मेरे अपने खुद के कुछ खुले आसमान
खो गये पता नहीं कहाँ
याद आया अचानक आज
शाम के समय
डूबते सूरज और नीड़ की ओर
लौटते पक्षियों की चहचहाट के बीच
लौटते पक्षियों की चहचहाट के बीच
सीमाओं से बंधे हुऐ नहीं
लम्बे काले गेसुओं के बीच
चमचमाते हुऐ चाँद को
उलझा के रखे हुऐ हो कोई छाया सी
उलझा के रखे हुऐ हो कोई छाया सी
जैसे माँ रखती हो अपने बच्चे को
छुपा कर अपने आँचल की छाँव में
किसे याद नहीं आयेगी ऐसे अद्भुत आसमानों की
बहुत उदास हो उठी एक शाम के समय
किसी दिन अचानक
जब कई दिन से महसूस करता हुआ
गुजरता
आसमान के नीचे से एक राही
आसमान के नीचे से एक राही
जिसे नजर आ रहा हो
हर किसी का नोचना आसमान को
अपने पैने नाखूँनो से
खीचने के लिये उसे बस अपने और अपने लिये
आसमान के दर्द और चीख
उसके विस्तार में विलीन हो जाने के लिये हों जैसे
पता नहीं कैसे कैसे भ्रम जन्म लेते हैं
हर सुबह और हर शाम
और कितने आसमानों का हो जाता है कत्ल
दर्द ना तारे दिखाते हैं ना चाँद ना ही सूरज
उनका आना जाना बदस्तूर जारी रहता है
बेबस आसमान बेचारा
एक ऐसी चादर भी तो नहीं हो सकता
टुकड़ा टुकड़ा फटने के लिये
ना चाहते हुऐ भी बट जाना
हर किसी की सोच के अनुसार उसके लिये ।
चित्र साभार: vector-magz.com