उलूक टाइम्स: कवि
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रविवार, 21 जनवरी 2024

कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी

शीशे के घर में बैठ कर
आसान है बयां करना उस पार का धुंआ
खुद में लगी आग
कहां नजर आती है आईने के सामने भी तभी

बेफ़िक्र लिखता है
सारे शहर के घोड़ों के खुरों के निशां लाजवाब
अपनी फटी आंते और खून से सनी सोच
खोदनी भी क्यों है कभी

हर जर्रा सुकूं है
महसूस करने की जरूरत है लिखा है किताब में भी
सब कुछ ला कर बिखेर दे सड़क में
गली के उठा कर हिजाब सभी

पलकें ही बंद नहीं होती हैं कभी
पर्दा उठा रहता हैं हमेशा आँखों से
रात के अँधेरे में से अँधेरा भी छान लेता है
क़यामत है आज का कवि 

कौन अपनी लिखे बिवाइयां
और आंखिर लिखे भी क्यों बतानी क्यों है
सारी दुनियां के फटे में टांग अड़ा कर
और फाड़ बने एक कहानी अभी

‘उलूक’ तूने करनी है बस बकवास
और बकवास इतिहास नहीं होता है कभी
कभी भेड़ों में शामिल हो कर के देख
कैसे करता है कुत्ता रखवाली बन कर नबी 

नबी = ईश्वर का गुणगान करनेवाला, ईश्वर की शिक्षा तथा उसके आदेर्शों का उद्घोषक।
चित्र साभार: https://www.istockphoto.com/

सोमवार, 14 अक्टूबर 2019

सागर किनारे लहरें देखते प्लास्टिक बैग लेकर बोतलें इक्ट्ठा करते कूड़ा बीनते लोग भी कवि हो जाते हैं


ना
कहना
आसान होता है

ना
निगलना
आसान होता है

सच
कहने वाले
के
मुँह
पर राम

और

सीने पर
गोलियों का
निशान होता है

सच
कहने वाला
गालियाँ खाता है

निशान
बनाने वाले का

बड़ा
नाम होता है

‘उलूक’
यूँ ही नहीं
कहता है

अपने
कहे हुऐ
को
एक बकवास

उसे
पता है

कविता
कहने
और
करने वाला
कोई एक
 खास होता है

अभी
दिखी है
कविता

अभी
दिखा है
एक कवि

 कूड़ा
समुन्दर
के पास
बीन लेने
वाले को

सब कुछ
सारा
माफ होता है

बड़े
आदमी के
शब्द

नदी
हो जाते हैं

उसके
कहने
से ही
सागर में
मिल जाते हैं

बेचारा
प्लास्टिक
हाथ में
इक्ट्ठा
किया हुआ
रोता
रह जाता है

बनाने
वालों के
अरमान

फेक्ट्रियों
के दरवाजों
में
खो जाते हैं

बकवास
बकवास
होती है

कविता
कविता होती है

कवि
बकवास
नहीं करता है

एक
बकवास
करने वाला

कवि
हो जाता है ।


चित्र साभार:
https://www.dreamstime.com/

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

थोड़े से शब्दों से पहचान हो जाना, बहुत बुरा होता है ‘उलूक’, कवि की पहचान हो कर बदनाम हो जाना

हर गधे के पास एक कहानी होती है 'उलूक'

