कवि लेखक कथाकार गीतकार
या
इसी तरह का कुछ हो जाने की सोच
भूल से भी पैदा नहीं हुई कभी
मजबूत लोग होते हैं
लिखते हैं लिखते हैं लिखते चले जाते हैं
कविता हो कहानी हो नाटक हो या कुछ और
ऐसे वैसे लिखना शुरु नहीं हो जाते हैं
एक नहीं कई कोण से शुरु करते हैं
कान के पीछे से कई बार
लेखनी निकाल कर सामने ले आते हैं
कई बार फिर से कान में वापस रख कर
उसी जगह से सोचना शुरु हो जाते हैं
जहाँ से कुछ दिन पहले हो कर
दो चार बार कम से कम पक्का कर आते हैं
लिखने लिखाने के लिये
आँगन होना है दरवाजा होना है खिड़की होनी है
आँगन होना है दरवाजा होना है खिड़की होनी है
या बस खाली पीली किसी एक सूखे पेड़ पर यूँ ही पूरी
नजर गड़ा कर वापस आ जाते हैं
एक नये मकान बनाने के तरीके होते हैं कई सारे
बिना प्लोट के ऐसे ही तो नहीं बनाये जाते हैं
बड़े बड़े बहुत बड़े वाले जो होते हैं
पोस्टर पहले से छपवाते हैं
शीर्षक आ जाता है बाजार में
कई साल पहले से बिकने को
कोई नहीं पूछता बाद में
मुख्य अंश लिखना क्यों भूल जाते हैं
सब तेरी तरह के नहीं होते ‘उलूक’
तुम तो हमेशा ही बिना सोचे समझे
कुछ भी लिखना शुरु हो जाते हो
पके पकाये किसी और रसोईये की रसोई का भात
ला ला कर फैलाते हो
विज्ञापन के बिना छपने वाले
एक श्रेष्ठ लेखकों के लेखों से भरा हुआ अखबार बन कर
रोज छपने के बाद
कूड़े दान में बिना पढ़े पढ़ाये पहुँचा दिये जाते हो
बहुत चिकने घड़े हो यार
इतना सब होने के बाद भी
गुरु फिर से शुरु हो जाते हो ।