उलूक टाइम्स: खोखला
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गुरुवार, 3 जुलाई 2014

किसी ने तो देखा सुना होगा किसी का ढोलक या सितार हो जाना

लकड़ी
पर चढ़ी 

एक
मरे जानवर
की खाल हो

खूँटियों
पर कसे

कुछ
लोहे के
तार हों

कर्णप्रिय
संगीत
लहरियाँ हों
ढोलक हो
सितार हो

जिंदा
शरीर
के गले से
निकलता
सुरीला
संगीत हो

नर्तकी के
कोमल पैरों में
बंधे घुँघरूओं
की खनकती
आवाज हो

जरूरी
होता है
कहीं ना कहीं
कुछ खोखला होना

और
होना
होता है
किसी को
पारंगत
पीटने में
या
खींचनें में

आना
होता है
खोखलेपन से
निकलते हुऐ
खालीपन को
दिशा देना

आसान
नहीं होता है

अपने
अंदर से
निकलती हुई
आवाजों को
खुद ही सुनना
और
खुद ही समझना

कुछ
काम नहीं आता

जिंदगी का
पीटने और
खींचने में
पारंगत
हो जाना

कौन
बता पाता है

उसे
कब समझ
में आता है

अपने
खुद के ही
अंदर का
सबकुछ
खाली हो जाना

और
उसी पल
खालीपन से
सब कुछ
भर भरा जाना

खोखला
हो जाने
के बावजूद भी

संगीत का
बहुत ही
बेसुरा
हो जाना ।