कल फिर
कविता से
मुलाकात
हो पड़ी

बीच
रास्ते में
पता नहीं
रास्ता रोककर

ना जाने
क्यों
हो रही थी खड़ी

हमेशा ही
कविता से
बचना चाहता हूँ

फिर भी
पता नहीं

कहाँ
जा कर

किस
खराब
घड़ी में

उसी के
आगे पीछे
अगल बगल
कहीं

अपने को
उलझन में
खड़ा पाता हूँ

समझाते
समझाते
थक जाता हूँ
कवि नहीं हूँ

बस
थोड़ा बहुत
लिखना पढ़ना
कर ले जाता हूँ

सीधे सीधे
भड़ास निकालना
ठीक नहीं होता है

चोर के मुँह
चोर चोर कहकर
नहीं लिपट पाता हूँ

डरना भी
बहुत जरूरी है
सरदारों से भी
और उनके
गिरोहों से भी

नये
जमाने के

इज्जतदारों से

किसी तरह

अलग रहकर

अपनी
इज्जत

लुटने से
बचाता हूँ


बख्श
क्यों नहीं
देते होंगे

कवि
और
उनकी
कविताएं

कुछ एक
शब्दों के
अनाड़ी
खिलाड़ियों को

टूट जाते हैं
जिनसे भूलवश

कुल्हड़
भावनाओं
के यूँ ही
बेखुदी
में कभी
करते हुऐ
बेफजूल
इशारों को

पचने में
सरल सी
बातों से होती
बदहजमी को
जरा सा भी
समझ नहीं
पाता हूँ

कविताओं
की भीड़ से

दूर से ही

बस
उनसे नजरें
मिलाना
चाहता हूँ

कविता
अच्छी लगती है

पढ़ भी
ली जाती है

कभी कभी
थोड़ा बहुत
समझ में भी
आ जाती है

मजबूरियाँ
नासमझी की

बड़ी बड़ी
उलझी हुई 
लटें भी
सुलझा
कर कभी

आश्चर्यचकित

भी कर जाती हैं

पता नहीं
‘उलूक’
की
आड़ी तिरछी
लकीरें
बेशरम सी

क्यों
जान बूझ कर
कविताओं
की भीड़ में
जा जाकर
फिर फिर
खड़ी
हो जाती हैं

बहुत
असहज
महसूस
होने लगता है

ऐसे ही में
जब
एक कविता

सड़क
के बीच
खड़ी होकर
कुछ
रहस्यमयी
मुस्कुराहट
के साथ

कवि और
कविताओं
के बहाने

तबीयत
के बारे में
पूछना शुरु
हो जाती है । 


चित्र साभार:
http://www.poetrydonkey.com/

रविवार, 4 नवंबर 2018

क्यों कह देता होगा कुछ भी लिखे को कविता कोई कवि नहीं करते बकबक लिखते हैं दिमाग पर लगा कर जोर

कैसे
बनती होगी
एक कविता

रस छन्द
और
अलंकार
से
सराबोर

 कैसे
सोचता होगा
एक कवि

क्या
देखता होगा

और
किस दिशा
की ओर

कौन
पढ़ लेता होगा

आँखें
कवि की खोल
मन में अपने

हो लेता होगा
उतना ही विभोर

इन्द्रियाँ
बस में
होती होंगी
किस की इतनी

अवशोषित
कर लेता होगा

जो केवल
संगीत
छान कर
सारे शोर

किस के
पन्ने में
छपे अक्षर

नजर आना
शुरु
हो जाते होंगे
एक पाठक को

मोती जैसे
लपक रहा हो
चमक देख कर

उनकी
तरफ कोई
गोताखोर

 शायद:

अनन्त में
होता होगा
ध्यान केन्द्रित

दूर बहुत
होते होंगे
जोकर
कलाकार
चोर छिछोर

नजर पड़ती
होगी बस
सारे सफेद
कबूतरों पर

काले कौओं
को समझा कर
ले जाता होगा

समय
कहीं किसी
मोड़ की ओर

सीख:

क्यों
बैठा
रहता होगा
‘उलूक’

करने को
बकवास

देखता
घनघोर
अमावस में भी

फाड़ कर
आँखें चार
किसी पाँचवीं
दिशा की छोर

सीखता
क्यों नहीं होगा
थोड़ा सा भी
हटकर लिखना
अच्छा लिखना

मुँह
मोड़ कर
इधर उधर से

देख देख कर

कहीं
कुछ जमीन
के अन्दर

कुछ
आकाश
की ओर।

चित्र साभार: https://melbournechapter.net

बुधवार, 12 सितंबर 2018

'उलूक’ तख़ल्लुस है



साहित्यकार कथाकार कवि मित्र 
फरमाते हैं 

भाई 
क्या लिखते हो 
क्या कहना चाहते हो 
समझ में ही नहीं आता है 

कई बार तो 
पूरा का पूरा 
सर के ऊपर से 
हवा सा निकल जाता है 

और 
दूसरी बला 
ये ‘उलूक’ लगती है 
बहुत बार नजर आता है 

है क्या 
ये ही पता नहीं चल पाता है 

हजूर 

साहित्यकार अगर 
बकवास समझना शुरु हो जायेगा 
तो उसके पास फिर क्या कुछ रह जायेगा 

‘उलूक’ तखल्लुस है 
कई बार बताया गया है 
नजरे इनायत होंगी आपकी 
तो समझ में आपके जरूर आ जायेगा 

