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मंगलवार, 18 सितंबर 2018

तू समझ तू मत समझ राम समझ रहे हैं उनकी किसलिये और क्यों अब कहीं भी नहीं चल पा री

मानना
तो
पड़ेगा ही
इसको

उसको
ही नहीं

पूरे
विश्व को

तुझे
किसलिये
परेशानी
हो जा री

टापू से
दूरबीन
पकड़े
कहीं दूर
आसमान में
देखते हुऐ
एक गुरु को

और
बाढ़ में
बह रहे
मुस्कुराते हुऐ
उस गुरु के
शिष्य को

जब
शरम नहीं
थोड़ा सा
भी आ री

एक
बुद्धिजीवी
के भी
समझ में
नहीं आती हैंं
बातें
बहुत सारी

उसे ही
क्यों
सोचना है
उसे ही
क्यों
देखना है
और
उसे ही
क्यों
समझना है

उस
बात को
जिसको

उसके
आसपास
हो रहे पर

जब
सारी जनता
कुछ भी
नहीं कहने को

कहीं भी
नहीं जा री

चिढ़ क्यों
लग रही है
अगर
कह दिया

समझ में
आता है
डी ए की
किश्त इस बार

क्यों और
किसलिये
इतनी
देर में आ री

समझ तो
मैं भी रहा हूँ

बस
कह कुछ
नहीं रहा हूँ

तू भी
मत कह

तेरे कहने
करने से

मेरी तस्वीर
समाज में
ठीक नहीं
जा पा री

कहना
पड़ता है
तेरी
कही बातें
इसीलिये
मेरी समझ
में कभी भी
नहीं आ री

‘उलूक’
बेवकूफ

उजड़ने के
कगार पर
किसलिये

और
क्यों बैठ
जाता होगा
किसी शाख
पर जाकर
गुलिस्ताँ के

जहाँ बैठे
सारे उल्लुओं
के लिये

एक आदमी
की सवारी
राम जी की
सवारी हो जा री ।

चित्र साभार: https://store.skeeta.biz

शनिवार, 23 सितंबर 2017

घर में सड़क में पार्क में बाजार में स्कूल के खेल के मैदान में बज रहें हैं भीषण तीखे भोंपू भागने वाले है शोर से ही रावण शुँभ निशुंभ इस बार बिना आये दशहरे के त्यौहार में

बस मतलब
की बातें
समझने
वालों को
कैसे
समझाई
जायें
बेमतलब
की बातें


कौन दिखाये
फकीरों के
 साथ फकीरी
 में रमें
फकीरों को
लकीरें 
और बताये
लकीरों की बातें


लेता रहता है
समय का
ऊँट करवटें
खा जातें हैं
पचा जाते हैं
कुछ भी खाने
पचाने वाले
उसकी भी लातें
********
***


तो आईये
‘आठ सौवीं’
'पाँच लिंको
 की हलचल’
के लिये पकाते हैं
आसपास हो रही
हलचल को लेकर
दिमाग के गोबर
के कुछ कंडे
यूँ ही सोच
में लाकर
रंग में सरोबार
कन्हैया भक्त
बरसाने के
डंडे बरसाते

********


इस बार पक्का
उतर कर आयेगें
वो आसमान से
डरकर ही सही
भक्तों के भोंपुओं
के शोर से जब
जमीन के लोगों
की फट रही हैं
अपने ही घर में
सोते बैठते आतें

इतना ज्वार
नहीं देखा
आता भक्ति का
घर की पूजायें
छोड़ कर निकल
रहें हैं पंडाल पंडाल
शहर दर शहर

दिख रहा है
उसने बुलाया है
हर कान में
अलग से
आवाज दे
निकल आये
सब ही
तेजी से
बरसते
पानी की
बौछारों
के बीच
बिना बरसाती
बिना छाते

ऐसे ही
कई बार
पगलाता है
‘उलूक’
बड़बड़ाता हुआ
बुखार में तेज
जैसे असमाजिक
बीमार कोई
समाज के नये
रूप को देख
बौखला कर
निकल पड़ता है
जगाने अपनी
ही सोई हुई
आत्मा को
हाथ में
लेकर
खड़ाऊ
मान कर
राम के पैर
बहुत पुरानी
घर पर ही पड़ी
लकड़ी की
बजाते खड़खड़ाते ।
*********

