उलूक टाइम्स: जिम्मेदारी
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मंगलवार, 25 अगस्त 2015

बाजार गिरा है अपने घर पर रहो उसे संभाल दो

बहुत कुछ गिरता है
पहले भी गिरता था

गिरता चला आया है
आज भी गिर रहा है 

कोई नई चीज तो
नहीं गिरी है
हल्ला किस बात का


अब जिम्मेदारी होती है
इसका मतलब
ये नहीं होता है
सब चीज की जिम्मेदारी
एक के सर पर डाल दो
अंडे की तरह छिलके
सहित कभी भी उबाल दो

घर की जिम्मेदारी
कुछ अलग होती है

स्कूल कालेज हस्पताल
सड़क हवा पानी बिजली
दीवाने और दीवानी
फिलम की कहानी

गिनाने पर आ जाये कोई
तो गिनती करने की
जिम्मेदारी भी होती है

पिछले साठ सालों में
उसने और उसके लोगों ने 
कितनी बार गिराई
जान बूझ कर गिराई
तब तो कोई नहीं चिल्लाया

छोटी छोटी बनाता था
रोज गिराता था
आवाज भी नहीं आती थी
बात भी रह जाती थी

अब इसको क्या पता था
गिर जायेगी
बड़ी बड़ी खूब लम्बी चौड़ी
अगर बना दी जायेगी

अब गिर गई तो गिर गई
बाजार ही तो है
कल फिर खड़ी हो जायेगी

अभी गिरी है
चीन या अमेरिका के
सिर पर डाल दो
खड़ी हो जायेगी

तो फिर आ कर
खड़े हो जाना
बाजार के बीचों बीच

अभी पतली गली से
खबर को पतला कर
सुईं में डालने वाले
धागे की तरह
इधर से उधर निकाल दो 


उलूक को ना बाजार
समझ में आता है
ना उसका गिरना गिराना

रोज की आदत है उसकी
बस चीखना चिल्लाना

हो सके तो उसकी कुण्डली
कहीं से निकलवा कर
उसके जैसे सारे उल्लुओं को

इसी बात पर साधने का
सरकारी कोई आदेश
कहीं से निकाल दो ।

चित्र साभार:
www.clipartpanda.com


शनिवार, 22 मार्च 2014

शब्दों के कपड़े उतार नहीं पाने की जिम्मेदारी तेरी हो जाती है

हमाम में आते 
और जाते रहना
बाहर आकर कुछ और कह देना
आज से नहीं सालों साल से चल रहा है
कमजोर कलेजे पर खुद का जोर ही नहीं चल रहा है

थोड़ी सी हिम्मत 
किसी रोज  बट भी कभी जाती है
बताने की बारी आती है तो
गीले हो गये पठाके की तरह फुस्स हो जाती है

नंगा होना हमाम 
के अंदर
शायद 
जरूरी होता है हर कोई होता है
शरम थोड़ी सी भी नहीं आती है
कपड़े पहन कर पानी की बौछारें
वैसे भी कुछ कम कम ही झेली जाती हैं

बहुत से कर्मो 
के लिये
शब्द 
ही नहीं होते कभी पास में
शब्द के अर्थ होने से भी
कोई बात समझ में आ जानी जरूरी नहीं हो जाती है

सभी नहाते हैं 
नहाने के लिये ही हमाम बनाने की जरूरत हो जाती है
शब्दों को नँगा कर लेने जैसी बात
किसी से 
कभी भी कहीं भी नहीं कही जाती है

हमाम में 
नहाने वाले से
इतनी बात जरूर सीखी जाती है
खुद कपड़े उतार भी ले कोई सभी अपने 'उलूक'
आ ही जानी चाहिये
इतने सालों में तेरे खाली दिमाग में
बात को कपड़े पहना कर बताने की कला
बिना हमाम में रहे और नहाये
कभी 
भी नहीं किसी को आ पाती है ।

चित्र साभार: http://clipart-library.com/

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

अपना अपना देखना अपना अपना समझना हो जाता है

एक चीज मान लो
कलगी वाला एक
मुर्गा ही सही
बहुत से लोगों
के सामने से
मटकता हुआ
निकलता है
कुछ को दिखता है
कुछ को नहीं
भी दिखता है
या कोई देखना
नहीं चाहता है
जिनको देखना ही
पड़ जाता है
उनको पता
नहीं चलता है
मुर्गे में क्या
दिखाई दे जाता है
अब देखने का
कोई नियम भी तो
यहाँ किसी को
नहीं बताया जाता है
जिसकी समझ में
जैसा आता है
वो उसी हिसाब से
हिसाब लगा कर
उतना ही मुर्गा
देख ले जाता है
बात तो तब
बिगड़ती है जब
सब से मुर्गे
की बात को
लिख देने को
कह दिया जाता है
सबसे मजे में
वो आ जाता है
जो कह ले जाता है
मुर्गा क्या होता है
उसको बिल्कुल
भी नहीं आता है
बाकी सब
जिन के लिये
लिखना एक मजबूरी
ही हो जाता है
वो एक दूसरा क्या
लिख रहा है
देख देख कर भी
अलग अलग बात
लिख जाता है
देखे गये मुर्गे को
हर कोई एक मुर्गा
ही बताना चाहता है
इसके बावजूद भी
किसी के लिखे में
वो एक कौआ
किसी में कबूतर
किसी में मोर
हो जाता है
पढ़ने वाला जानता
है अच्छी तरह
कि मुर्गा ही है
जो इधर उधर
आता जाता है
लेकिन पढ़ने के
बावजूद उसकी
समझ में किसी
के लिखे में से
कुछ भी
नहीं आता है
क्या फरक
पड़ना है
'उलूक' बस यही
कह कर चले जाता है
लिखने वाला अपने
लिखे के लिये ही
जिम्मेदार माना जाता है
पढ़ने वाले का उसका
कुछ अलग मतलब
निकाल लेना उसकी
अपनी खुद की
जिम्मेदारी हो जाता है
इसी से पता चल
चल जाता है
मुर्गा देखने
मुर्गा समझने
मुर्गा लिखने
मुर्गा पढ़ने में
कोई सम्बंध
आपस में
कहीं नजर
नहीं आता है ।