इस ‘उलूक’ के भी 
बहुत कुछ समझ में नहीं आता है 

किताब में 
कुछ लिखता है लिखने वाला 
पढ़ाने वही कुछ और 
और समझाने 
कुछ और ही चला आता है 

इस 
उल्लू के पट्ठे के दिमाग में 
गोबर भी नहीं है लगता है 

हवा में 
लिखा लिखाया 
कहाँ कभी टिक पाता है 

देखता है 
सामने सामने से होता हुआ 
कुछ ऊटपटाँग सा 

अखबार में 
उस कुछ को ही 
कोई
आसपास 
का सम्मानित
ही 
भुनाता हुआ नजर आता है 

ऐसा बहुत कुछ 
जो समझ में नहीं आता है 

उसे ही 
इस सफेद श्यामपट पर 
कुछ अपनी 
उलझी हुई लकीर जैसा बना कर 
रख कर चला जाता है 

हजूर

आपका 
कोई दोष नहीं है 

सामने से 
फैला गया हो 
कोई दूध या दही 

किसी को 
शुभ संदेश 
और किसी को 
अपशकुन नजर आता है 

आँखें 
सबकी एक सी 
देखना सबका एक सा 

बस
यही 
अन्तर होता है 

कौन
क्या चीज 
क्यों और किस तरह से देखना चाहता है 

‘उलूक’ ने 
लिखना है लिखता रहेगा 
जिसे करना है करता रहेगा 

इस देश में 
किसी के बाप का कुछ नहीं जाता है 

होनी है जो होती है 
उसे अपने अपने पैमाने से नाप लिया जाता है 

जो जिसे 
समझना होता है 
वो कहीं नहीं भी लिखा हो 
तब भी समझ में आ जाता है

'उलूक’
तख़ल्लुस  है 

कवि नहीं है 
कविता लिखने नहीं आता है 

जो उसे 
समझ में नहीं आता है 
बस उसे
बेसुरा गाना शुरु हो जाता है 
। 

चित्र साभार: www.deviantart.com

बुधवार, 27 दिसंबर 2017

अच्छा हुआ गालिब उस जमाने में हुआ और कोई गालिब हुआ


‘उलूक’ की 2017 की सौवीं बकवास गालिब के नाम :

दो सौ के ऊपर से और बीस बीत गये साल
कोई दूसरा नहीं गालिब हुआ

अब तो समझा भी दे गालिब
गालिब हुआ भी तो कोई कैसे गालिब हुआ

बहुत शौक है दीवानों को
गालिब हो जाने का आज भी
जैसे आज ही गालिब हुआ

लगता है
कभी तो हुआ कुछ देर को ये भी गालिब हुआ
और वो भी गालिब हुआ

समझ में किसे आता है पता भी कहाँ होता है
अन्दाजे गालिब हुआ तो क्या हुआ

बयाने गालिब पढ़ लिया बस
उसी समय से सारा सब कुछ ही गालिब हुआ

ये हुआ गालिब कुछ नहीं हुआ
फिर भी इस साल का ये सौवाँ हुआ

तेरे जन्मदिन के दिन भी कोई नयी बात नहीं हुई
वही कुछ रोज का धुआँ धुआँ हुआ

अब तो एक ही गालिब रह गया है जमाने में गालिब
कुछ भी कहना उसी का शेरे गालिब हुआ

‘उलूक’ की नीयत ठीक नहीं हैं गालिब
क्या हुआ अगर कोई इतना भी गालिब हुआ ।

चित्र साभार: http://youthopia.in/irshaad-ghalib/



गालिब का मतलब : सं-पु.] -
उर्दू के एक प्रख्यात कवि (शायर) का उपनाम
[वि.] 1. विजयी 2. प्रबल 3. ज़बरदस्त; बलवान
4. जिसकी संभावना हो; संभावित
5. दूसरों को दबाने या दमन करने वाला

बुधवार, 1 फ़रवरी 2017

आज कुछ टुकड़े पुराने जो पूरे नहीं हो पाये टुकड़े रह गये

(कृपया बकवास को
कवि, कविता और
हिंदी की किसी
विधा से ना जोड़ेंं
और
टुकड़ों को ना जोड़ें,
अभिव्यक्ति कविता से हो
और कवि ही करे
जरूरी नहीं होता है ) 


सोच खोलना
बंद करना भी
आना चाहिये
सरकारी
दायरे में
ज्यादा नहीं भी
कम से कम
कुछ घंटे ही सही
>>>>>>>>>>>>

