एक नहीं
कई बार होता है
आभास भटकने का
समझ में भी आता है
बहुत साफ साफ दिखता भी है
 जैसे साफ निर्मल पानी में
अपना अक्स ही इनकार करता हुआ
खुद ही का प्रतिबिम्ब होने से
बस थोड़े से लालच के कारण
जिसे स्वीकार करना मुश्किल होता है
और हमेशा की तरह
कोशिश व्यर्थ चली जाती है
बेचने की एक सत्य को
पता होने के बावजूद भी
कि सत्य कभी भी नहीं बिका है
बिकता हमेशा झूठ ही रहा है
और वो भी कम कम नहीं
हमेशा ही बहुत ऊँचे दामों में 
बिना किसी बाजार और
दुकान में सजे हुऐ
जिसे खरीदते समय
किसी को भी कभी
थोड़ी सी भी झिझक
नहीं होती है
सोच और कलम के लिये
कभी कहीं कोई बाजार
ना हुआ है ना कभी होगा
फिर भी गुजरते हुऐ
बाजारों के बीच लटके हुऐ 
झूठे इनामों सम्मानों की 
दुकानों की चकाचौंध
और ठेकेदारों की
निविदाओं के लिये
लगाई जा रही बोलियों से
जब भी कलम लेखन 
और लेखक का ध्यान भटकता है
थोड़ी देर के लिये ही सही
सत्य नंगा हो जाता है
खुद का खुद के लिये
खुद के ही सामने
और रास्ता दिखना शुरु हो जाता है
तेज रोशनी से चौंधिया के अंधी
हो गई आँखो को भी ।
चित्र साभार: www.gograph.com
 

 
 
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंउम्दा प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना 🙏
जवाब देंहटाएंसही कहा है आपने, सत्य सदा ही रहता है, ध्यान ही नहीं जाता उस पर, जिस पल दुनिया से हटे ध्यान, उसी पल वह उजागर हो जाता है, पर उसका सामना करने और उस पर टिके रहने के लिये जिस इच्छा शक्ति की ज़रूरत है, वह कहीं बाज़ार में नहीं मिलती, उसे तो भीतर जगाना पड़ता है
जवाब देंहटाएंसच की पैनी नज़र !
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