चित्र साभार: Shutterstock

मंगलवार, 4 जुलाई 2017

श्रद्धांजलि कमल जोशी

आप भी
शायद नहीं
जानते होंगे
कमल जोशी 
को

मैं भी नहीं
जानता हूँ

बस उसकी
और
उसकी तस्वीरों
से कभी कभी
मुठभेड़ हुई है

कोई खबर
ले कर
नहीं आया हूँ
बस लिख
रहा हूँ

खबर
मिली है
वो अब
नहीं है
क्यों नहीं है
पता नहीं है

सुना गया है
लटके मिले हैं
लटके या
लटकाया गया
पता नहीं है

सुना है
समाज के लिये
बहुत सोचते थे
किस समाज
के लिये
मुझे पता नहीं है


मेरी दिली
इच्छा थी
ऐसी कई
फजूल
इच्छायें
होती हैं

उसको
जानने की

बस इतना
पता करना था
उसका समाज
और मेरा समाज
एक ही है
या कुछ अलहदा

बातें हैं

बहुत
से लोग
मरते हैं
घर में
मोहल्ले में
शहर में
और
समाज में

घर से
मोहल्ले से
समाज तक
पहुँचने से
पहले
भटक जाना
अच्छी बात
नहीं होती है

उसके
अन्दर भी
कोई
आग होगी

ऐसा मैंने
नहीं कहा है
लोग
कह रहे हैं

अन्दर की
नमी में
आग भी
शरमा कर
बहुत बार
खुद ही
बुझ लेती है

सब में
इतनी हिम्मत
कहाँ होती है

अब हिम्मत
उसकी
खुद की थी
या समाज की
खोज का
विषय है

तुम्हारे मरने
के बाद
पता चला कि
तुम भी
रसायन विज्ञान
के विद्यार्थी रहे थे

तुम्हारे अन्दर
क्या चल रहा था

लोग तुम्हारे
जाने के बाद
कयास
लगा रहे हैं

‘उलूक’ की
श्रद्धांजलि
तुम्हें भी
और उस
समाज के
लिये भी
जो तुम्हें
रोक भी
नहीं सका ।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

‘उलूक’ गुंडा भी सत्य है और सत्य है उसकी गुंडई भी भटक मत लिख

गुंडे की
गुंडई
होनी ही
चाहिये
अब गुंडा
गुंडई
नहीं
करेगा
तो क्या
भजन
करेगा

वैसे ऐसा
कहना भी
ठीक नहीं है

गुंडे भजन
भी किया
करते हैं

बहुत
से गुंडे
बहुत
अच्छा
गाते हैं

कुछ गुंडे
कवि भी
होते हैं

कविता
करना
और
कवि होना
दोनो
अलग
अलग
बात हैंं

गुंडई
कुछ
अलग
किस्म
की
कविता है

गुंडई
के गीतों
की
धुनें भी
होती हैं
महसूस
भी
होती हैं
कपकपाती
भी हैं

बातें
सब ही
करते हैं

गुंडई का
प्रतिकार
करना भी
जरूरी
नहीं है

क्यों किया
जाये
प्रतिकार भी

जब बात
करने से
काम
निपट
जाता है

गुंडे
पालना
भी एक
कला
होती है

गुंडा नहीं
होने का
प्रमाणपत्र
होना और
गुंडो का
सरदार
होना

एक
गजब
की कला
नहीं
है क्या ?

अखबार
के पन्नों
पर गुंडों
की खबरें
भरत नाट्यम
करती हैं

पता नहीं

पूजा
मंदिर
भगवान
और
गुंडे
कुछ कुछ
ऐसा
जैसे
औड मैन
आउट
करने
का
सवाल

किसे
निकालेंगे ?

सनक की
क्या करे
कोई
किसी की
उस पर
खाली
गोबर सना
गोबर भरा
‘उलूक’
हो अगर

भटक
जाता है
कई बार
कोई
शरमाकर

गुंडो
और
उनकी
गुंडई
पर नहीं
उनके
रामायण
बांंचने की
तारीफ करते
हुए लोगों के
उपदेशों पर

लिखना
इसलिये
भी
जरूरी है
क्योंकि
गुंडा
और
गुंडई
खतरनाक
नहीं
होते हैंं

खतरनाक
होते हैं
वो सारे
समाज के
लोग जो
मास्टर
नहीं होते हैं
पर शुरु
कर देते हैं
हेड मास्टरी
समझाने
और
पढ़ाने को
गुंडई
समाज को।

चित्र साभार: http://i.imgur.com/iWre2oh.jpg

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

समाज की बहती हुई किसी धारा में क्यों नहीं बहता है बेकार की बातें फालतू में रोज यहाँ कहता है