बेहिसाब
रेत में
बिखरे हुऐ
सवालों को
रौंदते हुऐ
दौड़ने में
कोई बुराई
नहीं है
गलती
सवालों
की है
किसने
कहा था
उनसे उठने
के लिये
बेवजह
बिना सोचे
बिना समझे
बिना जाने
बिना बूझे
और
बिना पूछे
उससे
जिसपर
उठना शुरु
हो चले
>>>>>>

मालूम है
बात को
लम्बा
खींच
देने से
ज्यादा
समझ
में नहीं
आता है

खींचने की
आदत पड़
गई होती
है जिसे
उससे
फिर भी
आदतन
खींचा ही
जाता है
जानता है
ज्ञानी
बहुत अच्छी
तरह से
अपने घर में
बैठे बैठे भी
अपने
आस पास
दूसरों के
घरों के
कटोरों की
मलाई की
फोटो देख
देख कर
अपने फटे
दूध को
नहीं सिला
जाता है
>>>>>>>

कोई नहीं
खोलता है
अपनी खुद
की किताबें
दूसरों
के सामने

खोलनी
भी क्यों हैं
पढ़ाने की
कोशिश
जरूर
करते
हैं लोग
समझाने
के लिये
किताबें
लोगों को

 बहुत सी
किताबें
रखी हुई
दिखती
भी हैं
किताबचियों
के आस पास
कहीं करीने
से लगी हुई
कहीं बिखरी
हुई सी
कहीं धूल
में लिपटी
कहीं साफ
धूप
दिखाई गई
सूखी हुई सी ।

>>>>>>>>>

चित्र साभार: ClipartFest

बुधवार, 4 जनवरी 2017

कविता बकवास नहीं होती है बकवास को किसलिये कविता कहलवाना चाहता है

जैसे ही
सोचो
नये
किस्म
का कुछ
नया
करने की

कहीं
ना कहीं
कुछ ना
कुछ ऐसा
 हो जाता है
जो
ध्यान
भटकाता है
और
लिखना
लिखाना
शुरु करने
से पहले ही
कबाड़ हो
जाता है

बड़ी तमन्ना
होती है
कभी एक
कविता लिख
कर कवि
हो जाने की

लेकिन
बकवास
लिखने का
कोटा कभी
पूरा ही
नहीं हो
पाता है

हर साल
नये साल में
मन बनाया
जाता है

जिन्दे कवियों
की मरी हुई
कविताओं को
और
मरे हुऐ
कवियों की
जिंदा
कविताओं
को याद
किया जाता है

कविता
लिखना
और
कवि हो
जाना
इसका
उसका
फिर फिर
याद आना
शुरु हो
जाता है

कविता
पढ़
लेने वाले
कविता
समझ
लेने वाले
कविता
खरीद
और बेच
लेने वालों
से ज्यादा
कविता पर
टिप्प्णी कर
देने वालों के
चरण
पादुकाओं
की तरफ
ध्यान चला
जाता है

रहने दे
‘उलूक’
औकात में
रहना ही
ठीक
रहता है

औकात से
बाहर जा
कर के
फायदे उठा
ले जाना
सबको नहीं
आ पाता है

लिखता
चला चल
बकवास
अपने
हिसाब की

कितनी लिखी
क्या लिखी
गिनती करने
कोई कहीं से
नहीं आता है

मत
किया कर
कोशिश
मरी हुई
बकवास से
जीवित कविता
को निकाल
कर खड़ी
करने की

खड़ी लाशों
के अम्बार में
किस लिये
कुछ और
लाशें अपनी
खुद की
पैदा की हुई
जोड़ना
चाहता है ।

