उलूक टाइम्स

रविवार, 7 दिसंबर 2014

लिखे हुऐ को लिखे हुऐ से मिलाने से कुछ नहीं होता है

अंगूठे के
निशान
की तरह

किसी
की भी
एक दिन
की कहानी

किसी
दूसरे की
उसी दिन
की कहानी


जैसी
नहीं हो पाती है

सब तो
सब कुछ
बताते नहीं है

कुछ की
आदत होती है

आदतन
लिख दी जाती है

अब
अपने रोज
की कथा
रोज लिखकर

रामायण
बनाने की
कोशिश
सभी करते हैं

किसी
को राम
नहीं मिलते हैं

किसी
की सीता
खो जाती है

रोज
लिखता हूँ
रोज पढ़ता हूँ

कभी
अपने लिखे
को उसके लिखे के
ऊपर भी रखता हूँ

कभी
अपना
लिखा लिखाया

उसके
लिखे लिखाये से
बहुत लम्बा हो जाता है

कभी उसका
लिखा लिखाया
मेरे लिखे लिखाये की
मजाक उड़ाता है

जैसे
छिपाते छिपाते भी
एक छोटी चादर से

बिवाईयाँ
पड़ा पैर
बाहर
निकल आता है

फिर भी
सबको
लिखना
पड़ता ही है

किसी को
दीवार पर
कोयले से

किसी को
रेत पर
हथेलियों से

किसी को
धुऐं और
धूल के ऊपर
उगलियों से

किसी को
कागज पर
कलम से

कोई
अपने
मन में ही
मन ही मन
लिख लेता है

रोज का
लेखा जोखा
सबका
सबके पास
जरूर
कुछ ना कुछ
होता है

बस
इसका लिखा
उसके लिखे
जैसा ही हो
ये जरूरी
नहीं होता है

फिर भी
लिखे को लिखे
से मिलाना भी
कभी कभी
जरूरी होता है

निशान से
कुछ ना भी
पता चले

पर उस पर
अंगूठे का पता
जरूर होता है ।

चित्र साभार: raemegoneinsane.wordpress.com