हर किसी
को दिखाई
देती है

अपने
सामने वाले
इन्सान में


इशारों इशारों
में चल देने
वाली एक
आधुनिक कार

जिसके
गियर
स्टेरिंग
क्लच
और
ब्रेक
उसे
साफ साफ
नजर आते हैं


वो बात
अलग है

बारीक
इन्सान
जानते हैं
सारी
बारीकियाँ


किसके
हाथ से
बहुत दूर से
बिना चश्मा
लगाये भी
क्या क्या
चल पाता है


और

किस आदमी
से कौन सा
आदमी

रिमोट
से ही
घर बैठे
बैठे कैसे
चलाया
जाता है


समाज की
मुख्य धाराओं
में बह रहे
इन्सानो को

जरा सा भी
पसन्द नहीं
आते हैं

अपनी
मर्जी से
धाराओं के
किनारे खड़े
हुऐ दो चार
प्रतिशत
इन्सान

जो मौज में
मुस्कुराते हैं


जिस समाज
की धाराओं
के पोस्टर
गंगा के
दिखाई
देते हैं

भगीरथ के
जमाने के
होते हैं

मगर
आज के
और
अभी के
बताये
जाते हैं


और

तब से
अब तक
के सफर
में

जब
गंगा घूम
घाम कर
जा भी
चुकी
होती है

बस रह
गई होती हैं
धारायें
इन्सानी
सीवर की

जिसकी
खुश्बू को
भी सूँघने
से लोग
कतराते हैं


सीवर
नीचे से
निकलने
वाले मल
का होता
तब भी
अच्छा होता

उसमें बहने
से कुछ
तो मिलता
इन्सान को
ना सही

उसके
आस पास
की मिट्टी
को ही सही


पर
सीवर
और गंगा
नंगे इन्सानों
के ऊपर
के हिस्से
में बह रही
गंदगी का
होता है


नजर वाले
ही
देखने में
सोचने में
धोखा
खाते हैं


हर कोई
डुबकी
लगा रहा
होता है

मजबूरी
होती है
लगानी
पड़ती है

नहीं लगाने
वाले किनारे
फेंक दिये 

जाते हैं

करम में
भागीदारी
कर नहीं
तो मर

करमकोढ़ियों
को जरा
सा भी
पसन्द नहीं
आते हैं

वो इन्सान
जो धाराओं
से दूर
रहते हैं
किनारे
खड़े हुए 

होते हैं

इसीलिये
उनको
सुझाव
दिया
जाता है

समाज में
रहना
होता है
तो किसी
ना किसी
धारा में 

बहना
होता है


‘उलूक’
तुझे क्या
परेशानी है

तू तो
जन्मजात
नंगा है

छोटी सी
बात है

तेरी छोटी
सी ही तो
समझदानी है 


जहाँ सारे
कपड़े
पहने हुए
धारा में
तैरते नजर
आ रहे
होते हैं

हिम्मत
 करके
थोड़ा सा
सीवर में
कूदने में
क्या जाता है

क्यों नहीं
कुछ
थोड़ा सा
सामाजिक
तू भी
नहीं हो
जाता है ?

चित्र साभार: www.canstockphoto.com

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2016

देश प्रेम

भाई कोई
नई चीज नहीं है
सबको ही देश की
पड़ी ही होती है
सभी देश के
भक्त होते हैं
देश के बारे में
ही सोचते हैं
देश के लिये ही
उनके पास
वक्त ही वक्त
होता है
झंडा देश का
बस उनके लिये
प्राण होता है
फहराना उसे
ऐसे लोगों के लिये
रोज का ही
काम होता है
बहुत बड़ी
बात होती है
देश के बारे में
सोचते सोचते
बीच में समय
अगर कुछ
निकाल ले जाते हैं
क्या बुराई है इसमें
अगर कुछ अपने
और अपने परिवार
के लिये भी थोड़ा
सा चुन्नी भर इस सब
के बीच कर
के ले जाते हैं
परिवार छोटा सा
या बहुत बड़ा भी
हो सकता है
कैसे बनाना है
काम करने कराने
पर निर्भर करता है
कहीं जाति से काम
चल जाता है
कहीं इलाका
काम में आता है
कहीं इलाके की
जाति काम में
आ जाती है
कहीं जाति का
इलाका काम
में आता है
किसी को गिराना हो
परिवार की खातिर
तो उसे बताना भी
नहीं कुछ पड़ता है
मजबूरी में उसे
उसके किसी इलाके
खास का होने का
खामियाजा उठाना
जरूर पड़ता है
चोर सारे एक से
एक मुहर वाले
पता नहीं कैसे
एक हो जाते हैं
समाज के अन्दर के
किसी ईमानदार का
पाजामा बहुत आसानी
से खींच ले जाते हैं
चोर के फोटो
अखबार के मुख्य पृष्ठ
पर रोज ही होते हैं
पाजामा उतरे हुऐ
लोग शरम से खुद
ही मर जाते हैं
जमाना पाजामा पाजामा
खेल रहा होता है
बेशरम हाथी के
ऊपर बैठा मुकुट पहन
आईसक्रीम
पेल रहा होता है
‘उलूक’ तू फिक्र
क्यों करता है
हाल अपने पैजामे
का देख कर
तेरे सभी चाहने
वालों में से सबसे
पहला तेरा ही
पैजामा खींचने की
फिराक में कब से
तेरे नखरे फाल्तू में
झेल रहा होता है ।