चित्र साभार: profilepicturepoems.com

मंगलवार, 29 सितंबर 2015

उतनी ही श्रद्धांजलि जितनी मेरी कमजोर समझ में आती है तुम्हारी बातें वीरेन डंगवाल

बहुत ही कम
कम क्या
नहीं के बराबर
कुछ मकान
बिना जालियाँ
बिना अवरोध
के खुली मतलब
सच में खुली
खिड़कियों वाले
समय के हिसाब से
समय के साथ
समय की जरूरतें
सब कुछ आत्मसात
कर सकनें की क्षमता
किसी के लिये नहीं
कोई रोक टोक
कुछ अजीब
सी बात है पर
बैचेनी अपने
शिखर पर
जिसे लगता है
उसे कुछ समझ
में आती हैं कुछ
आती जाती बयारें
बेरंगी दीवारें
मुर्झाये हुई सी
प्रतीत होती
खिड़कियों के
बगल से
निकलती
चढ़ती बेलें
कभी मुलाकात
नहीं हुई बस
सुनी सुनाई
कुछ कुछ बातें
कुछ इस से
कुछ उस से
पर सच में
आज कुछ
उदास सा है मन
जब से सुना है
तुम जा चुके हो
विरेन डंगवाल
कहीं पर बहुत
मजबूती से
इतिहास के
पन्नों के लिये
गाड़ कर कुछ
मजबूत खूँटे
जो बहुत है
कमजोर समय के
कमजोर शब्दों पर
लटके हुऐ यथार्थ
को दिखाने के लिये
ढेर सारे आईने
विनम्र श्रद्धांजलि
विरेन डंगवाल
'उलूक' की अपनी
समझ के अनुसार।


चित्र साभार: http://currentaffairs.gktoday.in/renowned-hindi-poet-viren-dangwal-passes-09201526962.html

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

औरों के जैसे देख कर आँख बंद करना नहीं सीखेगा किसी दिन जरूर पछतायेगा

थोड़ा
कुछ सोच कर
थोड़ा
कुछ विचार कर

लिखेगा तो

शायद
कुछ अच्छा
कभी लिख
लिया जायेगा

गद्य हो
या पद्य हो
पढ़ने वाले
के शायद

कुछ कभी
समझ में
आ ही जायेगा

लेखक
या कवि
ना भी कहा गया

कुछ
लिखता है
तो कम से कम
कह ही दिया जायेगा

देखे गये
तमाशे को
लिखने पर

कैसे
सोच लेता है

कोई
तमाशबीन
आ कर
अपने ही
तमाशे पर
ताली जोर से
बजायेगा

जितना
समझने की
कोशिश करेगा
किसी सीधी चीज को

उतना
उसका उल्टा
सीधा नजर आयेगा

अपने
हिसाब से
दिखता है
अपने सामने
का तमाशा
हर किसी को

तेरे
चोर चोर
चिल्लाने से
कोई थानेदार
दौड़ कर
नहीं चला आयेगा

आ भी गया
गलती से
किसी दिन
कोई भूला भटका

चोरों के
साथ बैठ
चाय पी जायेगा

बहुत ज्यादा
उछल कूद
करेगा ‘उलूक’
इस तरह से हमेशा

लिखना
लिखाना
सारा का सारा
धरा का धरा
रह जायेगा

किसी दिन
चोरों की रपट
और गवाही पर
अंदर भी कर
दिया जायेगा

सोच
कर लिखेगा

समझ
कर लिखेगा

वाह वाह
भी होगी

कभी
चोरों का
सरदार

इनामी
टोपी भी
पहनायेगा । 


चित्र साभार: keratoconusgb.com

गुरुवार, 2 जुलाई 2015

सारे पढे‌ लिखे लिखते हैं कविता और कवि भी होते हैं

टेढ़ा मेढ़ा
लिखा हुआ
हो कहीं पर
जिसका कोई
मतलब नहीं
निकल रहा हो


जरूरी नहीं
होता है
कि वो एक
कवि का
लिखा हुआ
लिखा हो

जिसे कविता
कहना शुरु
कर दिया
जाये और
तुरन्त ही
कुछ लोग
दूसरे लिखने
पढ़ने वाले
करने लगें
चीर फाड़

जैसे गलत
तरीके
से मर गये
या
मार दिये
गये जानवर
या
आदमी को
खोल कर
देखा जाता है
मरने के बाद

जिसे कहा
जाता है
हिंदी में
शव परीक्षा

इसलिये यहाँ
पोस्टमोर्टम
कहना उचित
प्रतीत होता है

चलन में है
और
पढ़ा लिखा
वैसे भी
हिंदी में
कहे गये को
कम ही
समझता है

अब ‘उलूक’
क्या जाने
ये भी कवि है
और
वो भी कवि है

सब कविता
लिखते हैं
अपनी अपनी
इसमें दोष
किसका है

उसका
जो कवि है
या उसका
जिसको
आदत है

वो मजबूरी
में किसी
रोज कुछ
ना कुछ
जो लिख
मारता है

कभी
कुत्ते पर
कभी
चूहे पर
और कभी
उसी तरह के
किसी
जानवर पर
जिसके
नसीब में
कुर्सी लिखी
होती है

