहकाना

दौड़ेगा

अब तो

चुनावी
मौसम
हो गया है ।

चित्र साभार: https://miifotos.com

सोमवार, 4 मार्च 2019

कुछ नहीं कहने वाले से अच्छा कुछ भी कह देने वाले का भाव एकदम उछाल मारता हुवा देखा जाता है

तबीयत
ठीक रहती है
तो

बड़ा झूठ
बहुत आसानी से
पचाया जाता है

बकवास
लिखी जाती रहती है
तो


सच भी
नंगा होने में शरमाता है

जिंदगी
निकलती जाती है

झूठ ही
सबसे बड़ा
सच होता है
समझ में आता जाता है

हर कोई
एक नागा साधू होता है

कपड़े
सब के पास होते हैंं
तो

दिखाने भी होते हैं

इसीलिये
पहन कर आया जाता है

बहुत कुछ
होता है जो
कहीं भी नहीं
पाया जाता है

नहीं होना ही
सबसे अच्छा होता है

बिना
पढ़ा लिखा भी
बहुत कुछ
समझा जाता है

साँप
के दाँत
तोड़ कर
आ जाता है

बत्तीस
नहीं थे
छत्तीस हैं
बता कर जाता है

साँप
तो

मार खाने
के बाद
गायब हो जाता है

साँपों की
बात करने वाला

जगह जगह
मार खाता है
गरियाया जाता है

लकीर
पीटने वाला
सब से समझदार
समझा जाता है
माना जाता है

पीटते पीटते
फकीर हो जाता है

ऊपर वाला भी
देखता रह जाता है

एक जगह
खड़ा रहने वाला

हमेशा शक की
नजरों से देखा जाता है

थाली में
बैगनों के साथ
लुढ़कते रहने वाला ही

सम्मानित
किया जाता है

‘उलूक’
कपड़े लत्ते की
सोचते सोचते

गंगा नहाने
नदी में उतर जाता है

महाकुँभ
की भीड़ में
खबरची के
कैमरे में आ जाता है
पकड़ा जाता है

घर में
रोज रोज
कौन कौन
नहाता है

अखबार
में नहीं
बताया जाता है

बकवास
करते रहने से

खराब
तबीयत का
अन्दाज नहीं
लगाया जाता है

तबीयत
ठीक रहती है
तो

एक
बड़ा झूठ भी
आसानी से
पचाया जाता है

चित्र साभार: http://hatobuilico.com

मंगलवार, 2 अक्टूबर 2018

फिर से एक नया साल बापू एक और दो अक्टूबर बीत गया

बापू

फिर
टकराये हम

फिर
पता चला
एक साल
और ऐवें
ही बीत गया

समझ में
आ गयी
हों जैसे

फिर से
कुछ
और बातें

फिर से
हुऐ
कुछ भ्रम

जैसे खुद
गोल किया हो
अपने गोल पर

और
महसूस
साथ में किया
जीत गया

बापू

छोटी
छोटी बातें
दुनियाँ की
दुनियाँदारी की

लगता है
धीरे धीरे
अब
पूरा का पूरा
मन भीग गया

देखना
खुद का खुद से
ठीक नहीं

देख रहे हों
सब
जो कुछ

कुछ कुछ
देखना
लगता है
अब तो
सीख गया

बापू

पढ़ते
पढ़ते तुझको

दिखा
नहीं जमाना
बगल से
निकल
दूर कहीं

लिख चुका
कोई
धुन नयी
कोई
गीत नया

सीखा
नाच जीवन का
रख कर कदम
तेरे कदमों पर
जितना भी

नाँच ना जाने
आँगन टेढ़ा
सुनकर
नयी पौंध से

सारा
सब कुछ
जैसे रीत गया

एक पूरी
एक आधी सदी
का पैमाना बापू

सारी
दुनियाँ ने देखा
सोचा और समझा

ढाला
कुछ कुछ
जीवन में अपने

पूरब
लेकर
पश्चिम को
जैसे प्रीत गया

अपने
अन्दर के सच
ढक लेने का
हथियार बापू

अपना
खुद का सच

दुनियाँ की
आखों में

झोंकने
के लिये
झूठ नया

‘उलूक’

एक सौ
पचास साल
की
मेहनत पर

कोई आकर
कुछ दिन में

कितना कितना
गोबर लीप गया ।

चित्र साभार: http://devang-home.blogspot.com

शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017

असली सब छिपा कर रोज कुछ नकली हाथ में थमा जाता है


सब कुछ लिख देने की चाह में
नकली कुछ लिख दिया जाता है

बहुत कुछ असली लिखा जाने वाला
कहीं भी नजर नहीं आता है

कहीं नहीं लिखा जाता है वो सब
जो 
लिखने के लिये 
लिखना शुरु करने से पहले
तैयार कर लिया जाता है