चित्र साभार: whiterocksun.com

मंगलवार, 13 अक्टूबर 2015

कुछ भी लिख देना लिखना नहीं कहा जाता है


एक बात पूछूँ

पूछ
पर पूछने से पहले ये बता 
किस से पूछ रहा है पता है 

हाँ पता है 
किसी से नहीं पूछ रहा हूँ 

आदत है पूछने की 
बस यूँ ही
ऐसे ही 
कुछ भी कहीं भी पूछ रहा हूँ 

तुमको
कोई परेशानी है 
तो मत बताना 
बताना
जरूरी नहीं होता है 

कान में
बता रहा हूँ वैसे भी 
कोई 
 कुछ नहीं बताता है 
पूछने से ही
गुस्सा हो जाता है 
गुर्राता है 

कहना
शुरु हो जाता है 

अरे तू भी पूछने वालों में 
शामिल हो गया 
मुँह उठाता है 
और पूछने चला आता है 

ये नहीं कि 
वैसे ही हर कोई
पूछने में लगा हुआ होता है 

एक दो पूछने वालों के लिये 
कुछ जवाब सवाब ही कुछ
बना कर क्यों नहीं ले आता है 

हमेशा 
जो दिखे वही साफ साफ बताना 
अच्छा नहीं माना जाता है 

रोटी पका सब्जी देख दाल बना 
भर पेट खा

खाली पीली अपनी थाली 
अपने पेट से बाहर 
किसलिये फालतू में 
झाँकने चला आता है 

‘उलूक’ 
समाज में रहता है 

क्यों नहीं 
रोज ना भी सही कुछ देर के लिये 
सामाजिक क्यों नहीं हो जाता है 

पूछने गाछने के चक्कर में 
किसलिये प्रश्नों का रायता 
इधर उधर फैलाता है ।

चित्र साभार: serengetipest.com

बुधवार, 15 अप्रैल 2015

एक दिमाग कम खर्च कर के दिमाग को दिमागों की बचत कराता है

बुद्धिजीवी
की एक
खासियत
ये होती है

वो अपने
दिमाग को
कम काम
में लाता है

जानता है बचाना
खर्च होने से
दिमाग को

एक समूह
में उनके
एक समय में
एक ही अपने
दिमाग को
चलाता है

पता होता है
चल रहा है दिमाग
किसका किस समय

उस समय
बाकी सब
का दिमाग
बंद हो जाता है

पढ़ना लिखना
जितना ज्यादा
किया होता है जिसने

उसका दिमाग
उतना अपने को
बचाना सीख जाता है

सबसे ज्यादा
दिमाग बचाने
का तरीका

सबसे बड़े स्कूल के
मास्टर को ही आता है

एक छोड़ता है
राकेट एक

किसी ऐसी बात का
जिसके छूटते ही
उसके नहीं
होने का आभास
सबको हो ही जाता है

कोई कुछ
नहीं कहता है
हर कोई
बंद कर दिमाग

राकेट के
मंगल पर
कहीं उतरने
के खयालों में
खो जाता है


पढ़ने पढ़ाने वाले

सबसे बड़े स्कूल के
मास्टरों के
इस खेल को
देखकर
छोटे मोटे स्कूलों

के मास्टरों का
वैसे ही
दम
फूल जाता है


मास्टरों के
बंद दिमाग

होते देखकर
पढ़ने लिखने
वाला
मौज में आ जाता है


जब पिता ही
चुप हो जाये

किसी समाज में
बेटे बेटियों के
बोलने के लिये

क्या कुछ कहाँ
रह जाता है


वैज्ञानिक
सोच का ही

एक कमाल
है यह भी


एक दिमाग
बुद्धिजीवी का

कितने दिमागों
का
फ्यूज
इस तरह
उड़ाता है


दिमाग ही

दिमागी खर्च

बचा बचा कर

इस तरह

बिना दिमाग का

एक
नया
समाज बनाता है ।


चित्र साभार: www.clipartpanda.com

गुरुवार, 29 मई 2014

कितने तरह के लोग कितनी तरह की यादें कब लौट आयें कोई कैसे बता दे

कई बार
सामने से 
होती थी
रोज ही 
मुलाकात होती थी

मिलती थी रास्ते में 
कुत्ते का पिल्ला लिये हुऐ अपने हाथों में
 देख कर किसी को भी मुस्कुरा देती थी

कहते थे लोग
बच्चे पैदा किया करती थी
कुछ ही दिन रखती थी पास में
फिर किसी दिन 
शहर के पास की नदी में ले जा कर
उल्टा डुबा देती थी

