सब कुछ तो
वैसा नहीं
होता है
जैसा
वैसा नहीं
होता है
जैसा
रोज का रोज
आकर तू यहां
कह देता है
माना कि
अन्दर से
ज्यादातर
वही सब कुछ
निकलता है
जैसा कि
अपने आस
पास में
चलता है
पर
सब कुछ
तुझे ही
कैसे
और क्यों
समझ में
आता है
तेरे
वहाँ तो
एक से
बढ़कर एक
चिंतकों का
आना जाना
हमेशा से ही
देखा जाता है
पर
तेरी जैसी
अजीब
अजीब सी
परिकल्पनाऎं
लेकर
कोई ना तो
कहीं आता है
ना ही कहीं पर
जाकर बताता है
दूसरी
ओर देख
बहुत
सी चीजें
जो होती
ही नहीं है
कहीं
पर भी
दिखती नहीं हैं
उन
विषयों
पर भी
आज जब
विद्वानोंं द्वारा
बहुत कुछ
लिखा हुआ
सामने
आता है
शब्दों के
चयन का
बहुत ही
ध्यान रखा
जाता है
भाषा
अलंकृत
होती है
ऊल जलूल
कुछ भी
नहीं कहा
जाता है
तब तू भी
ऎसा कुछ
कालजयी
लिखने की
कला सीखने
के लिये
किसी को
अपना गुरू
क्यों नहीं
बनाता है
वैसे भी
रोज का रोज
सारी की सारी
बातों को
कहना
कौन सा
इतना जरूरी
हो जाता है
जहाँ
तेरे चारों ओर
के हजारों
लोगों को
अपने सामने
गिरते हुऎ
एक मकान
को देखकर
कुछ भी नहीं
हुआ जाता है
तू
बेकार में
एक छोटी सी
बात को
रेल में
बदलकर
हमारे सामने
रोज क्यों
ले आता है
अपना समय
तो करता ही
है बरबाद
हमारा
दिमाग
भी साथ
में खाता है ।
आकर तू यहां
कह देता है
माना कि
अन्दर से
ज्यादातर
वही सब कुछ
निकलता है
जैसा कि
अपने आस
पास में
चलता है
पर
सब कुछ
तुझे ही
कैसे
और क्यों
समझ में
आता है
तेरे
वहाँ तो
एक से
बढ़कर एक
चिंतकों का
आना जाना
हमेशा से ही
देखा जाता है
पर
तेरी जैसी
अजीब
अजीब सी
परिकल्पनाऎं
लेकर
कोई ना तो
कहीं आता है
ना ही कहीं पर
जाकर बताता है
दूसरी
ओर देख
बहुत
सी चीजें
जो होती
ही नहीं है
कहीं
पर भी
दिखती नहीं हैं
उन
विषयों
पर भी
आज जब
विद्वानोंं द्वारा
बहुत कुछ
लिखा हुआ
सामने
आता है
शब्दों के
चयन का
बहुत ही
ध्यान रखा
जाता है
भाषा
अलंकृत
होती है
ऊल जलूल
कुछ भी
नहीं कहा
जाता है
तब तू भी
ऎसा कुछ
कालजयी
लिखने की
कला सीखने
के लिये
किसी को
अपना गुरू
क्यों नहीं
बनाता है
वैसे भी
रोज का रोज
सारी की सारी
बातों को
कहना
कौन सा
इतना जरूरी
हो जाता है
जहाँ
तेरे चारों ओर
के हजारों
लोगों को
अपने सामने
गिरते हुऎ
एक मकान
को देखकर
कुछ भी नहीं
हुआ जाता है
तू
बेकार में
एक छोटी सी
बात को
रेल में
बदलकर
हमारे सामने
रोज क्यों
ले आता है
अपना समय
तो करता ही
है बरबाद
हमारा
दिमाग
भी साथ
में खाता है ।