लेकिन इन
सब में
एक बात
अटल सत्य है

टेढ़ा मेढ़ा
लिखने वाला
गलती से
लिखना पढ़ना
सीख भी
गया हो
कभी झूठ
नहीं बोलता है

उससे
कभी नहीं
कहा जाता
है कि
उसका
किसी कवि
से ही
ना ही किसी
कविता से ही

भगवान
कसम
कहीं कोई
रिश्ता
होता है

सब कवि
होते हैं
जो कविता
करते हैं

सबसे बड़े
बेवकूफ
तो वही
होते हैं  ।

चित्र साभार: www.stmatthiaschool.org

गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

दो अप्रैल का मजाक

लिखे हुऐ के पीछे
का देखने की और
उस पीछे का
पीछे पीछे ही
अर्थ निकालने
की आदत पता नहीं
कब छूटेगी
इस चक्कर में
सामने से लिखी
हुई इबारत ही
धुँधली हो जाती है
लेकिन मजबूरी है
आदत बदली ही
कहाँ जाती है
हो सकता है
सुबह नींद से
उठते उठते
संकल्प लेने
से कोई कविता
नहीं लिखी जा
सकती हो
पर प्रयास करने
में कोई बुराई
भी नहीं है
कुछ भी नहीं
करने वाले लोग
जब कुछ भी
कह सकते हैं
और उनके इस
कहने के अंदाज का
अंदाज लगाकर
कौऐ भी किसी
भी जगह के
उसी अंदाज में
जब काँव काँव
कर लेते है
और जो कौऐ
नहीं होकर भी
सारी बात को
समझ कर
ताली बजा लेते हैं
तो हिम्मत कर
‘उलूक’ कुछ
लगा रह
क्या पता
किसी दिन
इसी तरह
करते करते
खुल जाये
तेरी भी लाटरी
किसी दिन
और तेरा लिखा
हुआ कुछ भी
कहीं भी
दिखने लगे
किसी को भी
एक कविता
हा हा हा ।

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

मंगलवार, 21 अक्टूबर 2014

ये सब चंद्रमा सुना है कराता है एक ही चीज को दिखा कर एक को कवि एक को पागल बनाता है




आदरणीय देवेंद्र पाण्डेय जी ने कहा,

“आप के लेखन की निरंतरता प्रभावित करती है” 

और
ठीक उसी समय 
कहीं लिखा देखा 

आदरणीय ज्योतिष सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी जी कह रहे हैं :-

“एक होता है साहित्‍यकार और एक होती है साहित्‍य की दुकान। अब चूंकि मैं ज्‍योतिषी हूं तो ज्‍योतिष की बात भी कर लेते हैं। साहित्‍यकारों में एक होते हैं कवि, मैंने आमतौर पर कवियों का चंद्रमा खराब ही देखा है। बारहवें भाव में चंद्रमा हो तो जातक एक कॉपी छिपाकर रखता है, जिसमें कविताएं भी लिखता है”। 

मुझे भी महसूस हुआ 
कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है ? 
आप का चंद्रमा कहाँ है 
आपने कभी देखा है ? 
*******************