लौट आती थी 
मुस्कुराती थी 
फिर उसी तरह

फिर वही होता था

कुत्ते का 
पिल्ला भी
बहुत दिन तक साथ में नहीं रहता था

एक दिन नदी 
में ही डूब कर मर गई

देखा नहीं था
पर
किसी को 
ऐसा जैसा ही कहते सुना था

सालों गुजर गये 
फिर सब भूल गये

कल अचानक 
रास्ते में
एक लड़की
बिल्कुल उसकी जैसे फोटो प्रतिलिपि
सामने सामने जब पड़ी
यादों की घड़ी जैसे उल्टी चल पड़ी

कुछ यादें
भूली 
नहीं जाती हैं
कहीं किसी कोने में पड़ी रह ही जाती हैं

जिनके साथ साथ

समाज में प्रतिष्ठित 
कुछ लोगों की यादें भी
लौट आती हैं ।

चित्र साभार: 
https://www.123rf.com/

शनिवार, 29 मार्च 2014

विषय ‘बदलते समाज के आईने में सिनेमा और सिनेमा के आईने में बदलता समाज’ अवसर ‘पंचम बी. डी. पाण्डे स्मृति व्याख्यान’ स्थान ‘अल्मोड़ा’ वक्ता 'श्री जावेद अख्तर'

कौन छोड़ता स्वर्णिम
अवसर सुनने का
समय से पहले
इसीलिये जा पहुँचा
खाली कुर्सियाँ
बहुत बची हुई थी .
एक पर पैर फैला
कर आराम से बैठा
समय पर शुरु
हुआ व्याख्यान
रोज किसी ना किसी
मँच पर बैठे
दिखने वाले दिखे
सुनने वालों में आज
नजर आये कुछ
असहज हैरान और
थोड़ा सा परेशान
सिनेमा कब देखा
ये तो याद नहीं आया
पर मेरा समाज
सिनेमा के समाज
की बात सुनने
के लिये ही है
यहाँ पर आया
ऐसा ही जैसा कुछ
मेरी समझ में
जरूर आ पाया
बोलने वाला
था वाकपटु
घंटाभर बोलता
ही चला गया
नदी पहाड़ मैदान
से शुरु हुई बात
कुछ इस तरह
समाज को सिनेमा
और सिनेमा को
समाज से
जोड़ता चला गया
कवि गीतकार
पटकथा लेखक
के पास शब्दों
की कमी नहीं थी
बुनता चला गया
सुनने वाला भी
बहुत शांत भाव से
सब कुछ ही
सुनता चला गया
नाई की दुकान के
आमने सामने के
शीशों में एक
को सिनेमा और
एक को समाज
होने का उदाहरण
पेश किया गया
समझने वाले
ने क्या समझा
पर उससे
किस शीशे ने
किस शीशे को
पहले देखा होगा
जरूर पूछा गया
सामाजिक मूल्यों के
बदलने के साथ
सिनेमा के बदलने
की बात को
समाज की सहमति
की तरह देखा गया
कोई सामजिक और
राजनीतिक मुद्दा
अब नहीं झलकता है
इसीलिये अब वहाँ भी
समाज को इस
जिम्मेदारी का ही
तोहफा दिया गया
किताबें कौन सी
खरीद कर अपने
शौक से पढ़ता है
कोई आजकल
इंटीरियर डेकोरेटर
किताबों को परदे
और सौफे के रंग
से मैच करते हुऐ
किताबों के कवर
छाँट कर जब हो
किसी को दे गया
आठ घंटे में एक
सिनेमा  बन रहा
हो जिस देश में
पैसा सिनेमा से
बनाने के लिये तो
बस साबुन तेल
और कारों का ही
विज्ञापन बस
एक रह गया
हर जमाने के
विलेन और हीरो
के क्लास का
बदलना भी एक
इत्तेफाक नहीं रहा
जहाँ कभी एक
गरीब हुआ करता था
अब वो भी पैसे वाला
एक मिडिल क्लास
का आदमी हो गया
कविता भी सुनाई
अंत में चुनाव
की बेला में
किसी सुनने वाले
की माँग पर
शतरंज का उदाहरण
देकर सुनने वालों
को प्यादा और
नेताओं को
राजा कह गया
आईना ले के आया
था दिखाने को
उस समाज को
अपने आईनों में ही
कब से जिससे
खुद का चेहरा
नहीं देखा गया
खुश होना ही था

उलूक को भी
सुन के उसकी
बातों को मजबूरन
बहुत कुछ था
जिसे पूरा कहना
मुश्किल हुआ
थोड़ा उसमें से
जो कहा गया
यहाँ 
आ कर के
वो भी कह गया । 

