लकड़ी
पर चढ़ी
पर चढ़ी
एक
मरे जानवर
की खाल हो
खूँटियों
पर कसे
कुछ
लोहे के
तार हों
कर्णप्रिय
संगीत
लहरियाँ हों
ढोलक हो
सितार हो
जिंदा
शरीर
के गले से
निकलता
सुरीला
संगीत हो
नर्तकी के
कोमल पैरों में
बंधे घुँघरूओं
की खनकती
आवाज हो
जरूरी
होता है
कहीं ना कहीं
कुछ खोखला होना
और
होना
होता है
किसी को
पारंगत
पीटने में
या
खींचनें में
आना
होता है
खोखलेपन से
निकलते हुऐ
खालीपन को
दिशा देना
आसान
नहीं होता है
अपने
अंदर से
निकलती हुई
आवाजों को
खुद ही सुनना
और
खुद ही समझना
कुछ
काम नहीं आता
जिंदगी का
पीटने और
खींचने में
पारंगत
हो जाना
कौन
बता पाता है
उसे
कब समझ
में आता है
अपने
खुद के ही
अंदर का
सबकुछ
खाली हो जाना
और
उसी पल
खालीपन से
सब कुछ
भर भरा जाना
खोखला
हो जाने
के बावजूद भी
संगीत का
बहुत ही
बेसुरा
हो जाना ।