उलूक टाइम्स

सोमवार, 22 दिसंबर 2014

चाय की तलब और गलत समय का गलत खयाल

अपने सामने 
मेज पर पड़े
खाली चाय के एक कप को
देख 
कर लगा

शायद
चाय 
पी ली है
फिर लगा नहीं पी है

अब चाय 
पी या नहीं 
कैसे पता चले
थोड़ी देर सोचा याद नहीं आया
फिर झक मार कर
रसोई की ओर 
चल देने का 
विचार एक बनाया

पत्नी दिखी 
तैयारी में लगी हुई शाम के भोजन की
काटती हुई कुछ हरे पत्ते
सब्जी 
के लिये चाकू हाथ में ली हुई

गैस के चूल्हे के 
सारे चूल्हे दिखे
कुछ तेज और कुछ धीमे जले हुऐ

हर चूल्हे के ऊपर  
चढ़ा हुआ दिखा एक बरतन
किसी से निकलती हुई भाप दिखाई दी
और किसी से आती हुई कुछ कुछ
पकने उबलने की आवाज सुनाई दी

बात अब एक कप 
चाय की नहीं रह गई
लगा जैसे
जनता के बीच 
बिना कुछ किये कराये
एक मजबूत सरकार की हाय हाय की हो गई

थोड़ी सी हिम्मत जुटा 
पूछ बैठा

कुछ याद है 
कि मैंने चाय पी या नहीं पी
पिये की याद नहीं आ रही है
और दो आँखें 
सामने से एक
खाली कप चाय का दिखा रही हैं

श्रीमती जी ने 
सिर घुमाया
ऊपर से नीचे हमे पूरा देखकर
पहले टटोला 
फिर अपनी नजरों को
हमारे चेहरे 
पर टिकाया 

और कहा

बस यही
होना 
सुनना देखना बच गया है
इतने सालों में 
समझ में कुछ कुछ आ भी रहा है

पढ़ पढ़ कर
तुम्हारा 
लिखा लिखाया
इधर उधर कापियों में किताबों में दीवालों में
सब नजर के सामने घूम घूम कर आ रहा है

पर बस
ये ही समझ में 
नहीं आ पा रहा है
किसको कोसना पड़ेगा
हो रहे
इन सब 
बबालों के लिये

उनको
जिनको 
देख देख कर
तुम लिखने लिखाने का रोग पाल बैठे हो
या
उन दीवालों किताबों 
और कापियों को
जिन पर
लिखे हुऐ 
अपने कबाड़ को
बहुत कीमती कपड़े जैसा समझ कर
हैंगर में टाँक बैठे हो

कौन समझाये 
किसे कुछ बताये

एक तरफ एक आदमी
डेढ़ सौ करोड़ को पागल बना कर
चूना लगा रहा है

और
एक तुम हो
जिसे आधा घंटा पहले पी गई चाय को भी
पिये का 
सपना जैसा आ रहा है

जाओ
जा कर 
लिखना शुरु करो
फिर किसी की कहानी का 
कबाड़खाना

चाय
अब दूसरी 
नहीं मिलने वाली है
आधे घंटे बाद 
खाना बन जायेगा
खाने की मेज पर आ जाना ।

चित्र साभार: pngimg.com

रविवार, 21 दिसंबर 2014

खुद को ढूँढने के लिये खोना जरूरी है

एक नहीं
कई बार
होता है
आभास
भटकने का

समझ में
भी आता
है बहुत


साफ साफ
दिखता
भी है


जैसे

साफ
निर्मल
पानी में
अपना
अक्स ही
इनकार
करता हुआ
खुद ही का
प्रतिबिम्ब
होने से

बस
थोड़े से
लालच
के कारण
जिसे
स्वीकार
करना
मुश्किल
होता है
और
हमेशा
की तरह
कोशिश
व्यर्थ
चली
जाती है

बेचने की
एक
सत्य को
पता होने
के
बावजूद भी
कि
सत्य कभी
भी नहीं
बिका है

बिकता
हमेशा
झूठ ही
रहा है
और
वो भी
कम कम
नहीं
हमेशा ही
बहुत ऊँचे
दामों में
बिना किसी
बाजार
और
दुकान में
सजे हुऐ

जिसे खरीदते
समय किसी
को भी कभी
थोड़ी सी भी
झिझक
नहीं होती है

सोच और
कलम के
लिये कभी
कहीं कोई
बाजार
ना हुआ है
ना कभी होगा

फिर भी
गुजरते हुऐ
बाजारों के बीच
लटके हुऐ
झूठे इनामों
सम्मानों
दुकानों की
चकाचौंध

और

ठेकेदारों की
निविदाओं के
लिये लगाई
जा रही
बोलियों से
जब भी
कलम लेखन
और
लेखक का ध्यान
भटकता है