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

परेशान ना हो देख समय अभी आगे और क्या क्या दिखाता है

भय
मुक्त समाज

शेर
और
बकरी के

एक साथ
पानी पीने
वाली बात

ना
जाने
कब

कौन
सुना पढ़ा गया

किसी
जमाने से
दिमाग में जैसे
मार रही हों
कितनी ही लात

पता नहीं
कब से

अचानक
ऐसे
एक नाटक
का पर्दा
सामने से
उठा हुआ सा
नजर आता है

भय
निर्भय होकर
खुले आम
गली मौहल्ले में
चक्कर लगाता है
और समझाता है

बस
हिम्मत
होनी चाहिये

कुछ भी
किसी तरह भी
कभी भी कहीं भी
कर ले जाने की

डरना
क्यों और
किससे है

जब ऐसा
महसूस होता है

जैसे
सभी का ध्यान
बस भगवान की 

तरफ चला जाता है

हर कोई
मोह माया
के बंधन से
बहुत दूर जा कर
खुद की आत्मा के
बहुत पास चला आता है

और
वैसे भी डर
उस समय क्यों

जब
कुछ ही देर में
आने वाला अवतार

खुद आकर
पर्दा गिराता है

और
जब
सब के मन के
हिसाब से होता है
हैड या टेल

यहां तक
किसी का मन
ना भी होने
की स्थिति में

उसके लिये
सिक्का
टेड़े मेड़े
रास्ते पर
खुद ही जा कर
खड़ा हो जाता है

कहावत
है भी
होनहार
बिरवान के
होत चीकने पात

जब
दिखनी
शुरु हो जायें
बिल्लियाँ खुद
अपनी घंटियाँ
हाथ में लिये अपने

और
खूँखार कुत्ता
निकल कर

उनके
बगल से ही

उनको
सलाम ठोकते हुऐ
मुस्कुरा कर
चला जाता है

ऐसे
मौके पर
कोई फिर
क्यों चकराता है

और फिर
समझ में तेरे
ये क्यों नहीं आता है

क्या
गलत है
जब कुछ भी
ऐसा वैसा नहीं
कर पाने वाला

उसकी
ईमानदारी
कर्तव्यनिष्ठा
और
सच्चाई के लिये

सरे आम

किसी
चौराहे पर टाँक
दिया जाता है ।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

तू बंदूक चलाने को कंधा दे देगा मेडल पर मेरे को मिलेगा

आसान होता है 
बंदूक चलाना घोडे़ को दबाना 

किसी के मरे बिना 
चारों खाने चित्त कर ले जाना 

ना खून का दिखना 
ना पुलिस का आना ना कोई मुकदमा 
ना किसी को कहीं जेल की सजा हो जाना 

कौन सी ऎसी बंदूक होगी 
दिखती भी नहीं होगी 
गोली भी नहीं होगी 
आवाज भी नहीं होगी 

और तो और 
किसी सामने वाले की 
मौत भी नहीं होगी 

सांप भी नहीं होगा लाठी भी नहीं होगी 
फौज भी नहीं होगी सरहद भी नहीं होगी 
बस होगी वाह वाह जो हर तरफ होगी 

बेवकूफ हैं जो सेना में चले जाते हैं 
सरहद में जाकर 
गोली खा खा कर मर जाते हैं 

पता नहीं बंदूक चलाने का 
सबसे आसान तरीका क्यों नहीं अपनाते हैं 
जिसमें 
बंदूक खरीदने कहीं भी नहीं जाते हैं 
बंदूक 
बस एक अपनी सोच में ले आते हैं 

जरूरत होती है एक ऎसे कंधे की 
जो आसानी से ही उपलब्ध हो जाते हैं 

सारे शूरवीर ऎसे ही कंधों में रखकर 
घोड़ों को दबाते हैं गोली चलाते हैं 
सामने वाले कोई नहीं कहीं मर पाते हैं 

कंधे देने वाले ही इसमें शहीद हो जाते हैं 
बंदूक चलाने वाले मेडल पा जाते हैं 

बेवकूफ कंधे देने वाले 
समाज में हर कोने में पाये जाते हैं 
लेकिन उस पर बंदूक रख कर 
गोली चलाने वाले बिरले ही हो पाते हैं 

समाज को दिशा देने वालों में 
आज ये ही लोग 
सबसे आगे जाते हैं 

जो अपने कंधे ही नहीं बचा पाते हैं 
ऎसे बेवकूफों से 
आप और क्या उम्मीद लगाते हैं ?

