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बुधवार, 10 दिसंबर 2014

कितने आसमान किसके आसमान


मेरे अपने खुद के कुछ खुले आसमान
खो गये पता नहीं कहाँ

याद आया अचानक आज
शाम के समय
डूबते सूरज और नीड़ की ओर
लौटते 
पक्षियों की चहचहाट के बीच

सीमाओं से बंधे हुऐ नहीं
लम्बे काले गेसुओं के बीच
चमचमाते हुऐ चाँद को
उलझा 
के रखे हुऐ हो कोई छाया सी

जैसे माँ रखती हो अपने बच्चे को
छुपा कर अपने आँचल की छाँव में

किसे याद नहीं आयेगी ऐसे अद्भुत आसमानों की

बहुत उदास हो उठी एक शाम के समय
किसी दिन अचानक

जब कई दिन से महसूस करता हुआ
गुजरता 
आसमान के नीचे से एक राही

जिसे नजर आ रहा हो
हर किसी का नोचना आसमान को
अपने पैने नाखूँनो से
खीचने के लिये उसे बस अपने और अपने लिये
आसमान के दर्द और चीख
उसके विस्तार में विलीन हो जाने के लिये हों जैसे

पता नहीं कैसे कैसे भ्रम जन्म लेते हैं
हर सुबह और हर शाम
और कितने आसमानों का हो जाता है कत्ल

दर्द ना तारे दिखाते हैं ना चाँद ना ही सूरज
उनका आना जाना बदस्तूर जारी रहता है

बेबस आसमान बेचारा
एक ऐसी चादर भी तो नहीं हो सकता
टुकड़ा टुकड़ा फटने के लिये 

ना चाहते हुऐ भी 
बट जाना
हर किसी की सोच के अनुसार उसके लिये ।

चित्र साभार: vector-magz.com