उलूक टाइम्स

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

अपना अपना देखना अपना अपना समझना हो जाता है

एक चीज मान लो
कलगी वाला एक
मुर्गा ही सही
बहुत से लोगों
के सामने से
मटकता हुआ
निकलता है
कुछ को दिखता है
कुछ को नहीं
भी दिखता है
या कोई देखना
नहीं चाहता है
जिनको देखना ही
पड़ जाता है
उनको पता
नहीं चलता है
मुर्गे में क्या
दिखाई दे जाता है
अब देखने का
कोई नियम भी तो
यहाँ किसी को
नहीं बताया जाता है
जिसकी समझ में
जैसा आता है
वो उसी हिसाब से
हिसाब लगा कर
उतना ही मुर्गा
देख ले जाता है
बात तो तब
बिगड़ती है जब
सब से मुर्गे
की बात को
लिख देने को
कह दिया जाता है
सबसे मजे में
वो आ जाता है
जो कह ले जाता है
मुर्गा क्या होता है
उसको बिल्कुल
भी नहीं आता है
बाकी सब
जिन के लिये
लिखना एक मजबूरी
ही हो जाता है
वो एक दूसरा क्या
लिख रहा है
देख देख कर भी
अलग अलग बात
लिख जाता है
देखे गये मुर्गे को
हर कोई एक मुर्गा
ही बताना चाहता है
इसके बावजूद भी
किसी के लिखे में
वो एक कौआ
किसी में कबूतर
किसी में मोर
हो जाता है
पढ़ने वाला जानता
है अच्छी तरह
कि मुर्गा ही है
जो इधर उधर
आता जाता है
लेकिन पढ़ने के
बावजूद उसकी
समझ में किसी
के लिखे में से
कुछ भी
नहीं आता है
क्या फरक
पड़ना है
'उलूक' बस यही
कह कर चले जाता है
लिखने वाला अपने
लिखे के लिये ही
जिम्मेदार माना जाता है
पढ़ने वाले का उसका
कुछ अलग मतलब
निकाल लेना उसकी
अपनी खुद की
जिम्मेदारी हो जाता है
इसी से पता चल
चल जाता है
मुर्गा देखने
मुर्गा समझने
मुर्गा लिखने
मुर्गा पढ़ने में
कोई सम्बंध
आपस में
कहीं नजर
नहीं आता है ।