सोमवार, 5 अगस्त 2013

आज एक शख्सियत

डा0 पाँडे देवेन्द्र कुमार

पेशे से चिकित्सक कम 
एक समाज सेवक अधिक हो जाते है 

दवाई कम खरीदवाते हैं 
शुल्क महंगाई के हिसाब से 
बहुत कम बताते हैं 

लगता है अगर उनको गरीब है मरीज उनका
मुफ्त में ही ईलाज कर ले जाते हैं 

बहुत ही कम होती है दवाईयां 
और लोग ठीक भी हो जाते हैं 
पछत्तर की उम्र में 
खुश रहते हैंं और मुस्कुराते हैंं 

सोच को सकारात्मक रखने के 
कुछ उपाय भी जरूर बताते हैं 

इतना कुछ है बताने को 
पर पन्ने कम हो जाते हैं 

काम के घंटों में 
मरीजों में बस मशगूल हो जाते हैं 

बहुत से होते हैं प्रश्न उनके पास
जो मरीज से 
उसके रोग और उसके बारे में पूछे जाते हैंं

संतुष्ट होने के बाद ही 
पर्चे पर कलम अपनी चलाते हैं 

बस जरूरत भर की दवाई ही 
थोड़ी बहुत लिख ले जाते हैं 

कितने लोग होते हैं उनके जैसे
जो अपने पेशे से इतनी ईमानदारी के साथ पेश आते हैं 
“हिप्पौक्रेटिक ओथ” का जीता जागता उदाहरण हो जाते हैं 

काम के घंटो के बाद भी उर्जा से भरे पाये जाते हैं 

बहुत से विषय होते हैं उनके पास 
किसी एक को बहस में ले आते हैं 

आज कह बैठे 
"ब्रेन तैयार जरूर कर रहे हैं आप
क्योंकि आप लोग पढ़ाते हैं 
ब्रेन के साथ साथ क्या दिल की पढ़ाई भी कुछ करवाते हैं ?"

दिल की पढ़ाई क्या होती है?
पूछने पर समझाते हैं 

दिमाग सभी का एक सा हम पाते हैं 
उन्नति के पथ पर उससे हम चले जाते हैं 
समाज के बीच में देख कर व्यवहार 
दिल की पढ़ाई की है या नहीं का अंदाज हम लगाते हैं 

जवाब इस बात का पढ़ाने वाले लोग कहाँ दे पाते हैं 

शिक्षा व्यवस्था आज की दिमाग से नीचे कहाँ आ पाती है
दिल की पढ़ाई कहीं नहीं हो रही है
बच्चों के सामाजिक व्यवहार से ये कलई खुल जाती है 

यही बात तो डाक्टर साहब बातों बातों में 
हम पढ़ाने वालों को समझाना चाहते हैं।

बुधवार, 12 जून 2013

समाज को समझ सामाजिक हो जा

तेरे मन की जैसी नहीं होती है
तो 
बौरा क्यों जाता है 

सारे लोग लगे हैं जब लोगों को पागल बनाने में 
तू क्यों पागल हो जाता है 

जमाना तेजी से बदल रहा है 
कुछ तो अपनी आदतों को बदल डाल 
बात बात में फालतू की बात अब ना निकाल 

मान भी जा 
कुछ तो समझौते करने की आदत अब ले डाल 

देखता नहीं 
बढ़ती उम्र में भी आदमी बदल जाता है 
अच्छा आदमी होता है तो आडवानी हो जाता है 

अपने घर से शुरु कर के तो देख जरा 
थोड़ा थोड़ा घरवाली की बात पर
होना छोड़ दे अब टेढ़ा टेढ़ा

उसके बाद 
आफिस की आदतों में परिवर्तन ला 
साहब चाहते हों तुझे गधा भी बनाना 
वो भी बन कर के दिखा 
समझा कर 
तेरा कुछ भी नहीं जायेगा 
पर तेरा साहब जरूर एक धोबी हो जायेगा

सत्कर्म करने वाला ही मोक्ष पाता है 
किताबों में लिखा है ऎसा माना जाता है 
ऎसी किताबों को कबाड़ी को बेच कर के आ 
बहुमत के साथ रह बहुमत की बात कर 
बहुमत के मौन की इज्जत करने में
तेरा क्या जाता है 

तू इतना बोलता है 
तेरे को सुनने क्या कोई आता है 
समझने वाले लोग
समझदारों की बात ही समझ पाते हैं 
तेरे भेजे में ये कड़वा सच क्यों नहीं घुस पाता है 

अब भी समय है 
समझदारों में जा कर के शामिल हो जा 
अन्ना की टोपी पहन मोदी को माला पहना 
मौका आता है जैसे ही राहुल की सरकार बना 
सबके मन की जैसी करना अब तो सीख जा 
बात कहने को किसी ने नहीं किया है मना 