कोशिश
बहुत होती है 
हाथ रोकने की 
कि
ना लिखा जाये 

इस तरह 
रोज का रोज 

सब कुछ 
और
कुछ भी 
पर

चंद्रमा का 
मुझको कुछ 
पता नहीं था 

किसी ने
समझाया 
भी
नहीं था कभी 

ना ही मेरे 
चंद्रमा को ही 

वो तो अच्छा रहा 
जब देख बैठा 
मैं भी
भाव उसका 
बारहवें भाव पर 
तो नहीं था 

ना ही नजर थी 
उसकी उस भाव पर 
जहाँ होने से ही 
कोई कवि हो 
बैठता था 

वैसे
होता भी कैसे 
मेरे खानदान 
में तक जब कोई 
कवि कभी भी 
पैदा नहीं हुआ था 

छिपा कर रखी हो 
कहीं कोई कापी 
किसी ने कभी भी 
ऐसा भी नहीं था 

हाँ दुकान एक 
जरूर
पता नहीं 
कब और कैसे 
किस जुनून में 
खोल बैठा था 

वैसे
किसी ने 
बेचने के लिये भी 
कभी कुछ 
नहीं कहा था 

बेच भी नहीं पाया 
कुछ भी किसी को 

ग्राहक
कोई भी 
कहीं भी कभी भी 
मिला ही नहीं था 

अच्छा हुआ 
चंद्रमा बाराहवाँ 
जो नहीं था 

उसे भी पता था 
मुझे कभी भी 
कवि होना नहीं था 

पागल
होने ना होने 
का पता नहीं था 

ज्योतिष ने 
सब कुछ
भी तो 
कह देना नहीं था । 

चित्र साभार: http://www.picturesof.net

सोमवार, 25 अगस्त 2014

गलतफहमी में ही सही लेकिन कभी कोई ऐसे ही कुछ समझ चुका है जैसा नजर आने लगता है थोड़ी देर के लिये ही सही

कुछ तो
अच्छा ही
लगता होगा

एक
गूँगे बहरे को

जब

उसे
कुछ देर
के लिये
ही सही

महसूस
होता होगा

जैसे
उसके
इशारों को
थोड़ा थोड़ा

उसके
आस पास के

सामान्य
हाथ पैर
आँख नाक कान
दिमाग वाले

समझ
रहे हों
के जैसे
भाव देना
शुरु करते होंगे

समझ में
आता ही होगा

किसी
ना किसी को

कि एक
छोटी सी
बात को
बताने के लिये

उसके पास
शब्द कभी भी
नहीं होते होंगे

कहना
सुनना बताना
सब कुछ
करना होता होगा उसे

हाथ की
अँगुलियों से ही

या कुछ कुछ
मुँह बनाते हुऐ ही

बहुत
खुशी
झलकती होगी
उसके चेहरे पर

बहुत सारे
लोग नहीं भी

बस
केवल एक ही
समझ लेता होगा
उसकी बात को
उसके भावों को

या
दर्द और खुशी
के बीच की

उसकी
कुछ यात्राओं को

सोच भी
कभी कभी
एक ऐसा
बहुत छोटा
सा बच्चा
हो जाती है

जो एक
टेढ़ी मेढ़ी
लकड़ी को

एक
खिलौना
समझ कर
ताली बजाना
शुरु कर देता हो

कुछ भी
कैसे भी कहा जाये

सीधे सीधे
ना सही
कुछ इशारों
में ही सही

जरूरी नहीं है

अपनी
बात को
कहने के लिये
एक कवि या
लेखक हो जाना
हमेशा ही

लेकिन
बिना पूँछ के
बंदर के नाच पर भी

कभी
किसी दिन
देखने वाले
जरूर ध्यान देते हैं

अगर
वो रोज
नाचता है

‘उलूक’

किसी
दिन तुझे

इस तरह
का लगने
लगता है
कुछ कुछ
अगर

खुश
हो
लिया कर
तू भी
थोड़ी देर
के लिये
ही सही ।

रविवार, 10 अगस्त 2014

कभी उनकी तरह उनकी आवाज में कुछ क्यों नहीं गाते हो



गनीमत है 
कवि लेखक कथाकार गीतकार 
या 
इसी तरह का कुछ हो जाने की सोच 
भूल से भी पैदा नहीं हुई कभी 

मजबूत लोग होते हैं 
लिखते हैं लिखते हैं लिखते चले जाते हैं 
कविता हो कहानी हो नाटक हो या कुछ और 
ऐसे वैसे लिखना शुरु नहीं हो जाते हैं 

एक नहीं कई कोण से शुरु करते हैं 
कान के पीछे से कई बार 
लेखनी निकाल कर सामने ले आते हैं 

कई बार फिर से कान में वापस रख कर 
उसी जगह से सोचना शुरु हो जाते हैं 
जहाँ से कुछ दिन पहले हो कर 
दो चार बार कम से कम पक्का कर आते हैं 

लिखने लिखाने के लिये
आँगन होना है दरवाजा होना है खिड़की होनी है 
या बस खाली पीली किसी एक सूखे पेड़ पर यूँ ही पूरी 
नजर गड़ा कर वापस आ जाते हैं 

एक नये मकान बनाने के तरीके होते हैं कई सारे 
बिना प्लोट के ऐसे ही तो नहीं बनाये जाते हैं 

बड़े बड़े बहुत बड़े वाले जो होते हैं 
पोस्टर पहले से छपवाते हैं 
शीर्षक आ जाता है बाजार में 
कई साल पहले से बिकने को 

