कहीं भी
नहीं
होने का
अहसास
भी होता है
जर्रे जर्रे
में होने का
भ्रम भी
हो जाता है
अपने अपने
पन्नों की
दुनियाँ में
अपना अपना
कहा जाता है
पन्नों के ढेर
लग जाते हैं
किताब
हो जाना
नहीं
हो पाता है
ढूँढने की
कोशिश में
एक छोर
दूसरा
हाथ से
फिसल
जाता है
ऐसी
आभासी
दुनियाँ के
आभासों में
तैरते उतराते
एक पूरा साल
निकल जाता है
आभासी होना
हमेशा नहीं
अखरता है
किसी दिन
नहीं होने में
ही होने का
मतलब भी
यही
समझाता है
आभार
आभासी
दुनियाँ
आभार
कारवाँ
आभार
मित्रमण्डली
एक
छोटा सा
जन्मदिन
शुभकामना सन्देश
स्नेह
शुभाशीष
शुभकामनाओं का
एक ही
दिन में
कितने कितने
अहसास
करा जाता है
आल्हादित
होता होता
अपने होने
के एहसास
से ही ‘उलूक’
स्नेह की
बौछारों से
सरोबार
हो जाता है।
चित्र साभार: My Home Reference ecards
‘दुकान’ एक ‘दीवार’
जहाँ ‘दुकानदार’
सामान लटकाता है
दुकानों का बाजार
बाजार की दुकाने
जहाँ कुछ भी नहीं
खरीदा जाता है
हर दुकानदार
कुछ ना कुछ बेचना
जरूर चाहता है
कोई अपनी दुकान
सजा कर बैठ जाता है
बैठा ही रह जाता है
कोई अपनी दुकान
खुली छोड़ कर
किसी दूसरे की
दुकान के गिरते
शटर को पकड़ कर
दुकान को बन्द होने से
रोकने चले जाता है
किसी की
उड़ाई हवा को
एक दुकान एक
दुकानदार से लेकर
हजार दुकानदारों
द्वारा हजार दुकानों
में उड़ा कर
फिर जोर लगा कर
फूँका भी जाता है
‘बापू’
इतना सब कुछ
होने के बाद भी
अभी भी तेरा चेहरा
रुपिये में नजर आता है
चश्मा
साफ सफाई
का सन्देश
इधर से उधर
करने में काम में
लगाया जाता है
मूर्तियाँ पुरानी
बची हुई हैं तेरी
अभी तक
कहीं खड़ी की गयी
कहीं बैठाई गयी हुई
एक दिन साल में
उनको धोया पोछा
भी जाता है
छुट्टी अभी भी
दी जाती है स्कूलों में
झंडा रोहण तो
वैसे भी अब रोज
ही कराया जाता है
चश्मा धोती
लाठी चप्पल
सोच में आ जाये
किसी दिन कभी
इस छोटे से जीवन में
जिसे पता है ये मोक्ष
'वैष्ण्व जन तो तैने कहिये'
गाता है गुनगुनाता है
जन्मदिन पर
नमन ‘बापू’
‘महात्मा’ ‘राष्ट्रपिता’
खुशकिस्मत ‘उलूक’
का जन्म दिन भी
तेरे जन्मदिन के दिन
साथ में आ जाता है
'दो अक्टूबर'
विशेष हो जाता है ।
चित्र साभार: india.com
राम समझे
हुऐ हैं लोग
राम समझा
रहे हैं लोग
आज दशहरा है
राम के गणित
का खुद हिसाब
लगा रहे हैं लोग
आज दशहरा है
अज्ञानियों का ज्ञान
बढा रहे हैं लोग
आज दशहरा है
शुद्ध बुद्धि हैं
मंदबुद्धियों की
अशुद्धियों को
हटा रहे हैं लोग
आज दशहरा है
दशहरा है
दशहरा ही
पढ़ा रहे हैं लोग
आज दशहरा है
आँख बन्द रखें
कुछ ना देखें
आसपास का
कहीं दूर एक राम
दिखा रहे हैं लोग
आज दशहरा है
कान बन्द रखें
कुछ ना सुने
विश्वास का
रावण नहीं होते
हैं आसपास कहीं
बता रहे हैं लोग
आज दशहरा है