लेखन को धारदार बना 
लोहे की हो जरूरी नहीं लकड़ी की तलवार बना 

मन की जैसी नहीं हो रही हो तो मत बौरा 
खुद पागल क्यों होता है 
लोगों को पागल बना 

समाज से अलग थलग पड़ने का नहीं है मजा 
बहुमत को समझने की कभी तो कोशिश कर 
'उलूक' थोड़ी देर के लिये ही सही सामाजिक हो जा । 

चित्र साभार: https://www.gettyimages.in/

रविवार, 12 मई 2013

अच्छी सोच छुट्टी के दिन की सोच

अखबार आज
नहीं पढ़ पाया


हौकर शायद
पड़ौसी को
दे आया


टी वी भी
नहीं चल पाया
बिजली का
तार बंदर ने
तोड़ गिराया


सबसे अच्छा
ये हुआ कि
मै काम पर
नहीं जा पाया


आज
रविवार है
बड़ी देर में
जाकर
याद आया


तभी कहूँ
आज सुबह
से अच्छी बातें
क्यों सोची
जा रही हैं


थोड़ा सा
रूमानी
हो जाना
चाहिये
दिल की
धड़कन
बता रही है


बहुत कुछ
अच्छा सा
लिखते हैं
कुछ लोग


कैसे
लिखते होंगे
बात अब
समझ में
आ रही है


लेखन
इसीलिये
शायद
कूड़ा कूड़ा
हुआ
जा रहा है


अखबार हो
टी वी हो
या समाज हो
जो कुछ
दिखा रहा है


देखने
सुनने वाला
वैसा ही होता
जा रहा है


कुछ
अच्छी सोच
से अगर अच्छा
कोई लिखना
चाह रहा है


अखबार
पढ़ना छोड़
टी वी बेच कर
जंगल को क्यों
नहीं चले
जा रहा है ?

बुधवार, 5 सितंबर 2012

शिक्षक दिवस

माता पिता
समाज
परिवेश
घर गाँव
शहर देश

पता नहीं

यहाँ तक
आते आते
किसने क्या
क्या
पढ़ाया 

शिक्षक दिवस
पर आज
अपने गुरुजनों
के साथ साथ

हर वो शख्स
मुझे याद आया

जिसने
कुछ ना कुछ
अच्छा बुरा
मुझे
सिखाया 

कोशिश
भी की
सीखने की
कुछ कुछ
हमेशा

पर
रास्ता
अपने
गुरु का
दिया हुआ
ही अपनाया

यहाँ तक
बेरोकटोक

शायद
इसी लिये
चल के
आराम से
आ पाया

आसपास
अपने

बोली भाषा
और
पहनावे
को
आज जब

मैं
खुद नहीं
समझ पाया

प्रश्न उठना
ही था
मन के कोने
में कहीं

पूछ बैठा
उसी समय
अपने आप से
वहीं के वहीं

शिक्षा
दी हो
शायद यही
मैंने ही
सब कुछ इन्हें

वही इन
सब के
व्यवहारों में
परिलक्षित हो
सामने से
है आया ।

गुरुवार, 24 नवंबर 2011

अभिनेता आज के समाज में

अंदर की
कालिख को
सफाई से
छिपाता हूँ

चेहरा
मैं हमेशा 
अपना
चमकाता हूँ

शातिर
हूँ मैं
कोई नहीं
जानता 
है

हर कोई मुझे
देवता जैसे
के नाम से
पहचानता 
है

मेरा
आज तक
किसी से कोई
रगड़ा
नहीं हुवा 
है

और तो और
बीबी से भी
कभी झगड़ा
नहीं हुवा 
है

धीरे धीरे
मैने अपनी
पैठ बनाई 
है

बड़ी मेहनत से
दुकानदारी 
चमकाई 
है

कितनो को
इस चक्कर में
मैने लुटवा दिया 
है

वो आज भी
करते हैं प्रणाम
सिर तक
अपने पांव में
झुकवा दिया 
है

पर अंदाज
किसी को 
कभी नहीं
आता  है

खेल खेल
में ही ये सब
बड़े आराम
से किया
जाता है

और  मैं
बडे़ आराम से हूँ
चैन की बंसी
बजाता हूं

जो भी
साहब
आता है
पहले उसको
फंसाता हूँ

सिस्टम को
खोखला
करने में
हो गई है
मुझे महारत

तैयारी में हूँ
अब करवा
सकता हूँ
कभी भी
महाभारत

तुम से ही
ये सारे
काम करवाउंगा

अखबार में
लेकिन फोटो
अपनी ही
छपवाउंगा

इस पहेली को
अब आपको ही
सुलझाना है

आसपास आज
आप के
कितने मैं
आबाद हो गये हैं
पता लगाना है

ज्यादा कुछ
नहीं करना है
उसके बाद
हल्का सा
मुस्कुराना है ।