उलूक टाइम्स

बुधवार, 19 सितंबर 2012

महापुरुष

बहुत कुछ कहें
या सब कुछ
कोई फर्क
नहीं होता है
एक महापुरुष
के पास जितना
अपना होता है
कहीं भी नहीं
उतना होता है
लिखना शुरु हो जाये
भरते चले जाते हैं
गागर सागरों से
जाते जाते अगर
लिख भी जाता है
जीवनवृतांत
कुछ नदियाँ नीर भरी
नीली नीली सी
फैल जाती हैं
गागर फिर भी
छलकता हुआ ही
नजर आता है
बचा हुआ भी इतना
ज्यादा होता है
एक दूसरा शख्स
उसपर उसकी
आत्मकथा लिख
ले जाता है
पन्ने दर पन्ने
किताब से किताब
होता हुआ वो कहीं
से शुरु होता हुआ
कहीं भी खत्म
नहीं हो पाता है
आज हर शख्स
अपने में एक
महापुरुष पाता है
एक पन्ना लिखना
भी चाहे तो भी
पूरा नहीं कर पाता है
महापुरुषों की
श्रेणी में फिर भी
आने का जुगाड़
लगाने का कोई
भी मौका नहीं
गवाना चाहता है ।