आसान नहीं लिख लेना चंद लफ्जों में
उनकी शर्म और खुद की बेशर्मी को
उनका शर्माना जैसे दिन का चमकता सूरज
उनकी बेशर्मी
बस कभी कभी किसी एक ईद का छोटा सा चाँद
और खुद की बेशर्मी देखिये
कितनी बेशर्म
कितनी बेशर्म
पानी पानी होती जैसे उसके सामने से ही खुद
अपने में अपनी ही शर्म
पर्दादारी जरूरी है बहुत जरूरी है
पर्दानशीं के लिये
उसे भी मालूम है
और इसका पता बेशर्मों को भी है
बहुत दिन हो गये
कलम भी कब तक
बेशर्मी को छान कर शर्माती हुई
बस शर्म ही लिखे
अच्छा है उनकी बेशर्मी बनी रहे
जवान रहे पर्दे में रहे जहाँ रहे
जो सामने दिखे उस शर्म को महसूस कर
‘उलूक’बेशर्मी से अपनी खींसे निपोरता हुआ
रात के अंधेरे में
कुछ इधर से उधर उड़े कुछ उधर से इधर उड़े ।
चित्र साभार: www.dreamstime.com
जवाब देंहटाएंशर्म हमको मगर नहीं आती …मंगलकामनाएं उलूक को
आपकी इस उत्कृष्ट रचना का उल्लेख कल सोमवार (30-03-2015) की चर्चा "चित्तचोर बने, चित्रचोर नहीं" (चर्चा - 1933) पर भी होगा.
जवाब देंहटाएंसूचनार्थ
बहुत सुंदर .
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : बिन रस सब सून
नई पोस्ट : अपनों से लड़ना पड़ा मुझे
बेशर्म यूनियन जिंदाबाद।
जवाब देंहटाएंशब्दों की एक और जादूगरी !
जवाब देंहटाएंवाह! लाजवाब रचना।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर जोशी जी
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