सारा सब कुछ
शुरु में ही कहीं छूट जाता है
दौड़ने लगता है उल्टे पाँँव
जैसे लिखने वाले से ही
दूर कहीं भागना चाहता है

जब तक समझने की कोशिश करता है
लिखते लिखते लिखने वाला

कलम पीछे छूट जाती है
स्याही जैसे फैल जाती है
कागज हवा में फरफराना शुरु हो जाता है
ना वो पकड़ में आता है
ना दौड़ता हुआ खयाल कहीं नजर आता है

कितनी बार समझाया गया है
सूखने तो दिया कर स्याही पहले दिन की

दूसरे दिन गीले पर ही
फिर से लिखना शुरु हो जाता है

कितना कुछ लिखा 
कितना कुछ लिखना बाकी है
कितना कुछ बिका कितना बिकेगा
कितना और बिकना बाकी है

हिसाब लगाते लगाते
लिखने वाला 
लेखक तो नहीं बन पाता है
बस थोड़ा सा कुछ शब्दों को
तोलने वाली मशीन हाथ में लिये 
एक बनिया जरूर हो जाता है

कुछ नहीं किया जा सकता है ‘उलूक’

देखते हैं एक नये सच को
खोद कर निकाल कर
समझने के चक्कर में

रोज एक नया झूठ बुनकर
आखिर कब तक 
कोई हवा में उसकी पतंग बना कर उड़ाता है

पर सलाम है उसको
जो ये देखने के लिये हर बार

हर पन्ने में किनारे से झाँकता हुआ
फिर भी कहीं ना कहीं
जरूर नजर आ जाता है ।

चित्र साभार: www.istockphoto.com

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

बिना डोर की पतंग होता है सच हर कोई लपेटता है अपनी डोर अपने हिसाब से


सोचने
सोचने तक
लिखने
लिखाने तक
बहुत दूर
चल देता है
सोचा हुआ

भूला
जाता है
याद नहीं
रहता है
खुद ने
खुद से
कुछ कहा
तो था

सच के
बजूद पर
चल रही
बहस
जब तक
पकड़ती
है रफ्तार

हिल जाती है
शब्द पकड़ने
वाली बंसी

काँटे पर
चिपका हुआ
कोई एक
हिलता हुआ
कीड़ा

मजाक
उड़ाता है
अट्टहास
करता हुआ

फिर से
लटक
जाता है
चुनौती दे
रहा हो जैसे

फिर से
प्रयास
करने की

पकड़ने की
सच की
मछली को
फिसलते हुऐ
समय की
रेत में से

बिखरे हुऐ हैं
हर तरफ हैं
सच ही सच हैं

झूठ कहीं
भी नहीं हैं

आदत मगर
नहीं छूटती है
ओढ़ने की
मुखौटे सच के

जरूरी भी
होता है
अन्दर का
सच कहीं
कुढ़ रहा
होता है

किसने
कहा होता है
किस से
कहा होता है

जरूरत ही
नहीं होती है
आईने के
अन्दर का
अक्स नहीं
होता है

हिलता है
डुलता है
सजीव
होता है

सामने से
होता है
सब का
अपना अपना
बहुत अपना
होता है

सच पर
शक करना
ठीक नहीं
होता है

‘उलूक’

कोई कुछ
नहीं कर
सकता है
तेरी फटी
हुई
छलनी का

अगर
उसमें
थोड़ा सा
भी सच
दिखाने भर
और
सुनाने भर
का अटक
नहीं रहा
होता है ।

चित्र साभार: SpiderPic

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2016

आओ खेलें झूठ सच खेलना भी कोई खेलना है



प्रतियोगिता झूठ बोलने की ही हो रही है
हर तरफ आज के दिन पूरे देश में
किसी एक झूठे के बड़े झूठ ने ही जीतना है

झूठों में सबसे बड़े झूठे को मिलना है ईनाम
किसी नामी बेनामी झूठे ने ही
खुश हो कर अन्त में उछलना है कूदना है

झूठे ने ही देना है झूठे को सम्मान
सारे झूठे नियम बन चुके हैं
झूठे सब कुछ झूठ पर पारित कर चुके हैं
झूठों की सभा में
उस पर जो भी बोलना है जहाँ बोलना है
किसी झूठे को ही बोलना है

सामने से होता हुआ नजर आ रहा है
जो कुछ भी कहीं पर भी
वो सब बिल्कुल भी नहीं देखना है
उस पर कुछ भी नहीं कुछ बोलना है

झूठ देखने से नहीं दिखता है
इसलिये किसलिये
आँख को अपनी किसी ने क्यों खोलना है
झूठ के खेल को पूरा होने तक खेलना है