मुंह बन्द रखें
कुछ ना कहें
अपने हिसाब का
राम ने भेजा हुआ है
बोलने को एक राम
झंडे खुद बन कर
राम समझा रहे हैं लोग
आज दशहरा है
दशहरे की
शुभकामनाएं
राम के लोग
राम के लोगों को
राम के लोगों के लिये
देते हुऐ इधर भी
और उधर भी
‘उलूक’ को
दिन में ही
नजर आ
रहे हैं लोग
आज दशहरा है ।
चित्र साभार: Rama or Ravana- On leadership
बस मतलब
की बातें
समझने
वालों को
कैसे
समझाई
जायें
बेमतलब
की बातें
कौन दिखाये
फकीरों के
साथ फकीरी
में रमें
फकीरों को
लकीरें और बताये
लकीरों की बातें
लेता रहता है
समय का
ऊँट करवटें
खा जातें हैं
पचा जाते हैं
कुछ भी खाने
पचाने वाले
उसकी भी लातें
***********
तो आईये
‘आठ सौवीं’
'पाँच लिंको
की हलचल’
के लिये पकाते हैं
आसपास हो रही
हलचल को लेकर
दिमाग के गोबर
के कुछ कंडे
यूँ ही सोच
में लाकर
रंग में सरोबार
कन्हैया भक्त
बरसाने के
डंडे बरसाते
********
इस बार पक्का
उतर कर आयेगें
वो आसमान से
डरकर ही सही
भक्तों के भोंपुओं
के शोर से जब
जमीन के लोगों
की फट रही हैं
अपने ही घर में
सोते बैठते आतें
इतना ज्वार
नहीं देखा
आता भक्ति का
घर की पूजायें
छोड़ कर निकल
रहें हैं पंडाल पंडाल
शहर दर शहर
दिख रहा है
उसने बुलाया है
हर कान में
अलग से
आवाज दे
निकल आये
सब ही
तेजी से
बरसते
पानी की
बौछारों
के बीच
बिना बरसाती
बिना छाते
ऐसे ही
कई बार
पगलाता है
‘उलूक’
बड़बड़ाता हुआ
बुखार में तेज
जैसे असमाजिक
बीमार कोई
समाज के नये
रूप को देख
बौखला कर
निकल पड़ता है
जगाने अपनी
ही सोई हुई
आत्मा को
हाथ में
लेकर
खड़ाऊ
मान कर
राम के पैर
बहुत पुरानी
घर पर ही पड़ी
लकड़ी की
बजाते खड़खड़ाते ।
*********
चित्र साभार: Shutterstock
ना धूल दिख
रही है कहीं
ना धुआँ ही
दिख रहा है
एक बेवकूफ
कह रहा है
साँस नहीं
ली जाती है
और दम
घुट रहा है
हर कोई
खुश है
खुशी से
लबालब है
सरोबार
दिख रहा है
इतनी खुशी है
सम्भलना ही
उनका मुश्किल
दिख रहा है
हर कदम
बहक रहा है
बस एक दो
का नहीं
पूरा शहर
दिख रहा है
देखने वाले
की मुसीबत है
कोई पूछ ले उससे
तू पिया हुआ सा
नहीं दिख रहा है
कोई नहीं
समझ रहा है
ऐसा हर कोई
कह रहा है
अपने अपने चूल्हे हैं
अपनी अपनी आग है
हर कहने वाला
मौका देख कर
अपनी सेक रहा है
‘उलूक’
देख रहा है
कोई नहीं
जानता है उसको
और उसकी
बकवास को
उसकी तस्वीर
का जनाजा
अभी तक कहीं
नहीं निकल रहा है
क्या कहें दूर
कहीं बैठे
साहित्यकारों से
जो कह रहे हैं
किसी से
मिलने का
दिल कर रहा है
हर शाख पर बैठे
उल्लू के प्रतीक
उलूक को
सम्मानित करने
वाली जनता
‘उलूक’
उल्लू का पट्ठा
कौड़ियों के
मोल का
अपने शहर का
बाहर कहीं
लग रहा है
गलतफहमी में
शायद कुछ
ज्यादा ही
बिक रहा है ।
चित्र
साभार: twodropsofink.com