कोई नहीं पूछता बाद में 
मुख्य अंश लिखना क्यों भूल जाते हैं

सब तेरी तरह के नहीं होते ‘उलूक’ 
तुम तो हमेशा ही बिना सोचे समझे 
कुछ भी लिखना शुरु हो जाते हो 

पके पकाये किसी और रसोईये की रसोई का भात 
ला ला कर फैलाते हो 

विज्ञापन के बिना छपने वाले 
एक श्रेष्ठ लेखकों के लेखों से भरा हुआ अखबार बन कर 

रोज छपने के बाद 
कूड़े दान में बिना पढ़े पढ़ाये पहुँचा दिये जाते हो 

बहुत चिकने घड़े हो यार 
इतना सब होने के बाद भी 
गुरु फिर से शुरु हो जाते हो ।

रविवार, 13 जुलाई 2014

क्या किया जाये कैसे बताऊँ कि कुछ नहीं किया जाता है

कहना तो नहीं
पड़ना चाहिये कि
मैं शपथ लेता हूँ
कि लेखक और
कवि नहीं हूँ
कौन नहीं लिखता है
सब को आता है लिखना
बहुत कम ही होते हैं
नाम मात्र के जो
लिख नहीं पाते हैं
लेकिन बोल सकते हैं
इसलिये कुछ ना
कुछ हल्ला गुल्ला
चिल्लाना कर ही
ले जाते हैं
अब लिखते लिखते
कुछ ना कुछ
बन ही जाता है
रेखाऐं खींचने वाला
टेढ़ी मेढ़ी तक
मार्डन आर्टिस्ट
एक कहलाता है
कौन किस मनोदशा
में क्या लिखता है
कौन खाली मनोदशा
ही अपनी लिख पाता है
ये तो बस पढ़ने और
समझने वाले को ही
समझना पड़ जाता है
एक ऐसा लिखता है
गजब का लिखता है
लिखा हुआ ही उसका
एक तमाचा मार जाता है
लात लगा जाता है
‘उलूक’ किसी की
 मजबूरी होती है
सब जगह से जब
तमाचा या लात
खा कर आता है
तो कुछ ना कुछ
लिखने के लिये
बैठ जाता है
बुरा और हमेशा बुरा
लिखने की आदत
वैसे तो बहुत
अच्छी नहीं होती है
पर क्या किया जाये
जब सड़क पर
पड़ी हुई गंदगी को
सौ लोग नाँक भौं
सिकौड़ कर थूक कर
किनारे से उसके
निकल जाते हैं
कोई एक होता ही है
जो उस गंदगी को
हाथ में उठाकर
घर ले आता है
और यही सब उसके
संग्राहलय का एक
महत्वपूर्ण सामान
हो जाता है
जो है सो है और
सच भी है
सच को सच
कहने से बबाल
हो ही जाता है
कविता तो कवि
लिखता है
उसको कविता
लिखना आता है ।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

चित्रकार का चित्र / कवि की कविता

तूलिका के 
छटकने भर से 
फैल गये रंग चारों तरफ 

कैनवास पर 
एक भाव बिखरा देते हैं 
चित्रकार की कविता चुटकी में बना देते हैं 

सामने वाले के लिये 
मगर होता है बहुत मुश्किल ढूँढ पाना 

अपने रंग 
उन बिखरे हुवे इंद्रधनुषों में अलग अलग 

किसी को नजर आने शुरु हो जाते हैं 
बहुत से अक्स आईने की माफिक 
तैरते हुऎ जैसे होंं उसके अपने सपने 

और कब अंजाने में 
निकल जाता है उसके मुँह से वाह !

दूसरा उसे देखते ही सिहर उठता है 

बिखरने लगे हों जैसे उसके अपने सपने 
और लेता है एक ठंडी सी आह !

दूर जाने की कोशिश करता हुआ 
डर सा जाता है 
उसके अपने चेहरे का रंग 
उतरता हुआ सा नजर आता है 

किसी का किसी से 
कुछ भी ना कहने के बावजूद 
महसूस हो जाता है 

एक तार का झंकृत होकर 
सरगम सुना देना 
और एक तार का 
झंकार के साथ उसी जगह टूट जाना 

अब अंदर की बात होती है 
कौन किसी को कुछ बताता है 

कवि की कविता और चित्रकार का एक चित्र 
कभी कभी यूँ ही बिना बात के
 एक पहेली बन जाता है ।

 चित्र साभार: 
https://www.kisscc0.com/