थोड़ी देर के
लिये ही सही
सत्य नंगा
हो जाता है

खुद का खुद
के लिये
खुद के ही
सामने

और

रास्ता
दिखना
शुरु हो
जाता है
तेज रोशनी
से चौधिया
के अंधी
हो गई
आँखो
को भी ।


चित्र साभार: www.gograph.com

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

पढ़ना जरूरी नहीं हर खत पढ़ दिया तो पढ़ कर मुँह नहीं बनाने का

ठहर जाना
कलम का
विश्राम
लेखन का
विचार शून्य
हो जाना
लेखक की खुद
की सोच का
संकेत नींद के
खुद ही
सो जाने का
ख्वाब देखने में
ऐसा भी कभी
किसी दिन
मौज में ही सही
कोई सौदा नहीं
नफा नुकासन
उठाने का
जैसे होते होते
किसी बात के
हो जाने का
खबर का
फैलने से पहले
सिकुड़ जाने का
वाकये का
अपनी नजर से
गुजरते गुजरते
आकाश
हो जाने का
कुछ भी किया
जा सकने की
ताकत पैदा
करने की
अपने अंदर
कोशिश करने
की एक पहल
कर लेने की
सोच बना
ले जाने का
मुद्दे खोजने
से अच्छा
मुद्दे पकड़ कर
जमीन पर
बैठ जाने का
पूरा अंगद
हो जाने से
पहले उसके
पैर का चित्र
बना बना कर
हर किसी के
दिमाग में
बैठाने का
हर किसी को
नहीं होता है
तजुर्बा
हर तरह का
‘उलूक’
समझने की
कोशिश में
अपने ही
आसपास की
हवा धूल
मिट्टी पानी
बहुत ही उम्दा
रास्ता है
बिना खबर
किये किसी को
दीवाना हो कर
किसी भी बात पर
बेखबर हो कर
खुद की दीवानगी का
झंडा खुद ही
लहराने का
और ढिंढोरा पीटते
चले जाने का
खाली पड़ी
सालों से
किसी गली में
जा कर
बिना आवाज
के सही
कुछ देर
अपने ही गाल
अपने ही हाथों
से बजाने का ।

चित्र साभार: www.clipartof.com

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

मजाक है

उसके आते ही
सबको इतनी 
शरम आई 
कि सबने 
छोड़ दी 
सिगरेट दारू
गुटखा सुरती
मुझे विश्वास 
नहीं रह 
गया अब 
खुद पर 
मेरे झूठ 
मुझे कब से
लात मार
रहे हैं 
और हंस
रहे हैं 
चिल्ला रहे हैं 
बेवकूफ बेवकूफ
मुझे पता है
जो बात
उस पर
ध्यान देना 
अच्छी बात
नहीं है 
और आपको भी
इस बात  पर 
ज्यादा ध्यान 
नहीं देना चाहिये 
टिप्प्णी करने से 
भी परहेज करें ।

रविवार, 14 दिसंबर 2014

क्या किया जाता है जब सत्य कथाओं की राम नाम हो रही होती है

ज्यादातर कही
जाने वाली
कथायें
सत्य कथायें
ही होती हैं
जिंदगी
पता नहीं
चल पाता है
कब एक बच्चे
से होते होते
जवाँ होती है
समझ में आने
के लिये
बहुत सी बातें
चलते चलते
सीखनी होती है
कुछ कथनी करनी
एक मजबूरी
होती है और
कुछ करनी कथनी
जरूरी होती है
रात किसी दिन
सोते समय
अचानक बाहर
आवाज होती है
जब कुछ
आसामाजिक
तत्वों की
अंधेरे में
खुद ही के
किसी साथी से
मुटभेड़ होती है
समझ में आती
है बात जब तक
शाँति हो
चुकी होती है
बाहर निकल कर
देखने पर
दिखता है
मार खाई हुई
खून से लथपथ
एक जान
आँगन में अपने
पड़ी होती है
कुछ समझ में
नहीं आता है
और फिर पास
के थाने के
थानेदार से
दूरभाष पर
बात होती है
थानेदार को
घटना से ज्यादा
अपने बारे में
बताने की
पड़ी होती है
साथ में
फँला फँला से
उसके बारे में
पूछ लेने की
राय भी होती है
मुँह पर हँसी और
समझ अपनी
रो रही होती है
अपनी पहचान
भी उसको
बताने की
बहुत ज्यादा
खुद को भी
पड़ी होती है
कैसे बताया
जाये उसको
बस उसकी
उधेड़बुन सोच
बुन रही होती है
देश के प्रधानमंत्री
की डेढ़ सौ करोड़
की सूची की तरफ
उसका ध्यान
खींचने के लिये
किसी एक
तरकीब की
जरूरत हो
रही होती है
एक बड़े बन
चुके आदमी
के सामने
एक छोटे आदमी
की छोटी सोच
बस अपने
ही घर में
डरी डरी सी
रो रही होती है ।

चित्र साभार: weeklyvillager.com