झूठ ने ही बस स्वतंत्र रहना है
झूठ पकड़ने वालों पर रखनी हैं निगाहें
हरकत करने से पहले उनको
पकड़ पकड़ उसी समय
झूठों ने साथ मिलकर पेलना है

जिसे खेलना है झूठ
उसे ही झूठ के खेल पर करनी है टीका टिप्पणी
झूठों के झूठ को झूठ ने ही झेलना है

‘उलूक’ तेरे पेट में होती ही रहती है मरोड़
कभी भरे होने से कभी खाली होने से
लगा क्यों नहीं लेता है दाँव
ईनाम लेने के लिये झूठ मूठ में ही
कह कर बस कि
पूरा कर दिया तूने भी कोटा झूठ बोलने का
हमेशा सच बोलना भी कोई बोलना है ।

चित्र साभार: www.clipartkid.com

शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2016

ऊपर वाले के जैसे ही कुछ अपने अपने नीचे भी बना कर वंदना कर के आते हैं

आइये साथ
मिलकर
अपनी अपनी
समझ कुछ
और बढ़ाते हैं
दूर बज रहे
ढोल नगाड़ों
में अपने अपने
राग ढूँढ कर
अपनी सोच के
टेढ़े मेढ़े पेंच
अपनी अपनी
पसंद के झोल में
कहीं फँसाते हैं
अपने घर में
सड़ रहे फलों
पर इत्र डाल कर
चाँदी का वर्क लगा कर
अगली पीढ़ी के लिये
आइये साथ
साथ सजाते हैं
शोर नहीं है
नहीं है शोर
कविताएं हैं गीत हैं
झूमते हैं नाचते हैं गाते हैं
आइये सब मिल जुल कर
अपने अपने घर की
खिड़कियाँ दरवाजे के
साथ में अपनी
आँख बंद कर
दूर कहीं चल रहे
नाटक के लिये
जोर शोर से
तालियाँ बजाते हैं
कलाकारी कलाकार
की काबिले तारीफ है
आखिरकार उम्दा
कलाकारों में से
छाँटे गये कलाकार
के द्वारा सहेज कर
मुंडेर पर सजाया गया
एक खूबसूरत कलाकार है
आइये लच्छेदार बातों के
गुच्छों के फूलों को
मरी हुई सोचों के ऊपर
से जीवित कर सजाते हैं
बहुत कुछ है
दफनाने के लिये
लाशों को कब्र से
निकाल निकाल
कर जलाते हैं
कहीं कोई रोक कहाँ है
अपने अपने घर को
अपनी अपनी दियासलाई
दिखा कर आग लगाते हैं
रोशनी होनी है
चकाचौंध खुद कर के
चारों तरफ झूठ के
पुलिंदों पर सच के
चश्में लगा लगा कर
होशियार लोगों को
बेवकूफ बनाते हैं
नाराज नहीं होना है
‘उलूक’
आधे पके हुऐ को
मसाले डाल डाल कर
अपने अपने हिसाब से
अपनी सोच में पकाते हैं
स्वागत है आइये चिराग
ले कर अपने अपने
रोशनी ही क्यों करें
पूरी ही आग लगाते हैं ।

चित्र साभार: www.womanthology.co.uk

शुक्रवार, 15 जनवरी 2016

सच

क्या किया जाये
जब देर से
समझ में आये

खिड़कियाँ
सामने
वाले की
जिनमें
घुस घुस
कर देखने
समझने
का भ्रम
पालता
रहा हो कोई

खिड़कियाँ
थी ही नहीं
आईने थे

यही होता है
यही गीता है
यही कृष्ण है
और
यही अर्जुन है
बहुत सारी

गलतफहमियाँ
खुद की
खुद को
पता होती हैं
देखना कौन
चाहता है

पर सामने
वाले की
खिड़कियाँ
जो आईना
होती है
हर कोशिश
में देखने की
अपना सच
बिना किसी
लाग लपेट के
बहुत साफ
साफ
दिखाता है
समझ में
आता है
घुसना
समझ में
आता है
दिखना
सब कुछ
साफ साफ

नहीं समझ
में आता है
आईने में
दिखी
परछाइयाँ
खुद की
खुद की
कमजोरियाँ

कृष्ण भी
खुद मे ही है
अर्जुन भी
खुद में ही है
खिड़कियाँ
नहीं हैं
बस आईने हैं

कौन क्या
देखना
चाहता है
खुद बता
देता है
खुद को
उसका सच

देखने की
कोशिश में
तेरे सारे झूठ
तुझे नजर
आते हैं
‘उलूक’
खुश मत
हुआ कर

आईना हटा
कर कुछ
खिड़कियों में
झाँकना सीख

लोग
खिड़कियाँ
खुली तो
रखते हैं
पर आईना
भी रखते
हैं साथ में ।