उलूक टाइम्स

शुक्रवार, 14 सितंबर 2018

कितनी छलक गयी कितनी जमा हुई बूँदें बारिश की कुछ गिनी गयी कुछ गिनते गिनते भी यूँ ही कहीं और ही रह गयी

कितनी

शरमा
शरमी से
यहाँ तक
पहुँच ही गयी

कितनी

बेशरमी से
कहीं बीच में
ही छूट गयी

कुछ

कबाड़ सी
महसूस हुयी

फाड़ कर
बेखुदी में
फेंक भी
दी गयी

कुछ

पहाड़ सी
कही
जानी ही थी

बहुत

भारी हो गयी
कही ही नहीं गयी

कुछ

आधी अधूरी सी
रोज की आवारा
जिन्दगी सी

पिये
खायी हुयी सी
किसी कोने में
उनींदी हो
लुढ़क ही गयी

खुले
पन्ने में
सामने से
फिलम की
खाली एक रील

एक नहीं

कई बार
खाली खाली ही
खाली चलती
ही चली गयी

कहाँ

जरूरी है
सब कुछ
वही कहना

जो दिखे

बाहर बाजार
में बिकता हुआ
रोज का रोज
‘उलूक’

किसी दिन

आँखें बन्द
कर के
झाँक भी
लिया कर

अपनी ही

बन्द
खिड़कियों
की दरारों के पार

कभी

छिर के गयी
थोड़ी सी रोशनी

अभी तक
बची भी है

या

यूँ ही

देखी
अनदेखी में
बुझ भी गयी।

चित्र साभार: https://wewanttolearn.wordpress.com